सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय}} {The nineteenth and twentieth chapters of the entire Vishnu Purana (first volume))}


                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                 (प्रथम अंश)


                            "उन्नीसवाँ अध्याय"


"प्रल्हादकृत भगवत – गुण – वर्णन और प्रल्हाद की रक्षा के लिये भगवान का सुदर्शनचक को भेजना"
श्रीपराशरजी बोले ;– हिरण्यकशिपु ने कृत्या को भी विफल हुई सुन अपने पुत्र प्रल्हाद को बुलाकर उनके इस प्रभाव का कारण पूछा || १ ||

हिरण्यकशिपु पूछा ;– अरे प्रल्हाद ! तू बड़ा प्रभावशाली है ! तेरी ये चेष्टाएँ मन्त्रादिजनित है या स्वाभाविक ही है || २ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– पिता के इसप्रकार पूछनेपर दैत्यकुमार प्रल्हादजी ने उसके चरणों में प्रणाम कर इसप्रकार कहा || ३ || “पिताजी ! मेरा यह प्रभाव न तो मन्त्रादिजनित है और न स्वाभाविक ही है, बल्कि जिस – जिस के ह्रदय में श्रीअच्युतभगवान का निवास होता है उसके लिये यह सामान्य बात है || ४ || जो मनुष्य अपने समान दूसरों का बुरा नही सोचता, हे तात ! कोई कारण न रहने से उसका भी कभी बुरा नहीं होता || ५ || जो मनुष्य मन, वचन या कर्म से दूसरों को कष्ट देता है उसके इस परपीड़ारूप बीजसे ही उत्पन्न हुआ उसको अत्यंत अशुभ फल मिलता है || ६ || अपनेसहित समस्त प्राणियों में श्रीकेशव को वर्तमान समझकर मैं न तो किसीका बुरा चाहता हूँ और न कहता या करता ही हूँ || ७ || इसप्रकार सर्वत्र शुभचित्त होने से मुझ को शारीरिक , मानसिक, दैविक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? || ८ || इसीप्रकार भगवान को सर्वभूतमय जानकर विद्वानों को सभी प्राणियों में अविचल भक्ति (प्रेम) करनी चाहिये “ || ९ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– अपने महल की अट्टालिकापर बैठे हुए उस दैत्यराज ने यह सुनकर क्रोधान्ध हो अपने दैत्य-अनुचरों से कहा || १० ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– यह बड़ा दुरात्मा है, इसे इस सौ योजन ऊँचे महल से गिरा दो, जिससे यह इस पर्वत के ऊपर गिरे और शिलाओं से इसके अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो जायें || ११ ||

तब उन समस्त दैत्य और दानवोंने उन्हें महल से गिरा दिया और वे भी उनके ढकेलने से ह्रदयमें श्रीहरि का स्मरण करते-करते नीचे गिरे गये || १२ || जगत्कर्ता भगवान केशव के परमभक्त प्रल्हादजी के गिरते समय उन्हें जगध्दात्री पृथ्वी ने निकट जाकर अपनी गोद में ले लिया || १३ || तब बिना किसी हड्डी – पसली के टूटे उन्हें स्वस्थ देख दैत्यराज हिरण्यकशिपुने परममायावी शम्बरासुर से कहा || १४ ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– यह दुर्बुद्धि बालक कोई ऐसी माया जानता है जिससे वह हमसे नहीं मारा जा सकता, इसलिये आप माया से ही इसे मार डालिये || १५ ||

शम्बरासुर बोला ;– हे दैत्येन्द्र ! इस बालक को मैं अभी मारे डालता हूँ, तुम मेरी माया का बल देखो | देखो, मैं तुम्हे सैकड़ों – हजारों – करोड़ों मायाएँ दिखलाता हूँ || १६ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– तब उस दुर्बुद्धि शम्बरासुर ने समदर्शी प्रल्हाद के लिये, उनके नाश की इच्छा से बहुत-सी मायाएँ रचीं || १७ || किन्तु, हे मैत्रेय ! शम्बरासुर के प्रति भी सर्वथा द्वेषहीन रहकर प्रल्हादजी सावधान चित्त से श्रीमधुसूदनभगवान का स्मरण करते रहे || १८ || उससमय भगवान की आज्ञा से उनकी रक्षा के लिये वहाँ ज्वाला-मालाओं से युक्त सुदर्शनचक्र आ गया || १९ || उस शीघ्रगामी सुदर्शनचक्र ने उस बालक की रक्षा करते हुए शम्बरासुर की सहस्त्रों मायाओं को एक – एक करके नष्ट कर दिया || २० ||

तब दैत्यराज ने सबको सुखा डालनेवाले वायुसे कहा कि मेरी आज्ञा से तुम शीघ्र ही इस दुरात्मा को नष्ट कर दो || २१ || अत: उस अति तीव्र शीतल और रुक्ष वायुने, जो अति असहनीय था ‘जो आज्ञा’ कह उनके शरीर को सुखाने के लिये उसमें प्रवेश किया || २२ || अपने शरीर में वायु का आवेश हुआ ज्ञान दैत्यकुमार प्रल्हाद ने भगवान धरणीधर को ह्रदय में धारण किया || २३ || उनके ह्रदय में स्थित हुए श्रीजनार्दन ने क्रुद्ध होकर उस भीषण वायु को पी लिया, इससे वह क्षीण हो गया || २४ ||

इसप्रकार पवन और सम्पूर्ण मायाओं के क्षीण हो जानेपर महामति प्रल्हादजी अपने गुरु के घर चले गये || २५ || तदनन्तर गुरूजी उन्हें नित्यप्रति शुक्राचार्यजी की बनायी हुई राज्यफलप्रदायिनी राजनीति का अध्ययन कराने लगे || २६ || जब गुरूजी ने उन्हें नीतिशास्त्र में निपुण और विनयसम्पन्न देखा तो उनके पितासे कहा – ‘अब यह सुशिक्षित हो गया है’ || २७ ||

आचार्य बोले ;– हे दैत्यराज ! अब हमने तुम्हारे पुत्र को नीतिशास्त्र में पूर्णतया निपुण कर दिया है, भृगुनन्दन शुक्राचार्यजी ने जो कुछ कहा है उसे प्रल्हाद तत्त्वत: जानता ही || २८ ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– प्रल्हाद ! राजा को मित्रों से कैसा बर्ताव करना चाहिये ? और शत्रुओं से कैसा ? ततः त्रिलोकी में जो मध्यस्थ हों, उनसे किस प्रकार आचरण करे ? || २९ || मंत्रियों, अमात्यों, बाह्य और अंत”पुर के सेवकों, गुप्तचरों, पुरवासियों, शंकितों तथा अन्यान्य जनोंके प्रति किसप्रकार व्यवहार करना चाहिये ? || ३० || हे प्रल्हाद ! यह ठीक-ठीक बता कि करने और न करनेयोग्य कार्यों का विधान किसप्रकार करे, दुर्ग और आदविक (जंगली मनुष्य) आदिको किसप्रकार वशीभूत करे और गुप्त शत्रुरूप कटिको कैसे निकाले ? || ३१ || यह सब तथा और भी जो कुछ तूने पढ़ा हो वह सब मुझे सुना, मैं तेरे मनके भावों को जानने के लिये बहुत उत्सुक हूँ || ३२ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– तब विनयभूषण प्रल्हादजी ने पिता के चरणों में प्रणाम कर दैत्यराज हिरण्यकशिपु से हाथ जोडकर कहा || ३३ ||

प्रल्हादजी बोले ;– पिताजी ! इसमें संदेह नही, गुरूजी ने तो मुझे इन सभी विषयों की शिक्षा दी है, और मैं उन्हें समझ भी गया हूँ; परन्तु मेरा विचार है कि वे नीतियाँ अच्छी नही है || ३४ || साम, दान तथा दंड और भेद – ये सब उपाय मित्रादि के साधने के लिये बतलाये गये है || ३५ || किन्तु, पिताजी ! आप क्रोध न करें, मुझे तो कोई शत्रु-मित्र आदि दिखायी ही नहीं देते; और हे महाबाहो ! जब कोई साध्य ही नहीं है तो इन साधनों से लेना ही क्या है ? || ३६ || हे तात ! सर्वभूतात्मक जगन्नाथ जगन्मय परमात्मा गोविन्द में भला शत्रु-मित्र की बात ही कहाँ है ? || ३७ || श्रीविष्णुभगवान तो आपमें, मुझ में और अन्यत्र भी सभी जगह वर्तमान है, फिर ‘यह मेरा मित्र है और यह शत्रु है’ ऐसे भेदभाव को स्थान ही कहाँ है ? || ३८ || इसलिये, हे तात ! अविद्याजन्य दुष्कर्मो में प्रवृत्त करनेवाले इस वाग्जाल को सर्वथा छोडकर अपने शुभ के लिये ही यत्न करना चाहिये || ३९ || हे दैत्यराज ! अज्ञान के कारण की मनुष्यों की अविद्या में विद्या बुद्धि होती है | बालक क्या अज्ञानवश स्वद्योतको ही अग्नि नही समझ लेता ? || ४० || कर्म वही है जो बंधन का कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्ति की साधिका हो | इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरूप तथा अन्य विद्याएँ कला-कौशलमात्र ही है || ४१ ||

हे महाभाग ! इसप्रकार इन सबको असार समझकर अब आपको प्रणाम कर मैं उत्तम सार बतलाता हूँ, आप श्रवण कीजिये || ४२ || राज्य पानेकी चिंता किसे नहीं होती और धन की अभिलाषा भी किसको नहीं है ? तथापि ये दोनों मिलते उन्हीं को है जिन्हें मिलनेवाले होते है || ४३ || हे महाभाग ! महत्त्व-प्राप्ति के लिये सभी यत्न करते है, तथापि वैभव का कारण तो मनुष्य का भाग्य ही है , उद्यम नही || ४४ || हे प्रभो ! जड, अविवेकी, निर्वल और अनितिज्ञों को भी भाग्यवश नाना प्रकार के भोग और राज्यादि प्राप्त होते है || ४५ || इसलिये जिसे महान वैभव की इच्छा हो उसे केवल पुण्यसंचय का ही यत्न करना चाहिये; और जिसे मोक्ष की इच्छा हो उसे भी समत्वलाभका ही प्रयत्न करना चाहिये || ४६ || देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष और सरीसृप – ये सब भगवान विष्णु से भिन्न-से स्थित हुए भी वास्तव में श्रीअनंत के ही रूप है || ४७ || इस बात को जाननेवाला पुरुष सम्पूर्ण चराचर जगत को आत्मवत देखे, क्योंकि यह सब विश्वरूपधारी भगवान विष्णु ही है || ४८ || ऐसा जान लेनेपर वे अनादि परमेश्वर भगवान अच्युत प्रसन्न होते है और उनके प्रसन्न होनेपर सभी क्लेश क्षीण हो जाते है || ४९ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– यह सुनकर हिरण्यकशिपुने क्रोधपूर्वक अपने राजसिंहासन से उठकर पुत्र प्रल्हाद के वक्ष:स्थल में लात मारी || ५० || और क्रोध तथा अमर्ष से जलते हुए मानो सम्पूर्ण संसार को मार डालेगा इसप्रकार हाथ मलता हुआ बोला || ५१ ||

हिरण्यकशिपुने कहा ;– हे विप्रचित्ते ! हे राहो ! हे बल ! तुमलोग इसे भली प्रकार नागपाश से बाँधकर महासागर में डाल दो, देरी मत करो || ५२ || नहीं तो सम्पूर्ण लोक और दैत्य-दानव आदि भी इस मूढ़ दुरात्मा के मतका ही अनुगमन करेंगे [ अर्थात इसकी तरह व् भी विष्णुभक्त हो जायेंगे] || ५३ || हमने इसे बहुतेरा रोका, तथापि यह दुष्ट शत्रु की ही स्तुति किये जाता है | ठीक है, दुष्टों को तो मार देना ही लाभदायक होता है || ५४ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– तब उन दैत्यों ने अपने स्वामीकी आज्ञा को शिरोधार्य कर तुरंत ही उन्हें नागपाश से बाँधकर समुद्र में डाल दिया || ५५ || उससमय प्रल्हादजी के हिलने-डुलने से सम्पूर्ण महासागर में हलचल मच गयी और अत्यंत क्षोम के कारण उसमें सब ओर ऊँची – ऊँची लहरे उठने लगीं || ५६ || हे महामते ! उस महान जल-पूर से सम्पूर्ण पृथ्वी को डूबती देख हिरण्यकशिपुने दैत्यों से इसप्रकार कहा || ५७ ||

हिरण्यकशिपु बोला ;– अरे दैत्यों ! तुम इस दुर्मति को इस समुद्र के भीतर ही किसी ओरसे खुला न रखकर सब ओरसे सम्पूर्ण पर्वतों से दबा दो || ५८ || देखो, इसे न तो अग्नि ने जलाया, न यह शस्त्रों से कटा, न सर्पों से नष्ट हुआ और न वायु, विष और कृत्यासे ही क्षीण हुआ, तथा न यह मायाओं से, ऊपरसे गिराने से अथवा दिग्गजों से ही मारा गया | यह बालक अत्यंत दुष्ट-चित्त है, अब इसके जीवन का कोई प्रयोजन नहीं है || ५९ – ६० || अत: अब यह पर्वतों से लदा हुआ हजारों वर्षतक जलमें ही पड़ा रहे, इससे यह दुर्मति स्वयं ही प्राण छोड़ देगा || ६१ ||

तब दैत्य और दानवों ने उसे समुद्र में ही पर्वतों से ढँककर उसके ऊपर हजारों योजन का ढेर कर दिया || ६२ || उन महामति ने समुद्र से पर्वतों से लाद दिये जानेपर अपने नित्यकर्मों के समय एकाग्र चित्तसे श्रीअच्युतभगवान की इसप्रकार स्तुति की || ६३ ||

प्रल्हादजी बोले ;– हे कमलनयन ! आपको नमस्कार है | हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है | हे सर्वलोकात्मन ! आपको नमस्कार है | हे तीक्ष्णचक्रधारी प्रभो ! आपको बारंबार नमस्कार है || ६४ || गो-ब्राह्मण-हितकारी ब्रह्मण्यदेव भगवान कृष्ण को नमस्कार है | जगत-हितकारी श्रीगोविंद को बारंबार नमस्कार है || ६५ ||

आप ब्रह्मारूप से विश्व की रचना करते है, फिर उसके स्थित हो जानेपर विष्णुरूप से पालन करते है और अंत में रुद्ररूप से संहार करते है – ऐसे त्रिमूर्तिधारी आपको नमस्कार है || ६६ || हे अच्युत ! देव, यक्ष, असुर, सिद्ध, नाग, गन्धर्व, किन्नर, पिशाच, राक्षस, मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर, पिपीलिका (चींटी ), सरीसृप, पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, मन, बुद्धि, आत्मा, काल और गुज- इन सबके पारमार्थिक रूप आप ही है, वास्तव में आप ही ये सब है || ६७ – ६९ || आप ही विद्या और अविद्या, सत्य और असत्य तथा विष और अमृत है तथा आप ही वेदोक्त प्रवृत्त और निवृत्त कर्म है || ७० || हे विष्णो ! आप ही समस्त कर्मों के भोक्ता और उनकी सामग्री है तथा सर्व कर्मों के जितने भी फल है वे सब भी आप ही है || ७१ || हे प्रभो ! मुझमें तथा अन्यत्र समस्त भूतों और भुवनों में आपही के गुण और ऐश्वर्य की सूचिका व्याप्ति हो रही है || ७२ || योगिगण आपही का ध्यान करते है और याज्ञिकगण आपही का यजन करते है, तथा पितृगण और देवगण के रूप से एक आप ही हव्य और कव्य के भोक्ता है || ७३ ||

हे ईश ! यह निखिल ब्रह्माण्ड ही आपका स्थूलरप है, उससे सूक्ष्म यह संसार (पृथ्वीमंडल) है, उससे भी सूक्ष्म ये भिन्न-भिन्न रूपधारी समस्त प्राणी है; उनमें भी जो अंतरात्मा है वह और भी अत्यंत सूक्ष्म है || ७४ ||

उससे भी परे जो सूक्ष्म आदि विशेषणों का अविषम आपका कोई अचिन्त्य परमात्मस्वरूप है उन पुरुषोत्तमरूप आपको नमस्कार है || ७५ || हे सर्वात्मन ! समस्त भूतों में आपकी जो गुणाश्रया पराशक्ति है, हे सुरेश्वर ! उस नित्यस्वरूपिणी को नमस्कार है || ७६ || जो वाणी और मन के परे है, विशेषरहित तथा ज्ञानियों के ज्ञान से परिच्छेद्य है उस स्वतंत्रा पराशक्ति की मैं वन्दना करता हूँ || ७७ || ॐ उन भगवान् वासुदेव को सदा नमस्कार है, जिनसे अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है तथा जो स्वयं सबसे अतिरिक्त (असंग) है || ७८ || जिनका कोई भी नाम अथवा रूप नहीं है और जो अपनी सत्तामात्र से ही उपलब्ध होते है उन महात्माको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है || ७९ || जिनके पर-स्वरूप को न जानते हुए ही देवतागण उनके अवतार-शरीर को सम्यक अर्चन करते है उन महात्मा को नमस्कार है || ८० || जो ईश्वर सबके अंत:करणों में स्थित होकर उनके शुभाशुभ कर्मों को देखते है उन सर्वसाक्षी विश्वरूप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ || ८१ ||

जिनसे यह जगत सर्वथा अभिन्न है उन श्रीविष्णुभगवान् को नमस्कार है वे जगत के आदिकारण और योगियों के ध्येय अव्यय हरि मुझपर प्रसन्न हो || ८२ || जिनमे यह सम्पूर्ण विश्व ओतप्रोत है वे अक्षर, अव्यय और सबके आधारभूत हरि मुझपर प्रसन्न हो || ८३ || ॐ जीनमे सब कुछ स्थित है, जिनसे सब उत्पन्न हुआ है और जो स्वयं सब कुछ तथा सबके आधार है, उन श्रीविष्णुभगवान को नमस्कार है, उन्हें बारंबार नमस्कार है || ८४ || भगवान अनंत सर्वगामी है; अत: वे ही मेरे रूपसे स्थित है, इसलिये यह सम्पूर्ण जगत मुझही से हुआ है, मैं ही यह सब कुछ हूँ और मुझ सनातन में ही यह सब स्थित है || ८५ || मैं ही अक्षय, नित्य और आत्माधार परमात्मा हूँ; तथा मैं ही जगत के आदि के अंत में स्थित ब्रह्मसंज्ञक परमपुरुष हूँ || ८६ ||

      "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे एकोनविंशतितमोऽध्याय"

                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                 (प्रथम अंश)


                            "बीसवाँ अध्याय"

       "प्रल्हादकृत भगवत-स्तुति और भगवान का आविर्भाव"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे द्विज ! इसप्रकार भगवान विष्णु को अपने से अभिन्न चिन्तन करते-करते पूर्ण तन्मयता प्राप्त हो जाने से उन्होंने अपने को अच्युत रुप ही अनुभव किया || १ || वे अपने-आपको भूल गये; उस समय उन्हें श्रीविष्णुभगवान के अतिरिक्त और कुछ भी प्रतीत न होता था | बस, केवल यही भावना चित्त में थी कि मैं ही अव्यय और अनंत परमात्मा हूँ ||२ || उस भावना के योग से वे क्षीण-पाप हो गये और उनके शुद्ध अंत:करण में ज्ञानस्वरूप अच्युत श्रीविष्णुभगवान् विराजमान हुए || ३ ||

हे मैत्रेय ! इस प्रकार योगबल से असुर प्रल्हादजी के विष्णुमय हो जानेपर उनके विचलित होने से वे नागपाश एक क्षणभर में ही टूट गये || ४ || भ्रमणशील ग्राहगण और तरलतरंगों से पूर्ण सम्पूर्ण महासागर क्षुब्ध हो गया, तथा पर्वत और वनोपवनों से पूर्ण समस्त पृथ्वी हिलने लगी || ५ || तथा महामति प्रल्हादजी अपने ऊपर दैत्योंद्वारा लादे गये उस सम्पूर्ण पर्वत-समूह को दूर फेंककर जलसे बाहर निकल आये ||६ || तब आकाशादिरूप जगत को फिर देखकर उन्हें चित्त में यह पुन: भान हुआ कि मैं प्रल्हाद हूँ || ७ || और उन महाबुद्धिमान ने मन, वाणी और शरीर के संयमपूर्वक धैर्य धारणकर एकाग्र-चित्त से पुन: भगवान अनादि पुरुषोत्तम की स्तुति की || ८ ||

प्रल्हादजी कहने लगे ;– हे परमार्थ ! हे अर्थ (दृश्यरूप ) ! हे स्थूलसूक्ष्म (जाग्रत-स्वप्रदृश्यस्वरूप) ! हे क्षराक्षर (कार्य-कारणरूप ) हे व्यक्ताव्यक्त (दृश्यादृश्यस्वरूप ) ! हे कलातीत ! हे सकलेश्वर ! हे निरंजन देव ! आपको नमस्कार है || ९ || हे गुणों को अनुरंजित करनेवाले ! हे गुणाधार ! हे निर्गुणात्मन ! हे गुणस्थित ! हे मूर्त और अमूर्तरूप महामुर्तिमन ! हे सूक्ष्ममूर्ते ! हे प्रकाशाप्रकाशस्वरुप ! (आपको नमस्कार है ] ||१० || हे विकराल और सुंदररूप ! हे विद्या और अविद्यामय अच्युत ! हे सदसत (कार्यकारण) रूप जगत के उद्भवस्थान और सदसज्जगत के पालक ! ||११ || हे नित्यानित्य (आकाशघटादिरूप ) प्रपंचात्मन ! हे प्रपंच से पृथक रहनेवाले हे ज्ञानियों के आश्रयरूप ! हे एकानेकरूप आदिकारण वासुदेव ! || १२ || जो स्थूल-सूक्ष्मरूप और स्फुट-प्रकाशमय है, जो अधिष्ठानरूप से सर्वभूतस्वरूप तथापि वस्तुत: सम्पूर्ण भूतादि से परे है, विश्व के कारण न होनेपर भी जिनसे यह समस्त विश्व उत्पन्न हुआ है, उन पुरुषोत्तम भगवान को नमस्कार है ||१३ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– उनके इस प्रकार तन्मयतापूर्वक स्तुति करनेपर पीताम्बरधारी देवाधिदेव भगवान हरि प्रकट हुए || १४ || हे द्विज ! उन्हें सहसा प्रकट हुए देख वे खड़े हो गये और गदगद वाणी से ‘विष्णुभगवान् को नमस्कार है ! विष्णुभगवान् को नमस्कार है !’ ऐसा बारंबार कहने लगे || १५ ||

प्रल्हादजी बोले ;– हे शरणागत-दुःखहारी श्रीकेशवदेव ! प्रसन्न होइये हे अच्युत ! अपने पुण्यदर्शनों से मुझे फिर भी पवित्र कीजिये || १६ ||

श्रीभगवान बोले ;– हे प्रल्हाद ! मैं तेरी अनन्यभक्ति से अति प्रसन्न हूँ; तुझे जिस वर की इच्छा हो माँग ले || १७ ||

प्रल्हादजी बोले ;– हे नाथ ! सहस्त्रों योनियों में से मैं जिस-जिसमें भी जाऊँ उसी –उसीमें, हे अच्युत ! आपमें मेरी सर्वदा अक्षुण्ण भक्ति रहे || १८ || अविवेकी पुरुषों की विषयों में जैसी अविचल प्रीति होती है वैसी ही आपको स्मरण करते हुए मेरे ह्रदय से कभी दूर न हो || १९ ||

श्रीभगवान बोले ;– हे प्रल्हाद ! मुझमें तो तेरी भक्ति है ही और आगे भी ऐसी ही रहेगी; किन्तु इसके अतिरिक्त भी तुझे और जिस वर की इच्छा हो मुझसे माँग ले || २० ||

प्रल्हादजी बोले ;– हे देव ! आपकी स्तुति में प्रवृत्त होने से मेरे पिता के चित्त में मेरे प्रति जो द्वेष हुआ है उन्हें उससे जो पाप लगा है वह नष्ट हो जाय || २१ || इसके अतिरिक्त मेरे शरीरपर जो शस्त्राघात किये गये – मुझे अग्निसमूह में डाला गया, सर्पों से कटवाया गया, भोजन में विष दिया गया, बाँधकर समुद्र में डाला गया, शिलाओं से दबाया गया तथा और भी जो-जो दुर्व्यवहार पिताजी ने मेरे साथ किये है, वे सब आपमें भक्ति रखनेवाले पुरुष के प्रति द्वेष होने से, उन्हें उनके कारण जो पाप लगा है, हे प्रभो ! आपकी कृपासे मेरे पिता उससे शीघ्र ही मुक्त हो जाये || २२- २४ ||

श्रीभगवान बोले ;– हे प्रल्हाद ! मेरी कृपासे तुम्हारी ये सब इच्छाएँ पूर्ण होगी | हे असुरकुमार ! मैं तुम को एक वर और भी देता हूँ, तुम्हें जो इच्छा हो माँग लो || २५ ||

प्रल्हादजी बोले ;– हे भगवन ! मैं तो आपके इस वर से ही कृतकृत्य हो गया कि आपकी कृपासे आप में मेरी निरंतर अविचल भक्ति रहेगी || २६ || हे प्रभो ! सम्पूर्ण जगत के कारणरूप आप में जिसकी निश्चल भक्ति है, मुक्ति भी उसकी मुट्ठी में रहती है, फिर धर्म, अर्थ, काम से तो उसे लेना ही क्या है ? || २७ ||

श्रीभगवान बोले ;– हे प्रल्हाद ! मेरी भक्ति से युक्त तेरा चित्त जैसा निश्चल है उसके कारण तू मेरी कृपा से परम निर्वाणपद प्राप्त करेगा || २८ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! ऐसा कह भगवान उनके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये; और उन्होंने भी फिर आकर अपने पिता के चरणों की वन्दना की || २९ || हे द्विज ! तब पिता हिरण्यकशिपुने, जिसे नाना प्रकार से पीड़ित किया था उस पुत्रका सिर सूँघकर, आँखों में आँसू भरकर कहा – ‘बेटा, जीता तो हा !’ || ३० || वह महान असुर अपने कियेपर पछताकर फिर प्रल्हाद्से प्रेम करने लगा और इसीप्रकार धर्मज्ञ प्रल्हादजी भी अपने गुरु और माता-पिता की सेवा-सुश्रुषा करने लगे || ३१ || हे मैत्रेय ! तदनन्तर नृसिंहरूपधारी भगवान विष्णुद्वारा पिता के मारे जानेपर वे दैत्यों के राजा हुए || ३२ || हे द्विज ! फिर प्रारब्धक्षयकारिणी राज्यलक्ष्मी, बहुत से पुत्र पौत्रादि तथा परम ऐश्वर्य पाकर, कर्माधिकार के क्षीण होनेपर पुण्य-पापसे रहित हो भगवान का ध्यान करते हुए उन्होंने परम निर्वाणपद प्राप्त किया || ३३-३४ ||

हे मैत्रेय ! जिनके विषय में तुमने पूछा था वे परम भगवद्भक्त महामति दैत्यप्रवर प्रल्हादजी ऐसे प्रभावशाली हुए || ३५ || उन महात्मा प्रल्हादजी के इस चरित्र को जो पुरुष सुनता है उसके पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते है || ३६ || हे मैत्रेय ! इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य प्रल्हाद-चरित्र के सुनने या पढने से दिन-रात के (निरंतर) किये हुए पापसे अवश्य छुट जाता है || ३७ || हे द्विज ! पूर्णिमा, अमावास्या, अष्टमी अथवा द्वादशी को इसे पढने से मनुष्य को गोदान का फल मिलता है || ३८ || जिसप्रकार भगवान ने प्रल्हादजी की सम्पूर्ण आपत्तियों से रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उसकी भी रक्षा क्र्नते है जो उनका चरित्र सुनता है || ३९ ||

            "इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे विशोऽध्याय"

(नोट :- सभी अंश  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें