सम्पूर्ण विष्णु पुराण (द्वितीय अंश) का तीसरा व चौथा अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (द्वितीय अंश) का तीसरा व चौथा अध्याय}} {The third and fourth chapters of the complete Vishnu Purana (second part)}


                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (द्वितीय अंश)


                             "तीसराअध्याय"


                "भारतादि नौ खंडो का विभाग"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! जो समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में स्थित है वह देश भारतवर्ष कहलाता है | उसमें भरत की सन्तान बसी हुई है || १ || हे महामुने ! इसका विस्तार नौ हजार योजन है | यह स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त करनेवालों की कर्मभूमि है || २ || इसमें महेंद्र, मलय, सहय, शुक्तिमान, ऋक्ष, विन्ध्य और पारियात्र – ये सात कुलपर्वत है || ३ || हे मुने ! इसी देश में मनुष्य शुभकर्मोंद्वारा स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त कर सकते है और यहीसे [पाप-कर्मों में प्रवृत्त होनेपर ] वे नरक अथवा तिर्यग्योनि में पड़ते है || ४ || यही से स्वर्ग, मोक्ष, अन्तरिक्ष अथवा पाताल आदि लोकों को प्राप्त किया जा सकता है, पृथ्वी में यहाँ के सिवा और कही भी मनुष्य के लिये कर्म की विधि नहीं है || ५ ||

इस भारतवर्ष के नौ भाग है; उनके नाम ये है – इंद्रद्वीप, कसेरू, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व और वारुण तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नवाँ है || ६ – ७ || यह द्वीप उत्तरसे दक्षिणतक सहस्त्र योजन है | इसके पुर्वीय भाग में किरात लोग और पश्चिमीय में यवन बसे हुए है || ८ || तथा यज्ञ, युद्ध और व्यापार आदि अपने-अपने कर्मों की व्यवस्था के अनुसार आचरण करते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र्गण वर्णविभागानुसार मध्य में रहते है || ९ || हे मुने ! इसकी शतद्रु और चन्द्रभागा आदि नदियाँ हिमालय की तलैटी से वेद और स्मृति आदि पारियात्र पर्वत से, नर्मदा और सुरसा आदि विंध्याचलसे तथा तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या आदि ऋक्षगिरी से निकली है || १० – ११ || गोदावरी, भीमरथी और कृष्णवेणी आदि पापहारिणी नदियाँ सहयपर्वत से उप्तन्न हुई कही जाती है || १२ || कृतमाला और ताम्रपर्णी आदि मलयाचल से, त्रिसामा और आर्यकुल्या आदि महेन्द्रागिरी से तथा ऋषि कुल्या और कुमारी आदि नदियाँ शुक्तिमान पर्वत से निकली है | इनकी और भी सहस्त्रों शाखा नदियाँ और उपनदियाँ है || १३ – १४ ||

इन नदियों के तटपर कुरु, पांचाल और मध्यदेशादि के रहनेवाले, पुर्वदेश और कामरूप के निवासी, पुंड्र, कलिंग, मगध और दाक्षिणात्यलोग, अपरांतदेशवासी, सौराष्ट्रगण तथा शूर, आभीर और अर्बुदगण, कारुष, मालब और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व और कोशल देशवासी तथा माद्र, आराम, अम्बष्ठ और पारसीगण रहते है || १५ – १७ || हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते है और इन्हींका जल पान करते है | इनकी सन्निधि के कारण वे बड़े ह्रष्ट-पुष्ट रहते है || १८ ||

हे मुने ! इस भारतवर्ष में ही सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि नामक चार युग है, अन्यत्र कहीं नहीं || १९ || इस देश में परलोक के लिये मुनिजन तपस्या करते है, याज्ञिक लोग यज्ञानुष्ठान करते है और दानीजन आदरपूर्वक दान देते है || २० || जम्बूद्वीप में यज्ञमय यज्ञपुरुष भगवान विष्णु का सदा यज्ञोद्वारा यजन किया जाता है, इसके अतिरिक्त अन्य द्वीपों में उनकी और – और प्रकार से उपासना होती है || २१ || हे महामुने ! इस जम्बुद्वीप से भी भारतवर्ष सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि यह कर्मभूमि है इसके अतिरिक्त अन्यान्य देश भोग-भूमियाँ अहिं || २२ || हे सत्तम ! जीवको सहस्त्रो जन्मों के अनन्तर महान पुण्यों का उदय होनेपर ही कभी इस देशमें मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है || २३ || देवगण भी निरंतर यही गान करते है कि ‘जिन्होंने स्वर्ग और अपवर्ग के मार्गभूत भारतवर्ष में जन्म लिया है वे पुरुष हम देवताओं की अपेक्षा भी अधिक धन्य )बडभागी) है || २४ || जो लोग इस कर्मभूमि में जन्म लेकर अपने फलाकार से रहित कर्मों को परमात्मस्वरूप श्रीविष्णुभगवान को अर्पण करने से निर्मल (पापपुण्यसे रहित ) होकर उन अनंत में ही लीन हो जाते है [ वे धन्य है ] || २५ ||

‘पता नही, अपने स्वर्गप्रदकर्मों का क्षय होनेपर हम कहाँ जन्म ग्रहण करेंगे ! धन्य तो वे ही मनुष्य हैं जो भारतभूमि में उत्पन्न होकर इन्दिर्यों की शक्ति से हीन नही हुए है’ || २६ ||

हे मैत्रेय ! इस प्रकार लाख योजन के विस्तारवाले नववर्ष-विशिष्ट इस जम्बुद्वीप का मैंने तुमसे संक्षेप से वर्णन किया || २७ || हे मैत्रेय ! इस जम्बुद्वीप को बाहर चारों ओर से लाख योजन के विस्तारवाले वलयाकार खारे पानी के समुद्र ने घेरा हुआ है || २८ ||

          "इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे तृतीयोऽध्याय"

                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (द्वितीय अंश)


                            "चौथा अध्याय"


                  "सात पाताल लोकों का वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे द्विज ! मैंने तुमसे वह पृथ्वीका विस्तार कहा; इसकी ऊँचाई भी सत्तर सहस्त्र योजन कही जाती है || १ || हे मुनिसत्तम ! अटल, वितल, नितल, गभस्तिमान, महातल, सुतल और पाताल इन सातों में से प्रत्येक दस-दस सहस्त्र योजन की दूरीपर है || २ || हे मैत्रेय ! सुंदर महलों से सुशोभित वहाँ की भूमियाँ शुक्ल, कृष्ण, अरुण और पीत वर्ण की तथा शर्करामयी (कंकरीली), सैली (पत्थरकी ) सुवर्णमयी है || ३ || हे महामुने ! उनमें दानव, दैत्य, यक्ष और बड़े- बड़े नाग आदिकों की सैकड़ो जातियाँ निवास करती है || ४ ||

एक बार नारदजी ने पाताल लोक से स्वर्ग में आकर वहाँ के निवासियों से कहा था कि ‘पाताल तो स्वर्ग से भी अधिक सुंदर है’ || ५ || जहाँ नागगण के आभूषणों में सुंदर प्रभायुक्त आह्लादकारिणी शुभ्र मणियाँ जड़ी हुई है उस पाताल को किसके समान कहें ? || ६ || जहाँ – तहाँ दैत्य और दानवों की कन्याओं से सुशोभित पाताललोक में किस मुक्त पुरुष की भी प्रीति न होगी || ७ || जहाँ दिन में सूर्य की किरणे केवल प्रकाश ही करती है, घाम नहीं करतीं; तथा रात में चन्द्रमा की किरणों से शीत नहीं होता, केवल चाँदनी ही फैलती है || ८ || जहाँ भक्ष्य, भोज्य और महापानादि के भोगों से आनन्दित सर्पों तथा दानवादिकों को समय जाता हुआ भी प्रतीत नही होता || ९ || जहाँ सुंदर वन, नदियाँ, रमणीय सरोवर और कमलों के वन है, जहाँ नरकोकीलों लो सुमधुर कूक गूँजती है एवं आकाश मनोहारी है || १० | और हे द्विज ! जहाँ पातालनिवासी दैत्य, दानव, एवं नागगणद्वारा अति स्वच्छ आभूषण, सुगंधमय अनुलेपन, वीणा, वेणु और मृंदगादि के स्वर तथा तूर्य – ये सब एवं भाग्यशालियों के भोगनेयोग्य और भी अनेक भोग भोगे जाते है || ११ – १२ ||

पातालों के नीचे विष्णुभगवान् का शेष नामक जो तमोमय विग्रह है उसके गुणों का दैत्य अथवा दानवगण भी वर्णन नहीं कर सकते || १३ || जिन देवर्षिपूजित देवका सिद्धगण ‘अनंत’ कहकर बखान करते है वे अति निर्मल, स्पष्ट स्वस्तिक चिन्हों से विभूषित तथा सहस्त्र सिरवाले है || १४ || जो अपने फणों की सहस्त्र मणियों से सम्पूर्ण दिशाओं को देदीप्यमान करते हुए संसार के कल्याण के लिये समस्त असुरों को वीर्यहीन करते रहते है || १५ || मद के कारण अरुणनयन, सदैव एक ही कुंडल पहने हुए तथा मुकुट और माला आदि धारण किये जो अग्नियुक्त श्वेत पर्वत के समान सुशोभित है || १६ || मद से उन्मत्त हुए जो नीलाम्बर तथा श्वेत हारों से सुशोभित होकर मेघमाला और और गंगाप्रवाह से युक्त दूसरे कैलास – पर्वत के समान विराजमान है || १७ || जो अपने हाथों में हल और उत्तम मूसल धारण किये है तथा जिनकी उपासना शोभा और वारुणी देवी स्वयं मूर्तिमती होकर करती है || १८ || कल्पांत में जिनके मुखों से विशाग्रिशिखा के समान देदीप्यमान संकर्षणनामक रूद्र निकलकर तीनों लोकों का भक्षण कर जाता है || १९ || वे समस्त देवगणों से वन्दित शेषभगवान् अशेष भूमंडल को मुकुटवत धारण किये हुए पातालतल में विराजमान है || २० || उनका बल-वीर्य, प्रभाव, स्वरूप (तत्त्व ) और रूप (आकार) देवताओं से भी नहीं जाना और कहा जा सकता || २१ || जिनके फणों की मणियों की आभासे अरुण वर्ण हुई यह समस्त पृथ्वी फूलों की माला के समान रखी हुई है उनके बल-वीर्य का वर्णन भला कौन करेगा ? || २२ ||

जिस समय मदमत्तनयन शेषजी जमुहाई लेते है उस समय समुद्र और वन आदि के सहित यह सम्पूर्ण पृथ्वी चलायमान हो जाती है || २३ || इनके गुणों का अंत गन्धर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, नाग और चारण आदि कोई भी नहीं पा सकते, इसलिये ये अविनाशी देव ‘अनंत’ कहलाते है || २४ || जिनका नाग-वधुओंद्वारा लेपित हरिचन्दन पुन:पुन: श्वास-वायुसे छट –छुटकर दिशाओं को सुगन्धित करता रहता है || २५ || जिनकी आराधना से पूर्वकालीन महर्षि गर्ग ने समस्त ज्योतिर्मंडल (ग्रहनक्षत्रादि) और शकुन- अपशकुनादि नैमित्तिक फलों को तत्त्वत: जाना था || २६ || उन नागश्रेष्ठ शेषजी ने इस पृथ्वी को अपने मस्तकपर धारण किया हुआ है, जो स्वयं भी देव, असुर और मनुष्यों के सहित सम्पूर्ण लोकमाला को धारण किये हुए है || २७ ||

           "इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे चतुर्थोऽध्याय"

(नोट :- सभी अंश  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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