सम्पूर्ण विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश) का पहला व दूसरा अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश) का पहला व दूसरा अध्याय}} {First and second chapters of the complete Vishnu Purana (fourth part)}

                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)


                              "पहला अध्याय"


  "वैवस्वतमनु के वंश का विवरण"
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे भगवन ! सत्कर्म ने प्रवृत्त रहनेवाले पुरुषों को जो करने चाहिये उन सम्पूर्ण नित्य-नैमित्तिक कर्मों का आपने वर्णन कर दिया || १ || हे गुरो ! आपने वर्ण-धर्म और आश्रम-धर्मों की व्याख्या भी कर दी | अब मुझे राजवंशों का विवरण सुनने की इच्छा है, अत: उनका वर्णन कीजिये || २ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! अब तुम अनेकों यज्ञकर्ता, शूरवीर और धैर्यशाली भूपालों से सुशोभित इस मनुवंश का वर्णन सुनो जिसके आदिपुरुष श्रीब्रह्माजी है || ३ || हे मैत्रेय ! अपने वंश के सम्पूर्ण पापों को नष्ट करने के लिये इस वंश-परम्परा की कथाका क्रमश: श्रवण करो || ४ ||

उसका विवरण इसप्रकार है – सकल संसार के आदिकारण भगवान विष्णु हैं | वे अनादि तथा ऋक – साम – यजु: स्वरुप हैं | उन ब्रह्मस्वरूप भगवान विष्णु के मूर्त्तरूप ब्रह्माण्डमय हिरण्यगर्भ भगवान ब्रह्माजी सबसे पहले प्रकट हुए || ५ || ब्रह्माजी के दायें अँगूठे से दक्षप्रजापति हुए, दक्ष से अदिति हुई तथा अदिति से विवस्वान और विवस्वान से मनुका जन्म हुआ || ६ || मनु के इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिश्यंत, प्रांशु, नाभाग, दिष्ट, करूप, और पृषध्र दस पुत्र हुए || ७ ||

मनुने पुत्र की इच्छा से मित्रावरुण नामक दो देवताओं के यज्ञ का अनुष्ठान किया || ८ || किन्तु होता हे विपरीत संकल्प यज्ञ में विपर्यय हो जाने से उनके ‘इला’ नामकी कन्या हुई || ९ || हे मैत्रेय ! मित्रावरुण की कृपासे वह इला ही मनुका ‘सुद्युम्र’ नामक पुत्र हुई || १० || फिर महादेवजी के कोप (कोपप्रयुक्त शाप) से वह स्त्री होकर चन्द्रमा के पुत्र बुध के आश्रम के निकट घूमने लगी || ११ ||

बुध ने अनुरक्त होकर उस स्त्री से पुरुरवा नामक पुत्र उत्पन्न किया || १२ || पुरुरवा के जन्म के अनन्तर भी परमर्षिगण ने सुद्युम्र को पुरुषत्वलाभ की आकांक्षासे क्रतुमय ऋग्यजु:सामाथर्वमय, सर्ववेदमय, मनोमय, ज्ञानमय, अन्नमय और परमार्थतः अकिचिन्मय भगवान यज्ञपुरुष यथावत यजन किया | तब उनकी कृपासे इला फिर भी सुद्युम्र हो गयी || १३ || उस (सुद्युम्र) के भी उत्कल, गय और विनत नामक तीन पुत्र हुए || १४ || पहले स्त्री होने के कारण सुद्युम्र को राज्याधिकार प्राप्त नहीं हुआ || १५ || वसिष्ठजी के कहने से उनके पिताने उन्हें प्रतिष्ठान नामक नगर दे दिया था, वही उन्होंने पुरुरवा को दिया || १६ ||

पुरुरवा की सन्तान सम्पूर्ण दिशाओं में फैले हुए क्षत्रियगण हुए | मनुका पृषध्र नामक पुत्र गुरु की गौ का वध करने के कारण शुद्र हो गया || १७ || मनुका पुत्र करुष था | करुष से कारुष नामक महाबली और पराक्रमी क्षत्रियगण उत्पन्न हुए || १८ || दिष्ट का पुत्र नाभाग वैश्य हो गया था, उससे बलन्धन नामका पुत्र हुआ || १९ || बलन्धन से महान कीर्तिमान वत्सप्रीति, वत्सप्रीति से प्रांशु और प्रांशु से प्रजापति नामक इकलौता पुत्र हुआ || २० – २२ || प्रजापति से खनित्र, खनित्र से चाक्षुष तथा चाक्षुष से अति बल-पराक्रम- सम्पन्न विंश हुआ || २३ – २५ || विंश से विविंशक, विविंशक से खनिनेत्र, खनिनेत्र से अतिविभूति और अतिविभूतिसे अति बलवान और शूरवीर करन्धम नामक पुत्र हुआ || २६ – २९ || करन्धम से अविक्षित हुआ और अविक्षितके मरुत्त नामक अति बल-पराक्रमयुक्त पुत्र हुआ, जिसके विषय में आजकल भी ये दो श्लोक गाये जाते हैं || ३० – ३१ ||

‘मरुत्त का जैसा यज्ञ हुआ था वैसा इस पृथ्वीपर और किसका हुआ है, जिसकी सभी याज्ञिक वस्तुएँ सुवर्णमय और अति सुंदर थीं || ३२ || उस यज्ञ में इंद्र सोमरस से और ब्राह्मणगण दक्षिणा से परीतृत्प हो गये थे, तथा उसमें मरुद्रण परोसनेवाले और देवगण सदस्य थे’ || ३३||

उस चक्रवर्ती मरुत्त के नरिश्यंत नामक पुत्र हुआ तथा नरिश्यंत के दम और दम के राजवर्धन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ || ३४ – ३६ || राजवर्धन से सुवृद्धि, सुवृद्धि से केवल और केवल से सुधृति का जन्म हुआ || ३७ – ३९ || सुधृति से नर, नर से चन्द्र और चन्द्र से केवल हुआ || ४० – ४२ || केवल से बन्धुमान, बन्धुमान से वेगवान, वेगवान से बुध, बुध से तृणबिंदु तथा तृणबिंदु से पहले तो इलविला नामकी एक कन्या हुई थी, किन्तु पीछे अलम्बुसा नामकी एक सुन्दरी अप्सरा उसपर अनुरक्त हो गयी | उससे तृणबिंदु के विशाल नामक पुत्र हुआ, जिसने विशाला नामक पूरी बसायी || ४३ – ४९ ||

विशाल का पुत्र हेमचन्द्र हुआ, हेमचन्द्र का चन्द्र, चन्द्रका धूम्राक्षका सृज्जय सहदेव और सहदेव का पुत्र कृशाश्व हुआ || ५० – ५५ || कृशाश्व के सोमदत्त नामक पुत्र हुआ, जिसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे | उससे जनमेजय हुआ उअर जनमेजय से सुमति का जन्म हुआ | ये सब विशालवंशीय राजा हुए | इनके विषय में यह श्लोक प्रसिद्ध है || ५६ – ६० || तृणबिंदु के प्रसाद से विशालवंशीय समस्त राजालोग दीर्घायु, महात्मा, वीर्यवान और अति धर्मपरायण हुए || ६१ ||

मनुपुत्र शर्याति के सुकन्या नामवाली एक कन्या हुई, जिसका विवाह च्यवन ऋषि के साथ हुआ || ६२ || शर्याति के आनर्त्त नामक एक परम धार्मिक पुत्र हुआ | आनर्त्त के रेवत नामका पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामकी पूरी में रहकर आनर्त्तदेश का राज्यभोग किया || ६३- ६४ ||

रेवत का भी रैवत ककुद्यी नामक एक अति धर्मात्मा पुत्र था, जो अपने सौ भाइयों में सबसे बड़ा था || ६५ || उसके रेवती नामकी एक कन्या हुई || ६६ || महाराज रैवत उसे अपने साथ लेकर ब्रह्माजी से यह पूछनेके लिये कि ‘यह कन्या किस वर के योग्य है’ ब्रह्मलोक को गये || ६७ || उस समय ब्रह्माजी के समीप हाहा और हूहू नामक दो गन्धर्व अतितान नामक दिव्य गान गा रहे थे || ६८ || वहाँ गान-सम्बन्धी चित्रा, दक्षिणा और धात्री नामक त्रिमार्ग के परिवर्तन के साथ उनका विलक्षण गान सुनते हुए अनेकों युगों के परिवर्तन-कालतक ठहरनेपर भी रैवतजी को केवल एक मुहूर्त ही बीता-सा मालुम हुआ || ६९ ||

गान समाप्त हो जानेपर रैवत ने भगवान कमलयोनि को प्रणाम कर उनसे अपनी कन्याके योग्य वर पूछा || ७० || भगवान ब्रह्माने कहा – “तुम्हे जो वर अभिमत हों उन्हें बताओं” || ७१ || तब उन्होंने भगवान ब्रह्माजी को पुन: प्रणाम कर अपने समस्त अभिमत वरों का वर्णन किया और पूछा कि ‘इनमें से आपको कौन वर पसन्द है जिसे मैं यह कन्या दूँ ?’ || ७२ ||

इसपर भगवान कमलयोनि कुछ सिर झुकाकर मुसकाते हुए बोले || ७३ || :तुमको जो-जो वर अभिमत हैं उनमें से तो अब पृथ्वीपर किसी के पुत्र-पौत्रादि की सन्तान भी नहीं हैं || ७४ || क्योंकि यहाँ गन्धर्वों का गान सुनते हुए तुम्हे कई चतुर्युग बीत चुके हैं || ७५ || इस समय पृथ्वीतलपर अट्ठाईस वे मनुका चतुर्युग प्राय: समाप्त हो चूका है || ७६ || तथा कलियुग का प्रारम्भ होनेवाला है || ७७ || अब तुम अकेले ही रह गये हो, अत: यह कन्या-रत्न किसी और योग्य वर को दो | इतने समय में तुम्हारे पुत्र, मित्र, कलत्र, मंत्रिवर्ग, भूत्यगण, बन्धुगण, सेना और कोशादिका भी सर्वथा अभाव हो चूका है” || ७८-७९ || तब तो राजा रैवत ने अत्यंत भयभीत हो भगवान ब्रह्माजी को पुन: प्रणाम कर पूछा || ८० || ‘भगवन ! ऐसी बात है, तो अब मैं इसे किसको दूँ ?’ || ८१ || तब सर्वलोकगुरु भगवान कमलयोनि कुछ सिर झुकाए हाथ जोडकर बोले || ८२ ||

श्रीब्रह्माजीने कहा ;– जिस अजन्मा, सर्वमय, विधाता परमेश्वर का आदि, मध्य, अंत, स्वरूप, स्वभाव और सार हम नहीं जान पाते || ८३ || कलामुहुर्त्तादिमय काल भी जिसकी विभूति के परिणाम का कारण नहीं हो सकता, जिसका जन्म और मरण नहीं होता, जो सनातन और सर्वदा एकरूप हैं तथा नाम और रूपसे रहित है || ८४ || जिस अच्युत की कृपासे मैं प्रजाका उत्पत्तिकर्ता हूँ, जिसके क्रोध से उत्पन्न हुआ रूद्र सृष्टि का अंतकर्त्ता है तथा जिस परमात्मासे मध्य में जगत्स्थितिकारी विष्णुरूप पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ है || ८५ || जो अजन्मा मेरा रूप धारणकर संसार की रचना करता हैं, स्थिति के समय जो पुरुषरूप हैं तथा जो रुद्ररूप से सम्पूर्ण विश्व का ग्रास कर जाता हैं एवं अनंतरूप से सम्पूर्ण जगत को धारण करता हैं || ८६ || जो अव्ययात्मा पाक के लिये अग्निरूप हो जाता हैं, पृथ्वीरूप से सम्पूर्ण लोकों को धारण करता हैं, इन्द्रादिरूप से विश्वका पालन करता हैं और सूर्य तथा चन्द्ररूप होकर सम्पूर्ण अन्धकार का नाश करता हैं || ८७ || जो श्वास-प्रश्वासरूप से जीवों में चेष्टा करता हैं, जल और अन्नरूप से लोक की तृप्ति करता है, तथा विश्वकी स्थिति में संलग्न रहकर जो आकाशरूप से सबको अवकाश देता है || ८८ || जो सृष्टिकर्ता होकर भी विश्वरूप से आप ही अपनी रचना करता है, जगत का पालन करनेवाला होकर भी आप ही पालित होता है तथा संहारकारी होकर भी स्वयं ही संहृत होता है और जो इन तीनों से पृथक इनका अविनाशी आत्मा है || ८९ || जिसमें यह जगत स्थित है, जो आदिपुरुष जगत-स्वरूप है और इस जगत के ही आश्रित तथा स्वयम्भू हैं, हे नृपते ! सम्पूर्ण भूतों का उद्भवस्थान वह विष्णु धरातल में अपने अंश से अवतीर्ण हुआ है || ९० ||

हे राजन ! पूर्वकाल में तुम्हारी जो अमरावती के समान कुशस्थली नामकी पुरी थी वह अब द्वारकापुरी हो गयी है | वहीँ वे बलदेव नामक भगवान विष्णु के अंश विराजमान हैं || ९१ || हे नरेन्द्र ! तुम यह कन्या उन मायामानव श्रीबलदेवजी को पत्नीरूप से दो | ये बलदेवजी संसार में अति प्रशंसनीय है और तुम्हारी कन्या भी स्त्रियों में रत्नस्वरूपा है, अत: इनका योग सर्वथा उपयुक्त है || ९२ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– भगवान ब्रह्माजी के ऐसा कहनेपर प्रजापति रैवत पृथ्वीतलपर आये तो देखा कि सभी मनुष्य छोटे – छोटे, कुरूप, अल्प-तेजोमय, अल्पवीर्य तथा विवेकहीन हो गये हैं || ९३ || अतुलबुद्धि महाराज रैवत ने अपनी कुशस्थली नामकी पुरी और ही प्रकार की देखी तथा स्फटिक पर्वत के समान जिनका वक्ष:स्थल है उन भगवान् हलायुधको अपनी कन्या दे दी || ९४ || भगवान बलदेवजी ने उसे बहुत ऊँची देखकर अपने हलके अग्रभाग से दबाकर नीची कर ली | तब रेवती भी तत्कालीन अन्य स्त्रियों के समान हो गयी || ९५ || तदनन्तर बलरामजी ने महाराज रैवत की कन्या रेवती से विधिपूर्वक विवाह किया तथा राजा भी कन्यादान करने के अनन्तर एकाग्रचित्त से तपस्या करने एक लिये हिमालयपर चले गये || ९६ ||

           "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे प्रथमोऽध्यायः"

                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)


                              "दूसरा अध्याय"

"इक्ष्वाकु के वंशज का वर्णन तथा सौभरिचरित्र"

श्री पराशर जी बोले ;- जिस समय रैवत ककुद्मी ब्रह्मा केसे लौटकर नहीं आये थे उसी समय पुण्यजन नामक राक्षस ने उनकी पुरी कुशस्थलीका ध्वंस कर दिया ॥१॥

उनके सौ भाई पुण्यजन राक्षस के भय से दसों दिशाओंमें भाग गये ॥२॥
उन्हींके वंशमें उप्तन्न हुए क्षत्रियों समस्त दिशाओंमें फैले ॥३॥

धृष्टके वंशमें धाष्ट्टक नामक क्षत्रिय हुए ॥४॥

नाभागके नाभाग नामक पुत्र हुआ, नाभगका अम्बरीष और अम्बरीषका पुत्र विरुप हुआ, विरुपसे पृषदश्वका जन्म हुआ तथा उससे रथीतर हुआ ॥५-९॥ रथीतरके सम्बन्धमें यह श्लोक प्रसिद्ध है- 'रथीतर के वंशज क्षत्रिय सन्तान होते

हुए भी आंगिरस कहलाये; अतह वे क्षत्रोपेत ब्राह्मण हुए ॥१०॥

छिंकनेके समय मनु की घ्राणेन्द्रिय से इक्ष्वाकु नामक पुत्रका जन्म हुआ ॥११॥

उनके सौ पुत्रोंमेंसे विकुक्षि, निमि और दण्ड नामक तीन पुत्र प्रधान हुए तथा उनके शकुनि आदि पचास पुत्र उत्तरापथ और शेष अड़तालीस दक्षिणापथके शासक हुए ॥१२-१४॥

इक्ष्वाकु अष्टका श्राद्ध का आरम्भ कर अपने पुत्र विकुक्षिको आज्ञा दी कि

श्राद्धके योग्य मांस लाओ ॥१५॥  उसने 'बहुत अच्छा' कह उनकी आज्ञाको शिरोधार्य किया और धनुष्य-बाण लेकर वनमें आ अनेकों मृगोंका वध किया, किंतु अति थका- मौदा और अत्यन्त भूखा होनेके कारण विकुक्षिने उनमेंसे एक शशक (खरगोश) खा लिया और बचा हुआ मांस लाकर अपने पिताको निवेदन किया ॥१६॥

उस मांसाका प्रोक्षण करनेके लिये प्रार्थना किये जाने पर इक्ष्वाकु के कुल - पुरोहित वशिष्ठ ने कहा 'इस अपवित्र मांसकी क्या आवश्यकता है? तुम्हारे दुरात्मा पुत्रने से भ्रष्ट कर दिया है, क्योंकि उसने इसमेंसे एक शशक खा लिया है" ॥१७॥

गुरुके ऐसा कहनेपर, तभीसे विकुक्षिका नाम शशाद पड़ा और पिताने उसको त्याग दिया ॥१८॥

पिताके मरनेके अनन्तर उसने इस पृथ्वी धर्म धर्मानुसार शासन किया ॥१९॥

उस शशादके पुरज्जय नामक पुत्र हुआ ॥२०॥

पुत्रजया भी यह एक दूसरा नाम पड़ा - ॥२१॥

पूर्वकाल में त्रेता युग में एक बार अति भीषण देवासुर संग्राम हुआ ॥२२॥

उसमें महाबलवान् दैत्यगणसे पराजित हुए देवताओं ने भगवान विष्णु की आराधना की ॥२३॥

तब आदि-अन्त-शून्य, अशेष जगत प्रतिपालक, श्री नारायण देवताओं से प्रसन्न होकर कहा- ॥२४॥
"आप-लोगोंका जो कुछ अभीष्ट है वह मैंने जान लिया है । उसके विषयमें यह

बात सुनिये - ॥२५॥ राजर्षि शशादका जो पुत्रजय नामक पुत्र है उस क्षत्रिय श्रेष्ठ के शरीरमें मैं अंशमात्रसे स्वयं अवतीर्ण होकर उन सम्पूर्ण दैत्यों का नाश करूँगा अतः

तुम लोग परिजन दैत्यों का वध के लिये तैयार करो" ॥२६॥

यह सुनकर देवताओं ने विष्णु भगवान को प्रणाम किया और पुरत्रज के पास होकर उससे कहा - ॥२७॥
" हे क्षत्रिय श्रेष्ठ ! हमलोग चाहते हैं कि अपने शत्रुओंके वधमें प्रवृत्त हमलोगोंकी आप सहायता करें । हम अभ्यागत जनोंका आप मानभंग न करें ।" यह सुनकर पुरञ्जन ने कहा - ॥२८॥

" ये जो त्रैलोक्यनाथ शतक्रतु आप लोंगों के इन्द्र हैं यदि मैं इनके कन्धेपर चढ़कर आपके शत्रुओंसे युद्ध कर सकूँ तो आप लोगों का सहायक हो सकता हूँ ॥२९॥

यह सुनकर समस्त देवगण और इन्द्रने 'बहुत अच्छा' - ऐसा कहकर उनका कथन स्वीकार कर लिया ॥३०॥

फिर वृषभ - रूपधारी इन्द्र की पीठ पर चढ़कर चराचरगुरु भगवान् अच्युतके तेजसे परिपूर्ण होकर राजा पुरजे रोषपूर्वक सभी दैत्यों को मार डाला ॥३१॥

उस राजा ने बैलके ककुद ( कंधे) पर बैठकर दैत्य सेना का वध किया था, अतः उसका नाम ककुत्स्थ पड़ा ॥३२॥

ककुत्स्थ के अन्ना नामक पुत्र हुआ ॥३३॥
अनेनाके पृथु, पृथुके विष्टराश्व, उनके चान्द्र युवनाश्व तथा उस चान्द्र युवनाश्वके शावस्त नामक पुत्र शावस्तके बृहदश्व तथा बृहदश्वके शावस्त नामक पुत्र हुआ जिसने श्रावस्ती पुरी बसायी थी ॥३४-३७॥

शावस्तके बृहदश्व तथा बृहदश्व के कुवलाश्व का जन्म हुआ, जिसने वैष्णव तेजसे पूर्णता लाभ कर अपने इक्कीस सहस्त्र पुत्रोंके साथ मिलकर महर्षि उदक ने अपकारी धुन्धु नामक दैत्य को मारा था; अतः उनका नाम धुन्धुमार हुआ ॥ ३८-४०॥

उनके सभी पुत्र धुन्धुके मुखसे निकले हुए निःश्वासाग्नि से जलकर मर गये ॥ ४१॥

उनमेंसे केवल दृढ़ाश्व, चन्द्रश्व और कपिलाश्व - ये तीन ही बचे थे ॥४२॥

दृढाश्वसे हर्यश्व, हर्यश्वसे निकुम्भ, निकुम्भसे अमिताश्व, अमिताश्वसे कृशाश्व, कृशाश्वसे प्रसेनजित् और प्रसेनजितसे युवनाश्वका जन्म हुआ ॥४३-४८॥ युवनाश्व निःसन्तान होनेके कारण खिन्न चित्तसे मनुईश्वरोंके आश्रमोंमे रहा करता

था; उसके दुःखसे द्रवीभूत होकर दयालु मुनिजनों ने उसके पुत्र उप्तन्न होने के लिये यज्ञ अनुष्ठान किया ॥४९॥

आधी रातके समय उस यज्ञ में समाप्त होनेपर मुनिजन मन्त्रपूत जलका कलश वेद में रखकर सो गये ॥५०॥ उनके सो जानेपर अत्यन्त पिपासाकुल होकर राजाने उस स्थानमें प्रवेश किया।
और सोये होनेके कारण उन ऋषियों को उन्होंने नहीं जगाया ॥५१-५२॥

तथा उस अपरिमित माहात्म्यशाली कलशके मन्त्नपूत जलको पी लिया ॥५३॥
जागनेपर ऋषियोंने पूछा, इस मन्त्नपुत जलको किसने पिया है? ॥५४॥ इसका पान करनेपर ही युवनाश्वकी पत्नी महाबलविक्रमशील पुत्र उप्तन्न करेगी 11 I" यह सुनकर राजा ने कहा- " मैंने ही बिना जाने यह जल पी लिया है" ॥५५॥ अतः युवनाश्व के उदर में गर्भ स्थापित हो गया और क्रमशः बढ़ने लगा ॥५६॥ यथासमय बालक राजाकी दायीं कोख फाड़कर निकल आया ॥५७॥ किंतु इससे राजाकी मृत्यु नहीं हुई ॥५८॥ उसके जन्म लेनेपर मुनियोंने कहा - " यह बालक क्या पान करके जीवित रहेगा ? " ॥५९॥ उसी समय देवराज इन्द्रने आकर कहा - ' यह मेरे आश्रय - जीवित रहेगा' ॥६०॥ अतः उसका नाम मान्धता हुआ । देवेन्द्रने उसके मुखमें अपनी तर्जनी ( अंगूठेके पासकी) अँगुली दे दी और वह उसे पीने लगा । उस अमृतमयी अँगुलीका आस्वादन करनेसे वह एक ही दिनमें बढ़ गया ॥६१-६२॥ तबीसे चक्रवर्ती मान्धाता सप्तद्वीपा पृथ्वी का राज्य भोगने लगा ॥६३॥ इसके विषयमें यह श्लोक कहा जाता है ॥६४॥ 'जहां से सूर्योदय होता है और जहाँ अस्त होत है वह सभी क्षेत्र युवनाश्वके पुत्र मान्धाता का है' ॥६५॥ मान्धाता ने शरत बिन्दु की पुत्री बिन्दुमतीसे विवाह किया और उससे पुरुकुत्स, अम्बरीष और मुचुकुन्द नामक तीन पुत्र उप्तन्न किये तथा उसी ( बिन्दुमती) उनके पचास कन्याएँ हुई ॥६६-६८॥
उसी समय बहुवचन सौभरि नामक महर्षिने बारह वर्ष तक जल में निवास किया ॥६९॥

उस जलमें सम्मद् नामक एक बहुत - सी सन्तानों वाला और अति दीर्घकाय मत्स्यराज था ॥७०॥

उसके पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदि उसके आगे-पीछे तथा इधर- उधर पक्ष, पुच्छ और शिरके ऊपर घूमते हुए अति अनन्दित होकर रात-दिन उसीके साथ क्रिडा करते रहते थे ॥७१॥

तथा वह भी अपनी सन्तानके सुकमा स्पर्शसे अत्यन्त हर्षयुक्त होकर उन मुनिश्वर के देखते देखते अपने पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके साथ अहर्निश क्रीडा करता रहाता था ॥७२॥

इस प्रकार जलमें स्थित सौभरि ऋषिने एकाग्रतारूप समाधिको छोड़कर रात दिन उस मत्स्यराजकी अपने पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके साथ अति रमणीय क्रीडाओंको देखकर विचार किया ॥७३॥

'अहो ! यह धन्य है, जो ऐसी अनिष्ट योनिमें उप्तन्न होकर भी अपने इन पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके साथ निरन्तर रमण करता हुआ हमारे हृदयमें डाह उप्तन्न करता है ॥७४॥ हम भी इस प्रकार अपने पुत्र के साथ अति ललित क्रीडाएँ करेंगे । ऐसी अभिलाषा करते हुए वे उस जलके भीतरसे निकल आये और सन्तानार्थ गृहस्थाश्रममें प्रवेश करनेकी कामनासे कन्या ग्रहण करने के लिये राजा मांधाता के पास आये ॥७५॥
मुनिवरका आगमन सुन राजाने उठकर अर्ध्यदान दिसे उनका भली प्रकार पूजन किया । तदनन्तर सौभारि मुनिने आसन ग्रहण करके राज्यासे कहा- ॥७६॥

सौभरिजी बोले ;- हे राजन् ! मैं कन्या- परिग्रहका अभिलाषी हूँ, अतः तुम मुझे एक कन्या दो; मेरा प्रणय भंग मत करो । ककुत्स्थवंशमें कार्यवश आया हुआ कोई भी प्रार्थी पुरुश कभी खाली हाथ नहें लौटता ॥७७॥

हे मान्धाता ! पृथिवीतलमें और भी अनेक राजा लोग हैं और उनके भी कन्याएँ उप्तन्न हूई हैं ; कितु याचकोंको माँगी हुई वस्तु दान देनेके नियममें दृढप्रतिज्ञ तो यह तुम्हारा प्रशंसनीय कुल ही है ॥७८॥

हे राजन् ! तुम्हारे पचारा कन्याएँ हैं, उनमें से तुम मुझे केवल एक ही दे दो । नृपश्रेष्ठ ! मैं इस समय प्रार्थना भंग की आशंका से उप्तन्न अतिशय दुःख भयभीत हो रहा हूँ ॥७९॥

श्री पराशर जी बोले ;- ऋषिके ऐसे वचन सुनकर राजा उनके जराजीर्ण देहको देखकर शापके भयसे अस्वीकर करनेमें कातर हो उनसे डरते हुए कुछ नीचेको मुख करके मन - ही मन चिन्ता करते लगे ॥८०॥

सौभरिजी बोले ;- हे नरेन्द्र ! तुम चिन्तित क्यों होते हो ? मैंने इसमें कोई असह्य बात तो कही नहीं

है, जो कन्या एक दिन तुम्हें अवश्य देनी ही है उससे ही यदि हम कृतार्थ हो सकें

तो तुम क्या नहीं प्राप्त कर सकते हो ? ॥८१॥
श्री पराशर जी बोले ;- तब भगवान सौभरि के शाप से भयभीत हो राजा मान्धाता नम्रतापूर्वक उनसे कहा ॥८२॥

राजा बोले ;- भगवन् ! हमारे कुलकी यह रीति है कि जिस सत्कुलोप्तन्न वरको कन्या पसन्द करती है वह उसीको दी जाती है । आपकी प्रार्थना तो हमारे मनोरथोंसे भी परे है । न जाने, किस प्रकार यह उप्तन्न हुई है ? ऐसी अवस्थामें मैं नहीं जानता कि क्या करूँ ? बस, मुझे यही चिन्ता है । महाराज मान्धाता का ऐसा कहनेपर मुनिवर सौभारिने विचार किया- ॥८३॥

'मुझको टाल देनेका यह एक और ही उपाय है । ' यह बूढा है, प्रौढ़ा स्त्रियाँ भी इस पसन्द नहीं कर सकतीं , फिर कन्याओंकी तो बात ही क्या है ? ' ऐसा सोचकर ही राजाने यह बात कही है। अच्छा, ऐसा ही सहीं , मैं भी ऐसा ही उपाय करेंगे।' यह सब सोचकर उन्होंने मान्धाता से कहा - ॥८४॥

'यदि ऐसी बात है तो कन्याओंके अन्तःपुर - रक्षक नपुंसकको वहाँ मेरा प्रवेश करानेके लिये आज्ञा दो । यदि कोई कन्या ही मेरी इच्छा करेगी तो ही मैं स्त्री ग्रहण करूँगा नहीं तो इस ढलती अवस्थामें मुझे इस व्यर्थ उद्योगका कोई प्रयोजन नहीं है । " ऐसा कहकर वे मौन हो गये ॥८५॥

तब मुनिके शापकी आशंकासे मान्धाताने कन्याओंके अन्तःपुर-रक्षकको आज्ञा दे दी ॥८६॥
उसके साथ अन्तःपुरमें प्रवेश करते हुए भगवान सौभरि ने अपना रूप सकल सिद्ध और गंधर्व से भी अतिशय मनोहर बना लिया ॥८७॥ उन ऋषिवरको अन्तःपुरमें ले जाकर अन्तःपुर - रक्षकने उन कन्याओं से कहा - ॥८८॥

" तुम्हारे पिता महाराज मान्धाता की आज्ञा है कि ये ब्रह्मास्मि हमारे पास एक कन्या के लिये पधारे हैं और मैंने इनसे प्रतिज्ञा की है कि मेरी जो कोई कन्या श्रीमान्को वरण करेगी उसकी स्वच्छन्मतामें मैं किसी प्रकारकी बाधा नहीं डालूँगा। " यह सुनकर उन सभी कन्याओंने युथपति गजराजका वर्ण करनेवाली हाथिनियोंके समान अनुराग और आनन्दपूर्वक ' अकेली मैं ही - अकेली मैं ही वरण करती हूँ' ऐसी कहते हुए उन्हें वरण कर लिया । वे परस्पर कहने लगीं ॥ ८९-९१॥

अरी बहिनो ! व्यर्थं चेष्टा क्यों करती हो ? मै इनका वरण करती हूँ, ये तुम्हारे अनुरूप हैं भी नहीं। विधाताने ही इन्हें मेरा भर्त्ता और मुझे इनकी भार्या बनाया है । अतः तुम शान्त हो जाओ ॥९२॥

अन्तःपुरमें आते ही सबसे पहले मैंने ही इन्हें वरण किया था, तुम क्यों मरी जाती हो ? इस प्रकार ' मैंने वरण किया है - पहले मैंने वरण किया है ऐसा कह कहकर उन राजकन्याओंमें उनके लिये बड़ा कलह मच गया ॥९३॥

जब उन समस्त कन्याओंने अतिशय अनुरागवश उन अनिन्द्यकीर्ति मुनिवरको वरण कर लिया तो कन्या रक्षकाने नम्रतापूर्वक राजा सम्पूर्ण वृतान्त ज्यों का - क्यों कह सुनया ॥९४॥

श्री पराशर जी बोले ;- यह जानकर राजा ने ' यह क्या कहता है ?' यह कैसे हुआ ? ' ' मैं क्या करूँ ?' 'मैंने क्यों उन्हें ( अन्दर जानेकेज लिए) कहा था ? इस प्रकार सोचते हुए अत्यन्त व्याकुल मंत्र से इच्छा न होते हुए भी जैसे - तैसे अपने वचनाका पालन किया और अपने अनुरूप विवाह संस्कार के समाप्त होनेपर महर्षि सौभरि उन समस्त कन्याओंको अपने आश्रमपर ले गये ॥९५-९६॥

वहाँ आकार उन्होंने दुसरे विधाताके समान अशेषशिल्प कल्प प्रणेता विश्वकर्मा को बुलाकर कहा कि इन समस्त कन्याओंमेंसे प्रत्येकके लिये पृथक पृथक महल बनाओ, जिनमें खिले हुए कमल और कुत्ते हुए सुन्दर हंस तथा कारण्दव आदि जल पक्षियों सुशोभित जलाशय हों सुन्दर उपधान ( मसनद), शय्या और परिच्छद ( ओंढ़नेके वस्त्र ) हों तथा पर्याप्त खुला हुआ स्थान हो ॥ ९७॥

तब सम्पूर्ण शिल्प - विद्याके विशेष आचार्य विश्वकर्मा ने भी उनकी आज्ञानुसार सब कुछ तैयार करके उन्हें दिखलाया ॥९८॥

तदनन्तर महर्षि सौभारिकी आज्ञासे उन महलोंमें अनिवार्यानन्द नामकी महानदी निवास करने लगी ॥९९॥

तब तो उन सम्पूर्ण महलोंमें नाना प्रकारके भक्ष्य, भोज्य और लेह्य आदि सामग्रियोंसे वे राजकन्याएँ आये हुए अतिथियों और अपने अनुगत भृत्यवरग को तृप्त करने लगीं ॥१००॥ एक दिन पुत्रियोंके स्त्रेहसे आकर्षित होकर राजा मान्धता यह देखनेके लिये कि

वे अत्यन्त दुःखी हैं या सुखी ? महर्षि सौभरि के आश्रम के निकट आये, तो उन्होंने

वहाँ अति रमणीय उपवन और जलाशयोंसे युक्त स्फटिकशिलाके महलोंकी

पंक्ति देखी जो फैलती हुई मयूखमालाओंसे अत्यन्त मनोहर मालूम पड़ती थी ॥101।।
तदनन्तर वे एक महलमें जाकर अपनी कन्याका स्नेहपूर्वक आलिंगन कर आसनपर बैठे और फिर बढ़ते हुए प्रेमके कारण नयनोंमें जल भरकर बोले - ॥ १०२॥

'बेटी ! तुमलोग यहाँ सुखपूर्वक हो न ? तुम्हें किसी प्रकारका कष्ट तो नहीं है ? महर्षि सौभरि तुमसे स्नेह करते है या नहीं ? क्यां तुम्हें हमारे घरकी भी याद आती है ? " पिता के ऐसा कहनेपर उस राजपुत्रीने कहा - ॥१०३॥

'पिताजी ! यह महल अति रमणीय है, ये उपवनादि भी अतिशय मनोहर है,

खिले हुए कमलोंसे युक्त इन जलाशयोंमें जलपक्षिगण सुन्दर बोली बोलते रहते हैं, भक्ष्य, भोज्य आदि खाद्य पदार्थ, उबटन और वस्त्राभूषण आदि भोग तथा सुकमा शय्यासनादि सभी मनके अनुकूल है; इस प्रकार हमारा गार्हस्थ यद्यापि सर्वसम्पत्तिसम्पन्न है ॥१०४॥

तथापि अपनी जन्मभूमिकी याद भला किसको नहीं आती ? ॥१०५ ॥

आपकी कृपा से यद्यपि सब कुछ मंगलमय है ॥१०६॥

तथापि मुझे एक बड़ा दुख है कि हमारे पति ये महर्षि मेरे घरसे बाहर कभी नहीं जाते । अत्यन्त प्रीतिके कारण ये केवल मेरे ही पास रहते है, मेरी अन्य बहिनोंके पास ये जाते ही नहीं है ॥१०७॥

इस कारणसे मेरी बहिनें अति दूःखी होंगी । यहीं मेरे अति दूःखका कारण है।

उसके ऐसा कहनेपर राजाने दुसरे महल में आकर अपनी कन्याका आलिंगन

किया और आसनपर बैठनेके अनन्तर उससे भी इसी प्रकार पूछा ॥१०८॥
उसने भी उसी प्रकार महल आदि सम्पूर्ण उपभोग के सुख का वर्णन किया और कहा कि अतिशय प्रीतिके कारण महर्षि केवल मेरे ही पास रहते हैं और किसी बहन के पास नहीं जाते । इस प्रकार पूर्ववत सुनकर राजा एक एक करके प्रत्येक महलमें गये और प्रत्येक कन्यासे इसी प्रकार पूछा ॥१०९॥

और उन सबने भी वैसा ही उत्तर दिया । अन्तमें आनन्द और विस्मयके भारसे विवशचित्त होकर उन्होंने एकान्तमें स्थित भगवान् सौभरिकी पूजा करनेके अनन्तर उनसे कहा ॥११०॥ भगवान ! आपकी ही योगसिद्धिका यह महान् प्रभाव देखा है । इस प्रकारके

महान् वैभवके साथ और किसीको भी विलास करते हुए हमने नहीं देखा; सो

यह सब आपकी तपस्याका ही फल है ।' इस प्रकार उनका अभिवादन कर वे

कुछ कालतक उन मुनिवरके साथ ही अभिमत भोग भोगते रहे और अन्त में अपने नगर को चले आये ॥१११॥

कालक्रम से उन राजकन्याओंसे सौभरि मुनिके डेढ़ सौ पुत्र हुए ॥११२॥ इस प्रकार दिन - दिन स्नेहक प्रसाद होनेसे उनका हृदय अतिशय ममतामय हो गया ॥११३॥

वे सोचने लगे - ' क्या मेरे ये पुत्र मधुर बोलीसे बोलेंगे ? अपने पाँवों से चलेंगे ? क्या ये युवावस्था को प्राप्त होंगे ? उस समय क्या मैं इन्हें सपत्नीक देख सकूँगा? फिर क्य इनके पुर होगें और मैं इन्हें अपने पुत्र-पौत्रोंसे युक्त देखुँगा ? ' इस प्रकार कालक्रम से दिनानुदिन बढ़ते हुए इन मनोरथोंकी उपेक्षा कर वे सोचने लगे - ॥ ११४॥

अहो ! मेरे मोहका कैसा विस्तार है ? ॥११५॥
 इन मनोरथोंकी तो हजारों - लाखों वर्षों में भी समाप्ति नहीं हो सकती। उनमेंसे यदि कुछ पूर्ण भी हो जाते हैं तो उनके स्थानपर अन्य नये मनोरथोंकी उप्तत्ति हो जाती है ॥११६॥

मेरे पुत्र पैरोंसे चलने लगे, फिर से युवा हुए, उनका विवाह हुआ तथा उनके सन्ताने हुई - यह सब तो मैं देख चुका; किन्तु अब है ! ॥११७॥

यदि उनका जन्म भी मैंने देख लिया तो फिर मेरे चित्तमें दुसरा मनोरथ उठेगा और यदि वह भी पुरा हो गया तो अन्य मनोरथकी उप्तत्तिको ही कौन रोक सकता है ? ॥११८॥

मैंने अब भली प्रकार समझ लिया है कि मृत्युपर्यंन्त मनोरथोंका अन्त तो होना नहीं है और जिस चित्तमें मनोरथोकी आसक्ति होती है और जिस चित्तमें मनोरथोंकी आसक्ति होती है वह कभी परमार्थमें लग नहीं सकता ॥११९॥

अहो ! मेरी वह समाधि जलवासके साथी मत्स्यके संगसे अकस्मात नष्ट हो गयी और उस संगके कारण ही मैंने स्त्री और धन आदिका परिग्रह किया तथा परिग्रहके कारण ही अब मेरी तृष्णा बढ़ गयी है ॥१२०॥

एक शरीरका ग्रहण करना ही महान दुःख है और मैंने तो इन राजकन्याओंका परिग्रह करके उसे पचास गुना कर दिया है । तथा अनेक पुत्रोंके कारण अब वह बहुत ही बढ़ गया है ॥१२१॥

अब आगे भी पुत्रोंके पुत्र तथा उनके पुत्रोंसे और उनका पुनः - पुनः विवाह सम्बन्ध करनेसे वह और भी बढ़ेगा । यह ममतारूप विवाहसम्बन्ध अवश्य बड़े ही दुःखका कारण है ॥१२२॥
जलाशयमें रहकर मैंने जो तपस्या की थी उसकी फलस्वरूपा यह सम्पत्ति तपस्याकी बाधक है । मत्स्यके संगसे मेरे चित्तमें जो पुत्र आदिका राग उप्तन्न हुआ था उसीने मुझे ठग लिया ॥१२३॥

निस्संगता ही यतियोंको मुक्ति देनेवाली है, सम्पूर्ण दोष संगसे ही उप्तन्न होते है। संगके कारण तो योगारुढ यति भी पतित हो जाते हैं, फिर मन्दगति मनुष्योंके तो बात ही क्या है ? ॥१२४॥

परिग्रहरूपी ग्राहने मेरी बुद्धि को पकड़ा हुआ है । इस समय मैं ऐसा उपाय करूँगा जिससे दोषोंसे मुक्त होकर फिर अपने कुटुम्बियोंके दुःखसे दुःखी न होऊँ ॥१२५॥

अब मैं सबके विधाता, अचिन्त्यरूप, अणुसे भी अणु और सबसे महान् सत्त्व एवं तमः स्वरूप तथा ईश्वरोंके भी ईश्वर भगवान विष्णु की तपस्या करके आराधना करूँगा ॥१२६॥

उन सम्पूर्ण तेजोमय, सर्वस्वरूप, अव्यक्त, विस्पष्टशरीर, अनन्त श्री विष्णु भगवान में मेरा दोषरहित चित्त सदा निश्वल रहे जिससे मुझे फिर जन्म न लेना पड़े ॥१२७॥

जिस सर्वरूप, अमल, अनन्त, सर्वश्वर और आदि - मध्य-शून्य से पृथक और कुछ भी नहीं है उस गुरुजनोंके भी परम गुरु भगवान विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ' ॥१२८॥

श्री पराशर जी बोले ;- इस प्रकार मन - ही - मन सोचकर सौभरि मुनि पुत्र, गृह, आसन, परिच्छद आदि सम्पूर्ण पदार्थोको छोड़कर अपनी समस्त स्त्रियोंके सहित वनमें चले गये १२९॥

वहाँ, वानप्रस्थोंके योग्य समस्त क्रियाकलापका अनुष्ठान करते हुए सम्पूर्ण पापोंका क्षय हो जानेपर तथा मनोवृत्तिके राग - द्वेषहीन हो जानेपर, आहवनीयादि अग्नियोंको अपने में स्थापित कर संन्यासी हो गये ॥१३० ॥

फिर भगवान्में आसक्त हो सम्पूर्ण कर्मकलापका त्याग कर परमात्मा परायण पुरुषोंके अच्युतपद (मोक्ष) को प्राप्त किया, जो अजन्मा, अनादि, अविनाशी, विकार और मरणादि धर्म से रहित, इन्द्रियांदिसे अतीत तथा अनन्त है ॥१३१॥

इस प्रकार मान्धाताकी कन्याओंके सम्बन्धमें मैंने इस चरित्रका वर्णन किया है। जो कोई इस सौभरि चरित्रका स्मरण करता है, अथवा पढ़ता-पढ़ता, सुनता सुनता, धारण करता - करता, लिखता-लिखवाता तथा सीखता-सिखाता अथवा उपदेश करता है उसके छः जन्मोंतक दुःसन्तति, असद्धर्म और वाणी अथवा मनकी कुमार्गमें प्रवृति तथा किसी भी पदार्थमें ममता नहीं होती ॥१३२-१३३॥

      इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥

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