सम्पूर्ण विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश) का तीसरा व चौथा अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश) का तीसरा व चौथा अध्याय}} {The third and fourth chapters of the entire Vishnu Purana (fourth part)}

                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)


                              "तीसरा अध्याय"


"मान्धाताकी सन्तति, त्रिशुंकका स्वर्गारोहण तथा सगरकी उप्तत्ति और विजय"

श्रीपराशरजी बोले ;- अब हम मान्धाताके पुत्रोंकी सन्तानका वर्णन करते हैं ॥१॥

मान्धाताके पुत्र अम्बरीषके युवनाश्च नामक पुत्र हुआ ॥२॥

उससे हारीत हुआ जिससे अंगिरा- गोत्रीय हरीतगण हुए ॥३॥

पूर्वकालमें रसातलमें मौनेय नामक छः करोड़ गन्धर्व रहते थे । उन्होंने समस्त नागकुलोंके प्रधान - प्रधान रत्न और अधिकार छीन लिये थे ॥४॥

गन्धर्वोके पराक्रमसे अपमानित उस नागेश्वरोंद्वारा स्तुति किये जानेपर उसके श्रवण करनेसे जिनकी विकसित कमलसदृश आँखे खुल गयीं है निद्राके अन्तमें जगे हुए उन जलशायी भगवान् सर्वदेवेश्वरको प्रणाम कर उनसे नागगणने कहा, भगवान ! इन गन्धर्वोंसे उप्तन्न हुआ हमारा भय किस प्रकार शान्त होगा ? " ॥५॥

तब आदि अन्तरहित भगवान् पुरुषोत्तमने कहा - ' युवनाश्वके पुत्र मान्धाताका जो यह पुरुकुत्स नामक पुत्र है उसमें प्रविष्ट होकर मैम उन सम्पूर्णं दुष्ट गन्धर्वोंका नाश कर दूँगा ॥६॥

यह सुनकर भगवान् जलशायीको प्रणाम कर समस्त नागाधिपतिगण नागलोकमें लौट आये और पुरुकुत्सको लानेके लिये ( अपने बहिन एवम् पुरुकुत्सकी भार्या ) नर्मदाको प्रेरित किया ॥७॥

तदनन्तर नर्मदा पुरुकुत्सको रसातलमें ले आयी ॥८॥

रसातलमें पहूँचनेपर पुरुकुत्सने भगवान्‌के तेजसे अपने शरीरका बल जानेसे सम्पूर्ण गन्धवोंको मार डाला और फिर अपने नगरमें लौट आया ॥९-१०॥

उस समय समस्त नागराजोंने नर्मदाको यह वर दिया कि जो कोई तेरा स्मरण करते हुए तेरा नाम लेगा उसको सर्प - विषसे कोई भय न होगा ॥११॥

इस विषयमें यह श्लोक भी है ॥१२॥

' नर्मदाको प्राप्तह काल नमस्कार है और रात्रिकालमें भी नर्मदाको नमस्कार है । हे नर्मदे ! तुमको बारम्बार नमस्कार है, तुम मेरी विष और सर्पसे रक्षा करो' ॥१३॥

इसका उच्चरण करते हुए दिन अथवा रात्रिमें किसी समय भी अन्धकारमें जानेसे सर्प नहीं काटता तथा इसका स्मरण करके भोजन करनेवालेका खाया हुआ विष भी घातक नहीं होता ॥१४॥



पुरुकुत्सको नागपतियोंने यह वर दिया कि तुम्हारी सन्तानका कभी अन्त न होगा ॥१५॥

पुरुकुत्सने नर्मदासे त्रसद्दस्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥१६॥

त्रसद्दस्युसे अनरण्य हुआ, जिसे दिग्विजयके समय रावणने मारा था ॥१७॥

अनरण्यके पृषदश्व, पृषदश्वके हर्यश्व, हर्यश्वके हस्त, हस्तके सुमना, सुमनाके त्रिधन्वा, त्रिधन्वाके त्रय्यारुणि और त्रय्यारुणिके सत्यव्रत नामक पुत्र हुआ, जो पीछे त्रिशंकु कहलाया ॥१८-२१॥

वह त्रिशकुं चाण्डाल हो गया था ॥२२॥

एक बार बारह वर्षतक अनावृष्ट रही । उस समय विश्वमित्र मुनिके स्त्री और बाल बच्चोके पोषणार्थ तथा अपनी चाण्डालताको छुड़ानेके लिये वह गंगाजीके तटपर एक वटके वृक्षपर प्रतिदिन मृगका मांस बाँध आता था ॥२३॥

इससे प्रसन्न होकर विश्वामित्रजीने उसे सदेह स्वर्ग भेज दिया ॥२४॥

त्रिशंकुसे हरिश्चन्द्र, हरिश्चन्द्रसे रोहिताश्व, रोहिताश्वसे हरित, हरितसे चत्र्चु, चत्र्चुसे विजय और वसुदेव, विजयसे रुरुक और रुरुकसे वृकका जन्म हुआ ॥२५॥

वृकके बाहु नामक पुत्र हुआ जो हैहय और तालजंघ आदि क्षत्रियोंसे पराजित होकर अपनी गर्भवती पटरानीके सहित वनमें चला गया था ॥२६॥

पटरानीकी सौतने उसका गर्भ रोकनेकी इच्छासे उसे विष खिला दिया ॥२७॥

उसके प्रभावसे उसका गर्भ सात वर्षतक गर्भाशय ही में रहा ॥२८॥

अन्तमें, बाहु वृद्धवस्थाके कारण और्व मुनिके आश्रमके समीप मर गया ॥२९॥

तब उसकी पटरानीने चिता बनाकर उसपर पतिका शव स्थापित कर उसके साथ सती होनेका निश्चय किया ॥३०॥

उसी समय भूत, भविष्यत और वर्तमान तीनों कालके जाननेवाले भगवान् और्वने अपने आश्रमसे निकलकर उससे कहा - ॥३१॥

'अयि साध्वि ! इस व्यर्थ दुराग्रहकी छोड़ ! तेरे उदरमें सम्पूर्ण भूमण्डलका स्वामी, अत्यन्त बल-पराक्रमशील, अनेक यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला और शत्रुओंका नाश करनेवाला चक्रवती राजा हैं ॥३२॥

तू ऐसे दुस्साहसका उद्योग न कर । ' ऐसा कहे जानेपर वह अनुमरण ( सति होने ) के आग्रहसे विरत हो गयी ॥३३॥

और भगवान् और्व उसे अपने आश्रमपर ले आये ॥३४॥

वहाँ कुछ ही देनोंमे, उसके उस गर ( विष ) के साथ ही एक अति तेजस्वी बालकने जन्म लिया ॥३५॥

भगवान् और्वने उसके जातकर्म आदि संस्कार कर उसका नाम ' सगर' रखा तथा उसका उपनयनसंस्कार होनेपर और्वने ही उसे वेद, शास्त्र एवं भार्गव नामक आग्नेय शस्त्रोंकी शिक्षा दी ॥३६-३७॥

बुद्धिका विकास होनेपर उस बालकने अपनी मातांसे कहा - ॥३८॥

" माँ ! यह तो बता, इस तपोवनमें हम क्यों रहते हैं और हमारे पिता कहाँ हैं ? ' इसी प्रकारके और भी प्रश्न पूछनेपर माताने उससे सम्पूर्ण वृतान्त कह दिया ॥३९॥

तब तो पिताके राज्यापहरणको सहन न कर सकनेके कारण उसने हैहय और तालजंघ आदि क्षत्रियोंको मार डालनेकी प्रतिज्ञा की और प्रायः सभी हैहय एवं तालजंघवंशीय राजाओंको नष्ट कर दिया ॥४०-४१॥

उनके पश्चात शक, यवन, काम्बोज, पारद और पह्लवगण भी हताहत होकर सगरके कुलगुरु वसिष्ठजीकी शरणमें गये ॥४२॥

वसिष्ठजीने उन्हें जीवन्मृत ( जीते हुए ही मरेके समान ) करके सगरसे कहा - " बेटा इन जीते - जी मेरे हुओंका पीछा करनेसे क्या लाभ है ? ॥४४॥

देख तेरी प्रतिज्ञाको पूर्ण करनेके लिये मैंने ही इन्हें स्वधर्म और द्विजातियोंके संसर्गसे वत्र्चित कर दिया है" ॥४५॥

राजाने ' जो आज्ञा' कहकर गुरुजीके कथनका अनुमोदन किया और उनके वेष बदलवा दिये ॥४६॥

उसने यवनोंके सिर मुड़वा दिये, शकोंको अर्द्धमुण्डित कर दिया, पारदोंके लम्बे - लम्बे केश रखवा दिये, पह्ववोंके मूँछ-दाढी रखवा दीं तथा इनको और इनके समान अन्यान्य क्षत्रियोंको भी स्वध्याय और वषट्कारादिसे बहिष्कृत कर दिया ॥४७॥

अपने धर्मको छोड़ देनेके कारण ब्राह्मणोंने भी इनका परित्याग कर दिया; अतः ये म्लेच्छ हो गये ॥४८॥

तदनन्तर महाराज सगर अपनी राजधानीमें आकर अप्रतिहत सैन्यसे युक्त हो इस सम्पूर्ण सप्तद्वीपती पृथ्विवीका शासन करने लगे ॥४९॥

         " इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थऽशे तृतीयोऽध्यायः"


                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)


                              "चौथा अध्याय"

"सगर, सौदास, खट्‍वांग और भगवान् रामके चरित्रका वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले  ;- काश्यपसुता सुमति और विदर्भराज - कन्या केशिनी ये राजा सगरकी दो स्त्रियाँ थीं ॥१॥

उनसे सन्तानोप्तत्तिके लिये परम समाधिद्वारा आराधना किये जानेपर भगवान् और्वने यह वह दिया ॥२॥

'एकसे वंशकी वृद्धि करनेवाला एक पुत्र तथा दुसरीसे साठ हजार पुत्र उत्पन्न होंगे, इनमेंसे जिसको जो अभीष्ट हो वह इच्छापूर्वक उसीको ग्रहण कर सकती है ।' उनके ऐसा कहनेपर केशिनीने एक तथा सुमतीने साठ हजार पुत्रोंका वर माँगा ॥३-४॥

महर्षिके ' तथास्तु' कहनेपर कुछ ही दोनोंमें केशिनीने वंशको बढ़ानेवाले असमज्जस नामक एक पुत्रको जन्म दिया और काश्यपकुमारी सुमतिसे साठ सहस्त्र पुत्र उप्तन्न हुए ॥५-६॥

राजकुमार असमज्जसके अंशुमान् नामक पुत्र हुआ ॥७॥

यह असमज्जस बाल्यावस्थासे ही बड़ा दुराचारी था ॥८॥

पिताने सोचा कि बाल्यावस्थाके बीत जानेपर यह बहुत समझदार होगा ॥९॥

किन्तु यौवनाके बीत जानेपर भी जब उसका आचरण न सुधरा तो पिताने उसे त्याग दिया ॥१०॥

उनके साठ हजार पुत्रोंने भी असमज्जसके चरित्राका ही अनुकरण किया ॥११॥

तब, असमज्जसके चरित्रका अनुकरण करनेवाले उन सगरपुत्रोंद्वारा संसारमें यज्ञादि सन्मार्गका उच्छेद हो जानेपर सकल-विद्यानिधान, अशेषदोषहीन, भगवान् पुरुषोत्तमके अंशभूत श्रीकपिलदेवसे देवताओंने प्रणाम करनेके अनन्तर उनके विषयमें कहा - ॥१२॥

" भगवान् ! राजा सगरके ये सभी पुत्र असमज्जसके चरित्रका ही अनुसरण कर रहे हैं ॥१३॥

इन सबके असन्मार्गमें प्रवृत्त रहनेसे संसारकी क्या दशा होगी ? ॥१४॥

प्रभो ! संसारमें दीनजनोंकी रक्षाके लिये ही आपने यह शरीर ग्रहण किया है ( अतः इस घोर आपत्तिसे संसारकी रक्षा कीजिये ) । " यह सुनकर भगवान् कपिलने कहा, " ये सब थोड़े ही दिनोंमें नष्ट हो जायँगे" ॥१५॥

इसी समय सगरने अश्वमेध - यज्ञ आरम्भ किया ॥१६॥

उसमें उसके पुत्रोंद्वारा सुरक्षित घोड़ेको कोई व्यक्ति चुराकर पृथिवीमें घुस गया ॥१७॥

तब उस घोड़के खुरोंके चिह्नोका अनुसरण करते हुए उनके पुत्रोंमेंसे प्रत्येकने एक - एक योजन पृथिवी खोद डाली ॥१८॥

तथा पातालमें पहूँचकर उन राजकुमारोंने अपने घोड़ेको फिरता हुआ देखा ॥१९॥

पासहीमें मेघावरणहीन शरत्कालके सूर्यके समान अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करते हुए घोड़ेका चुरानेवाले परमर्षि कपिलको सिर झुकाये बैठे देखा ॥२०॥

तब तो वे दुरात्मा अपने अस्त्र - शस्त्रोंको उठकर ' यही हमारा अपकारी और यज्ञमें विघ्न डालनेवाला है, इस घोड़ेको चुरानेवालेको मारों, मारो' ऐसा चिल्लाते हुए उनकी और दौडे़ ॥२१॥

तब भगवान् कपिलदेवके कुछ आँख बदलकर देखते ही वे सब अपने ही शरीरसे उप्तन्न हुए अग्निमें जलकर नष्ट हो गये ॥२२॥

महाराज सगरको जब मालुम हुआ कि घोड़ेका अनुसरण करनेवाले उसके समस्त पुत्र महर्षि कपिलके तेजसे दग्ध हो गये हैं तो उन्होंने असमज्जसके पुत्र अंशुमान्‌को घोड़ा ले आनेके लिये नियुक्त किया ॥२३॥

वह सगर - पुत्रोंद्वारा खोदे हुए मार्गसे कपिलजीके पास पहूँचा और भक्तिविनम्र होकर उनका स्तुति की ॥२४॥

तब भगवान् कपिलने उससे कहा, " बेटा ! जा, इस घोड़ेको ले जाकर अपने दादाको दे और तेरी जो इच्छा हो वही वर माँग ले । तेरा पौत्र गंगाजीको स्वर्गसे पृथ्वीवीपर लायेगा" ॥२५-२६॥

इसपर अंशुमान्‌ने यही कहा कि मुझे ऐसा वर दिजिये जो ब्रह्मदण्दसे आहत होकर मरे हुए मेरे अस्वर्ग्य पितृगणको स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला हो ॥२७॥

यह सुनकर भगवान्‌ने कहा, " मैं तुझसे पहले ही कह चुका हूँ कि तेरा पौत्र गंगाजीको स्वर्गसे पृथिवीपर लायेगा ॥२८॥

उनके जलसे इनकी अस्थियोंकी भस्मका स्पर्श होते ही ये सब स्वर्गको चले जायँगे ॥२९॥

भगवान् विष्णुके चरणनखसे निकले हुए उस जलका ऐसा माहात्म्य है कि वह कामनापूर्वक केवल स्नानादि कार्योंमें ही उपयोगी हो - सो नहीं, आपितु, बिना कामनाके मृतक पुरुषके अस्थि, चर्म, स्नायु अथवा केश आदिका स्पर्श हो जानेसे या उसके शरीरका कोई अंग निरगेसे भी वह देहधारीको तुरंत स्वर्गमें ले जाता है । " भगवान् कपिलके ऐसा कहनेपर वह उन्हें प्रणाम कर घोड़ेको लेकर अपने पितामहकीं यज्ञशालामें आया ॥३०-३१॥

राजा सगरने भी घोड़ेके मिल जानेपर अपना यज्ञ समाप्त किया और ( अपने पुत्रोंके खोदे हुए ) सागरकी ही अपत्य स्नेहसे अपना पुत्र माना ॥३२-३३॥

उस अंशुमान्‌के दीलीप नामक पुत्र हुआ और दीलीपके भगीरथ हुआ जिसने गंगाजीको स्वर्गसे पृथिवीपर लाकर उनका नाम भागीरथ कर दिया ॥३४-३५॥

भगीरथसे सुहोत्र, सुहोत्रसे श्रुति, श्रितिसे नाभाग, नाभागसे अम्बरीष, अम्बरीषसे सिन्धद्वीप, सिन्धुद्विपसे अयुतायु और अतुतायुसे ऋतुपर्ण नामक पुत्र हुआ जो राजा नलका सहायक और द्युतक्रीडाका पारदर्शीं था ॥३६-३७॥

ऋतुपर्णका पुत्र सर्वकाम था, उसका सुदास और सुदासका पुत्र सौदास मित्रसह हुआ ॥३८-४०॥

एक दिन मृगयाके लिये वनमें घूमतें घुमतें उसने दो व्याघ्र देखे ॥४१॥

इन्होंने सम्पूर्ण वनको मृगहीन कर दिया है - ऐसा समझकर उसने उनमेंसे एकको बाणसे मार डाला ॥४२॥

मरते समय वह अति भयंकररूप क्रूरवदन राक्षस हो गया ॥४३॥

तथा दूसरा भी मैं इसका बदला लूँगा' ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गया ॥४४॥

कालान्तरमें सौदासने एक यज्ञ किया ॥४५॥

यज्ञ समाप्त हो जानेपर जब आचार्य वसिष्ठ बाहर चले गये तब वह राक्षस वसिष्ठजीका रूप बनाकर बोला, ' यज्ञके पूर्ण होनेपर मुझे नर मांसयुक्त भोजन कराना चाहिये, अतः तुम ऐसा अन्न तैयार कराओ, मैं अभी आता हूँ' ऐसा कह कर वह बाहर चला गया ॥४६॥

फिर रसोइये का वेष बनाकर राजाकी आज्ञासे उसने मनुष्य का मांस पका कर उसे निवेदन किया ॥४७॥

राजा भी उसे सुवर्णपात्रमें रखकर वसिष्ठजीके आनेकी प्रतीक्षा करने लगा और उनके आते ही वह मांस निवेदन कर दिया ॥४८-४९॥

वसिष्ठजीने सोचा, ' अहो ! इस राजाकी कुटिलता तो देखो जो यह जान - बुझकर भी मुझे खानेके लिये यह मांस देता है । ' फिर यह जानने के लिये कि यह किसका है वे ध्यानस्थ हो गये ॥५०॥

ध्यानावस्था में उन्होंनें देखा कि वह तो नरमांस है ॥५१॥

तब तो क्रोध के कारण क्षुब्धचित्त होकर उन्होंने राजा को यह शाप दिया ॥५२॥

' क्योंकि तुने जान- बुझकर भी हमारे - जैसे तपस्वियोंके लिये अत्यन्त अभक्ष्य यह नरमांस मुझे खाने को दिया है इसलिये तेरी इसी में लोलुपता होगी ( अर्थात तू राक्षस हो जायगा ) ॥५३॥

तदनन्तर राजाके कहने पर कि ' भगवान् आपही ने ऐसी आज्ञा की थी, वसिष्ठजी यह कहते हुए कि ' क्या मैंने ही ऐसा कहा था ? ' फिर समाधिस्थ हो गये ॥५४॥

समाधिद्वारा यथार्थ बात जानकर उन्होंने राजा पर अनुग्रह करते हुए कहा, " तु अधिक दिन नरमांस भोजन न करेगा, केवल बारह वर्ष ही तुझे ऐसा करना होगा' ॥५५॥

वसिष्ठजीके ऐसा कहने पर राजा सौदास भी अपनी अज्जालिमें जल लेकर मुनीश्वरको शाप देनेके लिये उद्यत हुआ । किन्तु अपनी पत्नी मदयन्तीद्वारा 'भगवन् ! ये हमारे कुलगुरु, हैं इन कुलदेवरूप आचार्यको शाप देना उचित नहीं है - ऐसा कहे जानेसे शान्त हो गया तथा अन्न और मेघकी रक्षाके कारण उस शाप - जलकी पृथिवी या आकाशमें नहीं फेंका, बल्कि उससे अपने पैरोंको ही भिगो लिया ॥५६॥

उस क्रोधयुक्त जलसे उसके पैर झुलसकर कल्माषवर्ण ( चितकबरे ) हो गये । तभीसे उनका नाम कल्पाषपाद हुआ ॥५७॥

तथा वसिष्ठजीके शापके प्रभावसे छठे कालमें अर्थात तीसरे दिनके अन्तिम भागमें वह राक्षस - स्वभाव धारणकर वनमें घूमते हुए अनेकों मनुष्योंको खाने लगा ॥५८॥

एक दिन उसने एक मुनीश्वरको ऋतुकालके समय अपनी भार्या से संगम करते देखा ॥५९॥

उस अति भीषण राक्षस - रुपसे देखकर भयसे भागते हुए उन दम्पतियोंमे से उसने ब्राह्मण को पकड़ लिया ॥६०॥

तब ब्राह्मणी ने उससे नाना प्रकार से प्रार्थना की और कहा - " हे राजन् ! प्रसन्न होइये ! आप राक्षस नहीं हैं बल्कि इक्ष्वाकुकुलतिलक महाराज मित्रसह हैं ॥६१-६२॥

आप स्त्री - संयोग के सुखको जानने वाले हैं; मैं अतृप्त हूँ, मेरे पतिको मारना आपको उचित नहीं है ।' इस प्रकार उसके नाना प्रकार से विलाप करने पर भी उसने उस ब्राह्मणको इस प्रकार भक्षण कर लिया जैसे बाघ अपने अभिमत पशुको वनमें पकड़कर खा जाता है ॥६३॥

तब ब्राह्मणीने अत्यन्त क्रोधित होकर राजाको शाप दिया - ॥६४॥

' अरे ! तुने मेरे अतृत्प रहते हुए भी इस प्रकार मेरे पतिको खा लिया, इसलिये कामोपभोगमें प्रवृत्त होते ही तेरा अन्त हो जायगा' ॥६५॥

इस प्रकार शाप देकर वह अग्निमें प्रविष्ट हो गयी ॥६६॥

तदनन्तर बाहर वर्षके अन्तमें शापमुक्त हो जाने पर एक दिन विषय - कामनामें प्रवृत्त होनेपर रानी मदयन्तीने उसे ब्राह्मणी के शापका स्मरण करा दिया ॥६७॥

तभी से राजा ने स्त्री - सम्भोग त्याग दिया ॥६८॥

पीछे पुत्रहीन राजा के करने पर वसिष्ठजीने मदयन्तीके गर्भाधान किया ॥६९॥

जब उस गर्भने सात वर्ष व्यतीत होनेपर भी जन्म न लिया तो देवी मदयन्ती ने उसपर पत्थरसे प्रहार किया ॥७०॥

इससे उसी समय पुत्र उप्तन्न हुआ और उसका नाम अश्मक हुआ ॥७१-७२॥

अश्मक के मुलक नामक पुत्र हुआ ॥७३॥

जब परशुरामजीद्वारा यह पृथ्वीवीतल क्षत्रियहीन किया जा रहा था उस समय उस ( मुलक ) की रक्षा वस्त्रहीना स्त्रियोंने घेरकर की थी, इससे उसे नारीकवच भी कहते हैं ॥७४॥

मूलक के दशरथ, दशरथके इलिविक, इलिविलके विश्वसह और विश्वसहके खट्‌वांग नामक पुत्र हुआ, जिसने देवासुरसंग्राम में देवताओंके प्रार्थना करनेपर दैत्योंका वध किया था ॥७५-७६॥

इस प्रकार स्वर्गमें देवताओंका प्रिय करने से उनके द्वारा वर माँगने के लिये प्रेरित किये जानेपर उसने कहा - ॥७७॥

" यदि मुझे वर ग्रहण करना ही पड़ेगा तो आपलोग मेरी आयु बतलाइये " ॥७८॥

तब देवताओंके यह कहनेपर कि तुम्हारी आयु केवल एक मुहूर्त और रही है वह ( देवताओंके दिये हुए ) एक अनारुद्धगति विमानपर बैठकर बड़ी शीघ्रतासे मर्त्यलोकमें आया और कहने लगा - ॥७९॥

' यदि मुझे ब्राह्मणोंकी अपेक्षा कभी अपना आत्मा भी प्रियतर नहीं हुआ , यदि मैंने कभी स्वधर्मका उल्लघंन नहीं किया और सम्पूर्ण देव, मनुष्य, पशु, पक्षी और वृक्षादिमें श्रीअच्युतके अतिरिक्त मेरी अन्य दृष्टि नहीं हुई तो मैं निर्विघ्नतापूर्वक उन मुनिजनन्दित प्रभुको प्राप्त होऊँ । ' ऐसा कहते हुए राजा खट्‌वांगने सम्पूर्ण देवताओंके गुरु, अकथनीयस्वरूप, सत्तामात्रशरीर, परमात्मा भगवान् वासुदेवमें अपना चित्त लगा दिया और उन्हीमें लीन हो गये ॥८०॥

इस विषयमें भी पूर्वकालमें सप्तर्षियोंद्वारा कहा हुआ श्लोक सुना जाता है । ( उसमें कहा है - ) ' खट्‌वांगके समान पृथिवीतलमें अन्य कोई भी राजा नहीं होगा, जिसने एक मूहूर्तमात्र जीवनके रहते ही स्वर्गलोकसे भुमण्डलमें आकर अपनी बुद्धिद्वारा तीनों लोकोंको सत्यस्वरूप भगवान् वासुदेवमय देखा " ॥८१-८२॥

खट्‌वांगसे दीर्घबाहु नामक पुत्र हुआ । दीर्घबाहुसे रघु, रघुसे अज और अजसे दशरथने जन्म लिया ॥८३-८६॥

दशरथजीके भगवान् कमलनाभ जगत्‌की स्थितिके लिये अपने अंशोसे राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न इन चार रूपोंसे पुत्र - भावको प्राप्त हुए ॥८७॥

रामजीने बाल्यवस्थामें ही विश्वामित्रजीकी यज्ञरक्षाके लिये जाते हुए मार्गमें ही ताटका राक्षसीको मारा, फिर यज्ञशालामें पहूँचकर मारीचको वाणरूपी वायुसे आहत कर समुद्रमें फेंक दिया और सुबाहु आदि राक्षसोको नष्ट कर डाला ॥८८-९०॥

उन्होंने अपने दर्शनमात्रसे अहल्याको निष्पाप किया, जनकजीने राजभवनमें बिना श्रम ही महादेवजीका धनुष तोड़ा और पुरुषार्थसे ही प्राप्त होनेवाली अयोनिजा जनकराजनन्दिनी श्रीसीताजीको पत्नीरूपसे प्राप्त किया ॥९१-९३॥

और तदनन्तर सम्पूर्ण क्षत्रियोंकी नष्ट करनेवाले, समस्त हैहयकुलके लिये अग्निस्वरूप परशुरामजीके बल - वीर्यका गर्व नष्ट किया ॥९४॥

फिर पिताके वचनसे राज्यलक्ष्मीको कुछ भी न गिनकर भाई लक्ष्मण और धर्मपत्नी सीताके सहित वनमें चले गये ॥९५॥

वहाँ विराध, खर दूषण आदि राक्षस तथा कबन्धे और वालिक वध किया और समुद्रका पुल बाँधकर सम्पूर्ण राक्षसकुलका विध्वंस किया तथा रावणद्वारा हरी हूई और उसके वधसे कलंकहीना होनेपर भी अग्नि - प्रवेशसे शुद्ध हूई समस्त देवगणोंसे प्रशंसित स्वभाववली अपनी भार्या जनकराजकन्या सीताको अयोध्यामें ले आये ॥९६-९७॥

हे मैत्रेय ! उस समय उनके राज्यभिषेक - जैसा मंगल हुआ उसका तो सौ वर्षमें भी वर्णन नहीं किया जा सकता; तथापि संक्षेपसे सुनो ॥९८॥

दशरथ - नन्दन श्रीरामचन्द्रजी प्रसन्नवदन लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, विभीषण, सुग्रीव, अंगद जाम्बवान् और हनुमान् आदिसे छत्र-चामरादिद्वारा सेवित हो , ब्रह्मा, इन्द्र, अग्नि, यम, निऋति, वरुण, वायु, कुबेर और ईशान आदि सम्पूर्ण देवगण, वसिष्ठ, वामदेव, वाल्मीकि, मार्कण्डेय, विश्वामित्र, भरद्वाज और अगस्त्य आदि मुनिजन तथा ऋक् यजुः साम और अथर्ववेदोंसे स्तुति किये जाते हुए तथा नृत्य, गीत वाद्य आदि सम्पूर्ण मंगलसामग्रियोंसहित वीणा, वेणु, मृदंग, भेरी पटह शंख, काहल और गोमुख आदि बाजोंके घोषके साथ समस्त राजाओंके मध्यमें सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके लिये विधिपूर्वक अभिषिक्त हुए । इस प्रकार दशरथकुमार कोसलाधिपति, रघुकुलतिलक, जानकीवल्लभ, तीनों भ्राताओंके प्रिय श्रीरामचन्द्रजीने सिंहासनारुढ़ होकर ग्यारह हजार वर्ष राज्य- शासन किया ॥९९॥

भरतजीने भी गन्धर्वलोकको जीतनेके लिये जाकर युद्धमें तीन करोड़ गन्धर्वोका वध किया और शत्रुघ्नजीने भी अतुलित बलशाली महापराक्रमी मधूपुत्र लवण राक्षसका संहार किया और मथुरा नामक नगरकी स्थापना कीं ॥१००-१०१॥

इस प्रकार अपने अतिशय बलपराक्रमसे महान् दुष्टोंको नष्ट करनेवाले भगवान् राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न सम्पूर्ण जगत्‌की यशोचित व्यवस्था करनेके अनन्तर फिर स्वर्गलोकको पधारे व्यवस्था करनेके अनन्तर फिर स्वर्गलोकको पधारे ॥१०२॥

उनके साथ ही जो अयोध्यानिवासी उन भगवदंशस्वरूपोंके अतिशय अनुरागी थे उन्होंने भी तन्मय होनेके कारण सालोक्य मुक्ति प्राप्त की ॥१०३॥

दुष्ट दलन भगवान् रामके कुश और लव नामक दो पुत्र हुए । इसी प्रकार लक्ष्मणजीके अंगद और चन्द्रकेतु, भरतजीके तक्ष और पुष्कल तथा शत्रुघ्नजीके सुबाहु और शुरसेन नामक पुत्र हुए ॥१०४॥

कुशके, अतिथि, अतिथिके निषध, निषधके अनल, अनलके नभ, नभके पुण्डरीक, पुण्डरीकके क्षेमधन्वा, क्षेमधन्वाके देवानीक, देवानीकके अहीनक, अहीनकके रुरु, रुरुके पारियात्रक, पारियात्रकके देवल, देवलके , वच्चल, वच्चलके उत्क, उत्कके वज्रनाभ, वज्रनाभके शंखण, शंखणके युषिताश्च और युषिताश्वके विश्वसह नामक पुत्र हुआ ॥१०५-१०६॥

विश्वसहके हिरण्यनाभ नामक पुत्र हुआ जिसने जैमिनिके शिष्य महायोगीश्वर याज्ञवल्क्यजीसे योगविद्या प्राप्त की थी ॥१०७॥

हिरण्यनाभका पुत्र पुष्य था, उसका ध्रुवसन्धि, ध्रुवसन्धिका सुदर्शन, सुदर्शनका अग्निवर्ण , अग्निवर्णका शीघ्रग तथा शीघ्रगका पुत्र मरु हुआ जो इस समय भी योगाभ्यासमें तत्पर हुआ कलापग्राममें स्थित है ॥१०८-१०९॥

आगामी युगमें यह सूर्यवंशीय क्षत्रियोंका प्रवर्त्तक होगा ॥११०॥

मरुका पुत्र प्रसुश्रुत, प्रसुश्रुतका सुसन्धि, सुसन्धिका अमर्ष, अमर्षका सहस्वान्, सहस्वान्‌का विश्वभव तथा विश्वभवका पुत्र बृहद्वल हुआ जिसको भारतीय युद्धमें अर्जुनके पुत्र अभिमन्युने मारा था ॥१११-११२॥

इस प्रकार मैंने यह इक्ष्वाकुकुलके प्रधान - प्रधान राजाओंका वर्णन किया । इनका चरित्र सुननेसे मनुष्य सकल पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥११३॥

        "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे चतुर्थोऽध्यायः"

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