सम्पूर्ण विष्णु पुराण (द्वितीय अंश) का पहला व दूसरा अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (द्वितीय अंश) का पहला व दूसरा अध्याय}} {The first and second chapters of the entire Vishnu Purana (second part))}


                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (द्वितीय अंश)


                            "पहला अध्याय"

 "प्रियव्रत के वंश का वर्णन"
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे भगवन ! हे गुरो ! मैंने जगत की सृष्टि के विषय में आपसे जो कुछ पूछा था वह सब आपने मुझसे भली प्रकार कह दिया || १ || हे मुनिश्रेष्ठ ! जगतकी सृष्टि सम्बन्धी आपने जो यह प्रथम अंश कहा है, उसकी एक बात मैं और सुनना चाहता हूँ || २ || स्वायम्भुवमनु के जो प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र थे, उनमेंसे उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव के विषय में तो आपने कहा || ३ || किन्तु, हे द्विज ! आपने प्रियव्रत की सन्तान के विषय में कुछ भी नही कहा, अत: मैं उसका वर्णन सुनना चाहता हूँ, सो आप प्रसन्नतापूर्वक कहिये || ४ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– प्रियव्रत ने कर्दमजी की पुत्री से विवाह किया था , उससे उनके सम्राट और कुक्षि नामकी दो कन्याएँ तथा दस पुत्र हुए || ५ || प्रियव्रत के पुत्र बड़े बुद्धिमान, बलवान, विनयसम्पन्न और अपने माता-पिता के अत्यंत प्रिय कहे जाते हैं; उनके नाम सुनो – || ६ || वे आग्निध्र, अग्निबाहू, बपुष्मान, मेधा, मेधातिथि, भव्य, सवन और पुत्र थे तथा दसवाँ यथार्थनामा ज्योतिष्मान था | वे प्रियव्रत के पुत्र अपने बल-पराक्रम के कारण विख्यात थे || ७ – ८ || उनमे महाभाग मेधा, अग्निबाहू और पुत्र – ये तीन योगपरायण तथा अपने पूर्वजन्मका वृतांत जाननेवाले थे | उन्होंने राज्य आदि भोगों में अपना चित्त नहीं लगाया || ९ || हे मुने ! वे निर्मलचित्त और कर्म-फल की इच्छा से रहित थे तथा समस्त विषयों में सदा न्यायानुकूल ही प्रवृत्त होते थे || १० ||

हे मुनिश्रेष्ठ ! राजा प्रियव्रत ने अपने शेष सात महात्मा पुत्रों को सात द्वीप बाँट दिये || ११ || हे महाभाग ! पिता प्रियव्रत ने आग्निध्र को जम्बूद्वीप और मेधातिथि को प्लक्ष नामक दूसरा द्वीप दिया || १२ || उन्होंने शाल्मलद्वीप में वपुष्मान को अभिषिक्त किया; ज्योंतिष्मान को कुशद्वीप का राजा बनाया || १३ || द्युतिमान को क्रौंचद्वीप के शासनपर नियुक्त किया, भव्य को प्रियव्रतने शाकद्वीप का स्वामी बनाया और सवन को पुष्करद्वीप का अधिपति किया || १४ ||

हे मुनिसत्तम ! उनमें जो जम्बूद्वीप के अधीश्वर राजा आग्रिध्र थे उनके प्रजापति के समान नौ पुत्र हुए | वे नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत्त, रम्य, हिरण्वान, कुरु, भद्राक्ष और सत्कर्मशील राजा केतुमाल थे || १५ – १७ || हे विप्र ! अब उनके जम्बूद्वीप के विभाग सुनो | पिता आग्निध्र ने दक्षिण की ओरका हिमवर्ष [ जिसे अब भारतवर्ष कहते है ] नाभि को दिया || १८ || इसीप्रकार किम्पुरुष को हेमकूटवर्ष तथा हरिवर्ष को तीसरा नैषधवर्ष दिया || १९ || जिसके मध्य में मेरुपर्वत है वह इलावृत्तवर्ष उन्होंने इलावृत को दिया तथा नीलाचल से लगा हुआ वर्ष रम्य को दिया || २० ||

पिता आग्निध्र ने उसका उत्तरवर्ती श्वेतवर्ष हिरण्वान को दिया तथा जो वर्ष श्रुंगवानपर्वत के उत्तर में स्थित है वह कुरु को और जो मेरु के पूर्व में स्थित है वह भद्राश्व को दिया तथा केतुमाल को गन्धमादनवर्ष दिया | इसप्रकार राजा आग्निध्र ने अपने पुत्रोंको ये वर्ष दिये || २१ – २३ || हे मैत्रेय ! अपने पुत्रों को इन वर्षो में अभिषिक्त कर वे तपस्या के लिये शालग्राम नामक महापवित्र क्षेत्र को चले गये || २४ ||

हे महामुने ! किम्पुरुष आदि जो आठ वर्ष है उनमें सुख की बहुलता है और बिना यत्न के स्वभाव से ही समस्त भोग-सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है || २५ || उनमें किसी प्रकार के विपर्यय (असुख या अकाल – मृत्यु आदि) तथा जरा-मृत्यु आदिका कोई भय नहीं होता और न धर्म, अधर्म अथवा उत्तम, अधम और मध्यम आदिका ही भेद है | उन आठ वर्षों में कभी कोई युगपरिवर्तन भी नहीं होता || २६ ||

महात्मा नाभि का हिम नामक वर्ष था; उनके मेरुदेवी से अतिशय कान्तिमान ऋषभ नामक पुत्र हुआ || २७ || ऋषभजी के भरत का जन्म हुआ जो उनके सौ पुत्रों में सबसे बड़े थे | महाभाग पृथ्वीपति ऋषभदेवजी धर्मपूर्वक राज्य-शासन तथा विविध यज्ञों का अनुष्ठान करने के अनन्तर अपने वीर पुत्र भरत को राज्याधिकार सौंपकर तपस्या के लिये पुलहाश्रम को चले गये || २८ – २९ || महाराज ऋषभ ने वहाँ भी वानप्रस्थ आश्रम की विधि से रहते हुए निश्चयपूर्वक तपस्या की तथा नियमानुकूल यज्ञानुष्ठान किये || ३० || वे तपस्या के कारण सुखकर अत्यंत कृष हो गये और उनके शरीर की शिराएँ दिखायी देने लगीं | अंत में अपने मुख में एक पत्थर की बटिया रखकर उन्होंने नग्नावस्था में महाप्रधान किया || ३१ ||

पिता ऋषभदेवजी ने वन जाते समय अपना राज्य भरतजी को दिया था; अत: तबसे यह (हिमवर्ष) इस लोक में भारतवर्ष नामसे प्रसिद्ध हुआ || ३२ || भरतजी के सुमति नामक परम धार्मिक पुत्र हुआ | पिता (भरत) ने यज्ञानुष्ठानपूर्वक यथेच्छ राज्य-सुख भोगकर उसे सुमति को सौंप दिया || ३३ || हे मुने ! महाराज भरत ने पुत्र को राज्यलक्ष्मी सौंपकर योगाभ्यास में तत्पर हो अंत में शालग्रामक्षेत्र में अपने प्राण छोड़ दिये || ३४ || फिर इन्होने योगियों के पवित्र कुल में ब्राह्मणरूप से जन्म लिया | हे मैत्रेय ! इनका वह चरित्र मैं तुमसे फिर कहूँगा || ३५ ||

तदनन्तर सुमति के वीर्य से इन्द्रद्युम्र का जन्म हुआ, उससे परमेष्ठी और परमेष्ठी का पुत्र प्रतिहार हुआ || ३६ || प्रतिहार के प्रतिहर्ता नामसे विख्यात पुत्र उत्पन्न हुआ तथा प्रतिहर्ता नामसे विख्यात पुत्र उत्पन्न हुआ तथा प्रतिहर्ता पुत्र भवम भवका उद्रीथ और उद्रीथ का पुत्र अति समर्थ प्रस्ताव हुआ || ३७ || प्रस्ताव का पृथु – पृथुका नक्त और नक्त का पुत्र गय हुआ | गय जे नर और उसके विराट नामक पुत्र हुआ || ३८ || उसका पुत्र महावीर्य था, उससे धीमान का जन्म हुआ तथा धीमान का पुत्र महान्त और उसका पुत्र मनस्यु हुआ || ३९ || मनस्यु का पुत्र त्वष्टा, त्वष्टा का विरज और विरज का पुत्र रज हुआ | हे मुने रज के पुत्र शतजित के सौ पुत्र उत्पन्न हुए || ४० || उनमें विप्रज्योति प्रधान था | उन सौ पुत्रों से यहाँ की प्रजा बहुत बढ़ गयी | तब उन्होंने इस भारतवर्ष को नौ विभागों से विभूषित किया || ४१ || उन्हीं के वंशधरों ने पूर्वकाल में कृतत्रेतादि युगक्रम से इकहत्तर युगपर्यन्त इस भारतभूमि को भोगा था || ४२ || हे मुने ! यही इस वाराहकल्प में सबसे पहले मन्वन्तराधिप स्वायम्भुवमनुका वंश है, जिसने उससमय इस सम्पूर्ण संसार को व्याप्त किया हुआ था || ४३ ||

            "इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे प्रथमोऽध्याय"

                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (द्वितीय अंश)


                            "दुसरा अध्याय"

    "भूगोल का विवरण'
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे ब्रह्मन ! आपने मझसे स्वायम्भुवमनु के वंश का वर्णन किया , अब मैं आपके मुखार्विदं से सम्पूर्ण पृथ्वीमंडल का विवरण सुनना चाहता हूँ || १ || हे मुने ! जितने भी सागर, द्वीप, वर्ष, पर्वत, वन, नदियाँ और देवता आदि की पुरियाँ है, उन सबका जितना – जितना परिमाण है, जो आधार है, जो उपादान-कारण है और जैसा आकार है, वह सब आप यथावत वर्णन कीजिये || २ -३ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! सुनो, मैं इन सब बातोंका संक्षेप से वर्णन करता हूँ, इनका विस्तारपूर्वक वर्णन तो सौ वर्ष में भी नही हो सकता || ४ || हे द्विज ! जम्बू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रोंच, शाक और सातवाँ पुष्कर – ये सातों द्वीप चारों ओर से खारे पानी, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, दुग्ध और मीठे जलके सात समुद्रों से घिरे हुए है || ५ – ६ ||

हे मैत्रेय ! जम्बुद्वीप इन सबके मध्य में स्थित है और उसके भी बीचों – बीच में सुवर्णमय सुमेरुपर्वत है || ७ || इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है और नीचे के ओर यह सोलह हजार योजन पृथ्वी में घुसा हुआ है | इसका विस्तार ऊपरी भाग में बत्तीस हजार योजन है तथा नीचे केवल सोलह हजार योजन है | इसप्रकार यह पर्वत इस पृथ्वीरूप कमल की कर्णिका (कोश) के समान है || ८ – १० || इसके दक्षिण में हिमवान, हेमकूट और निषध तथा उत्तर में नील, श्वेत और शृंगी नामक वर्षपर्वत है || ११ || उनमे बीच के दो पर्वत [ निषध और नील] एक-एक लाख योजनतक फैले हुए हैं, उनसे दूसरे-दूसरे दस-दस हजार योजन कम है | [अर्थात हेमकूट और श्वेत नब्बे – नब्बे हजार योजन तथा हिमवान और शृंगी अस्सी- अस्सी सहस्त्र योजनतक फैले हुए है ] वे सभी दो – दो सहस्र योजन ऊँचे और इतने ही चौड़े है || १२ ||

हे द्विज ! मेरुपर्वत के दक्षिण की ओर पहला भारतवर्ष है तथा दूसरा किम्पुरुषवर्ष और तीसरा हरिवर्ष है || १३ || उत्तर की ओर प्रथम रम्यक, फिर हिरण्मय और तदनन्तर उत्तरकुरुवर्ष है जो भारतवर्ष के समान है || १४ || हे द्विजश्रेष्ठ ! इनमें से प्रत्येकका विस्तार नौ – नौ हजार योजन है तथा इन सबके बीचमें इलावृतवर्ष है जिसमें सुवर्णमय सुमेरुपर्वत खड़ा हुआ है || १५ || हे महाभाग ! यह इलावृतवर्ष सुमेरु के चारों और नौ हजार योजनतक फैला हुआ है | इसके चारों ओर चार पर्वत है || १६ || ये चारों पर्वत मानो सुमेरु को धारण करने के लिये ईश्वरकृत कीलियाँ है | इनमे से मन्दराचल पूर्व में, गन्धमादन दक्षिण में, विपुल पश्चिम में और सुपार्श्व उत्तर में है | ये सभी दस – दस हजार योजन ऊँचे है || १७ – १८ || इनपर पर्वतों की ध्वजाओं के समान क्रमश: ग्यारह – ग्यारह सौ योजन ऊँचे कदम्ब, जम्बू, पीपल और वटके वृक्ष है || १९ ||

हे महामुने ! इनमें जम्बू (जामुन) वृक्ष जम्बुद्वीप के नामका कारण है | उसके फल महान गजराज के समान बड़े होते है | जब वे पर्वतपर गिरते है तो फटकर सब ओर फ़ैल जाते है || २० || उनके रस से निकली जम्बू नामकी प्रसिद्ध नदी वहाँ बहती है, जिसका जल वहाँ के रहनेवाले पीते है || २१ || उसका पान करनेसे वहाँ के शुद्धचित्त लोगों को पसीना, दुर्गन्ध, बुढ़ापा अथवा इन्द्रियक्षय नहीं होता || २२ || उसके किनारे की मृत्तिका उस रस से मिलकर मंद – मंद वायु से सूखनेपर जाम्बूनद नामक सुवर्ण हो जाती है, जो सिद्ध पुरुषों का भूषण है || २३ || मेरु के पूर्व में भद्राश्ववर्ष और पश्चिम में केतुमालवर्ष है तथा हे मुनिश्रेष्ठ ! इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है || २४ || इसी प्रकार उसके पूर्व की ओर चैत्ररथ, दक्षिण की ओर गंधमादन, पश्चिम की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नंदन नामक वन है || २५ || तथा सर्वदा देवताओं से सेवनीय अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस – ये चार सरोवर है || २६ ||

हे मैत्रेय ! शीताम्भ, कुमुन्द, कुररी, माल्यवान तथा वैकंक आदि पर्वत मेरु के पूर्व दिशाके केसराचल है || २७ || त्रिकुट, शिशिर, पतंग, रुचक और निषाद आदि केसराचल उसके दक्षिण ओर है || २८ || शिखिवासा, वैडूर्य, कपिल, गन्धमादन और जारूधि आदि उसके पश्चिमीय केसरपर्वत है || २९ || तथा मेरु के अति समीपस्थ इलावृतवर्ष में और जठरादि देशों में स्थित शंखकूट, ऋषभ, हँस, नाग तथा कालंज आदि पर्वत उत्तरदिशा के केसराचल है || ३० ||

हे मैत्रेय ! मेरु के ऊपर अन्तरिक्षा में चौदह सहस्त्र योजन के विस्तारवाली ब्रह्माजी की महापुरी (ब्रह्मपुरी) है || ३१ || उसके सब ओर दिशा एवं विदिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों के आठ अति रमणीक और विख्यात नगर है || ३२ || विष्णुपादोभ्दवा श्रीगंगाजी चन्द्रमंडल को चारो ओर से आप्लावित कर स्वर्गलोक से ब्रह्मपुरी में गिरती है || ३३ || वहाँ गिरनेपर वे चारों दिशाओं में क्रम से सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा नामसे चार भागों में विभक्त हो जाती है || ३४ || उनमें से सीता पूर्वकी ओर आकाशमार्ग से एक पर्वत से दूसरे पर्वतपर जाती हुई अंत में पूर्वस्थित भद्राश्ववर्ष को पारकर समुद्र में मिल जाती है || ३५ || इसीप्रकार, हे महामुने ! अलकनंदा दक्षिण-दिशा की ओर भारतवर्ष में आती है और सात भागों में विभक्त होकर समुद्र में मिल जाती अहि || ३६ || चक्षु पश्चिमदिशा के समस्त पर्वतों को पारकर केतुमाल नामक वर्ष में बहती हुई अंत में सागर में जा गिरती है || ३७ || तथा हे महामुने ! भद्रा उत्तर के पर्वतों और उत्तरकुरुवर्ष को पार करती हुई उत्तरीय समुद्र में मिल जाती है || ३८ || माल्यवान और गंधमादनपर्वत उत्तर तथा दक्षिण की ओर नीलाचल और निषधपर्वततक फैले हुए है | उन दोनों के बीच में कर्णिकाकार मेरुपर्वत स्थित है || ३९ ||

हे मैत्रेय ! मर्यादापर्वतों के बहिर्भाग में स्थित भारत, केतुमाल, भद्राश्व और कुरुवर्ष इस लोकपद्म के पत्तों के समान है || ४० || जठर और देवकूट – ये दोनों मर्यादापर्वत है जो उत्तर और दक्षिण की ओर नील तथा निषधपर्वततक फैले हुए है || ४१ || पूर्व और पश्चिम की ओर फैले हुए गंधमादन और कैलास – ये दो पर्वत जिनका विस्तार अस्सी योजन है, समुद्र के भीतर स्थित है || ४२ || पूर्व के समान मेरु की पश्चिम ओर भी निषध एयर पारियात्र नामक दो मर्यादापर्वत स्थित है || ४३ || उत्तर की ओर त्रिश्रुंग और जारूधि नामक वर्षपर्वत है | ये दोनों पूर्व और पश्चिमकी ओर समुद्र के गर्भ में स्थित है || ४४ || इसप्रकार, हे मुनिवर ! तुमसे जठर आदि मर्यादापर्वतों का वर्णन किया, जिनमें से दो – दो मेरु की चारों दिशाओं में स्थित है || ४५ ||

हे मुने ! मेरु के चारों ओर स्थित जिन शीतांत आदि केसरपर्वतों के विषय में तुमसे कहा था, उनके बीच में सिद्ध – चारणादि से सेवित अति सुंदर कन्दराएँ है || ४६ || हे मुनिसत्तम ! उनमें सुरम्य नगर तथा उपवन है और लक्ष्मी, विष्णु, अग्नि एवं सूर्य आदि देवताओं के अत्यंत सुंदर मन्दिर है जो सदा किन्नरश्रेष्ठों से सेवित रहते है || ४७ || उन सुंदर पर्वत – द्रोणियों में गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, दैत्य और दानवादि अहर्निश क्रीडा करते है || ४८ || हे मुने ! ये सम्पूर्ण स्थान भौम (पृथ्वी के ) स्वर्ग कहलाते हिल ये धार्मिक पुरुषों के निवासस्थान है | पापकर्मा पुरुष इनमें सौ जन्म में भी नहीं जा सकते || ४९ ||

हे द्विजो ! श्रीविष्णुभगवान भद्राश्ववर्ष में हयग्रीवरूप से, केतुमालवर्ष में वराहरूप से और भारतवर्ष में कूर्मरूप से रहते है || ५० || तथा वे भक्तप्रतिपालक श्रीगोविंद कुरुवर्ष में मत्स्यरूप से रहते है | इस प्रकार वे सर्वमय सर्वगामी हरि विश्वरूप से सर्वत्र ही रहते है | हे मैत्रेय ! वे सबके आधारभूत और सर्वात्मक है || ५१ – ५२ || हे महामुने ! किम्पुरुष आदि जो आठ वर्ष है उनमें शोक, श्रम, उव्देग और क्षुधा का भय आदि कुछ भी नहीं है || ५३ || वहाँ की प्रजा स्वस्थ, आतंकहीन और समस्त दु:खोंसे रहित है तथा वहाँ के लोग दस-बारह हजार वर्ष की स्थिर आयुवाले होते है || ५४ || उनमें वर्षा कभी नहीं होती, केवल पार्थिव जल ही है और न उन स्थानों में कृतत्रेतादि युगों की ही कल्पना है || ५५ || हे द्विजोत्तम ! इन सभी वर्षों में सात – सात कुल पर्वत है और उनसे निकली हुई सैकड़ो नदियाँ है || ५६ ||

            "इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे द्वितीयोऽध्याय"

(नोट :- सभी अंश  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें