{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (प्रथम अंश) का सातवाँ व आठवाँ अध्याय}} {The seventh and eighth chapters of the entire Vishnu Purana (first part)}
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
श्री विष्णुपुराण
(प्रथम अंश)
"सातवाँ अध्याय"
"मरीचि आदि प्रजापतिगण, तामसिक सर्ग, स्वायम्भुवमनु और शतरूपा तथा उनकी सन्तान का वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;– फिर उन प्रजापति के ध्यान करनेपर उनके देहस्वरूप भूतों से उत्पन्न हुए शरीर और इन्दिर्यों के सहित मानस प्रजा उत्पन्न हुई | उस समय मतिमान ब्रह्माजी के जड शरीर से ही चेतन जीवों का प्रादुर्भाव हुआ || १ || मैंने पहले जिनका वर्णन किया है, देवताओं से लेकर स्थावरपर्यन्त वे सभी त्रिगुणात्मक चर और अचर जीव इसीप्रकार उत्पन्न हुए || २ – ३ ||
जब महाबुद्धिमान प्रजापति की वह प्रजा पुत्र-पौत्रादि-क्रम से और न बढ़ी तब उन्होंने भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि और वसिष्ठ – इन अपने ही सदृश अन्य मानस-पुत्रों की सृष्टि की | पुराणों में ये नौ ब्रह्मा माने गये है || ४ – ६ ||
फिर ख्याति, भूति, सम्भूति, क्षमा, प्रीति, सन्नति, ऊर्ज्जा, अनसूया तथा प्रसूति इन नौ कन्याओं को उत्पन्न कर, इन्हें उन महात्माओं को ‘तुम इनकी पत्नी हो’ ऐसा कहकर सौंप दिया || ७ – ८ ||
ब्रह्माजीने पहले जिन सनन्दनादि को उत्पन्न किया था वे निरपेक्ष होने के कारण सन्तान और संसार आदि में प्रवृत्त नहीं हुए || ९ || वे सभी ज्ञानसम्पन्न, विरक्त और मत्सरादि दोषों से रहित थे | उन महात्माओं को संसार-रचना से बह्माजी को त्रिलोकी को भस्म कर देनेवाला महान क्रोध उत्पन्न हुआ | हे मुने ! उन ब्रह्माजी के क्रोध के कारण सम्पूर्ण त्रिलोकी ज्वाला-मालाओं से अत्यंत देदीप्यमान हो गयी || १०- ११ ||
उससमय उनकी टेढ़ी भृकुटि और क्रोध-संतप्त ललाटसे दोपहर के सूर्य के समान प्रकाशमान रूद्र की उत्पत्ति हुई || १२ || उसका अति प्रचंड शरीर आधा नर और आधा नारीरूप था | तब ब्रह्माजी ‘अपने शरीर का विभाग कर’ ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये || १३ || ऐसा कहे जानेपर उस रूद्र ने अपने शरीरस्थ स्त्री और पुरुष दोनों भागों को अलग-अलग कर दिया और फिर पुरुष-भाग को ग्यारह भागों में विभक्त किया || १४ || तथा स्त्री-भाग को भी सौम्य, क्रूर, शांत-अशांत और श्याम – गौर आदि कई रूपों में विभक्त कर दिया || १५ ||
तदनन्तर, हे द्विज ! अपने से उत्पन्न अपने ही स्वरूप स्वायम्भुव को ब्रह्माजी ने प्रजा-पालन के लिये प्रथम मनु बनाया || १६ || उन स्वायम्भुव मनुने [अपने ही साथ उत्पन्न हुई ] तप के कारण निष्पाप शतरूपा नाम की स्त्री को अपनी पत्नीरूप से ग्रहण किया || १७ || हे धर्मज्ञ ! उन स्वायम्भुव मनु से शतरूपा देवीने प्रियव्रत और उत्तानपादनामक दो पुत्र तथा उदार, रूप और गुणों से सम्पन्न प्रसूति और आकूति नामकी दो कन्याएँ उत्पन्न की | उनमें से प्रसूति को दक्ष के साथ तथा आकूति को रूचि प्रजापति के साथ विवाह दिया || १८ – १९ ||
हे महाभाग ! रूचि प्रजापति ने उसे ग्रहण कर लिया | तब उन दम्पती के यज्ञ और दक्षिणा – ये युगल (जुड़वाँ) सन्तान उत्पन्न हुई || २० || यज्ञ के दक्षिणा से बारह पुत्र हुए, जो स्वायम्भुव मन्वन्तर से वाम नामके देवता कहलाये || २१ || तथा दक्ष ने प्रसूति से चौबीस कन्याएँ उत्पन्न की | मुझसे उनके शुभ नाम सुनो || २२ || श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, मेधा, पुष्टि, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि और तेरहवी कीर्ति – इन दक्ष कन्याओं को धर्म ने पत्नीरूप से ग्रहण किया | इनसे छोटी शेष ग्यारह कन्याएँ ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्तति, अनसूया, ऊर्ज्जा, स्वाहा और स्वधा थीं || २३ – २५ || हे मुनिसत्तम ! इन ख्याति आदि कन्याओं को क्रमशः भृगु, शिव, मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ – इन मुनियों तथा अग्नि और पितरों ने ग्रहण किया || २६ – २७ ||
श्रद्धासे काम, चला (लक्ष्मी) से दर्प, धृति से नियम, तुष्टि से संतोष और पुष्टि से लोभ की उत्पत्ति हुई || २८ || तथा मेधासे श्रुत, क्रियासे दंड, नय और विनय, बुद्धिसे बोध, लज्जासे विनय, वपुसे उसका पुत्र व्यवसाय, शान्ति से क्षेम, सिद्धिसे सुख और कीर्तिसे यशका जन्म हुआ; ये ही धर्म के पुत्र हैं | रतिने कामसे धर्म के पौत्र हर्ष को उत्पन्न किया || २९ – ३१ ||
अधर्म की स्त्री हिंसा थी, उससे अनृत नामक पुत्र और निकृति नामकी कन्या उत्पन्न हुई | उन दोनोंसे भय और नरक नामके पुत्र तथा उनकी पत्नियाँ माया और वेदना नामकी कन्याएँ हुई | उनमें से मायाने समस्त प्राणियों का संहारकर्ता मृत्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया || ३२ – ३३ || वेद्नाने भी रौरव (नरक) के द्वारा अपने पुत्र दुःख को जन्म दिया और मृत्युसे व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा और क्रोध की उत्पत्ति हुई || ३४ || ये सब अधर्मरूप है और ‘दु:खोंत्तर’ नामसे प्रसिद्ध है, [ क्योंकि इनसे परिणाम में दुःख ही प्राप्त होता है ] इनके न कोई स्त्री है और न सन्तान | ये सब ऊर्ध्वरेता हैं || ३५ || हे मुनिकुमार ! ये भगवान विष्णु के बड़े भयंकर रूप है और ये ही संसार के नित्य-प्रलय के कारण होते है || ३६ || हे महाभाग ! दक्ष, मरीचि, अत्रि और भृगु आदि प्रजापतिगण इस जगत के नित्य-सर्ग के कारण है || ३७ || तथा मनु और मनुके पराक्रमी, सन्मार्गपरायण और शूर – वीर पुत्र राजागण इस संसार की नित्य-स्थिति के कारण है || ३८ ||
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे ब्रह्मन ! आपने जो नित्य-स्थिति, नित्य-सर्ग और नित्य-प्रलयका उल्लेख किया सो कृपा करके मुझसे इनका स्वरूप वर्णन कीजिये || ३९ ||
श्रीपराशरजी बोले ;– जिनकी गति कहीं नहीं रूकती वे अचिंत्यात्मा सर्वव्यापक भगवान मधुसुदन निरंतर इन मनु आदि रूपों से संसार की उत्पत्ति, स्थिति और नाश करते रहते है || ४० || हे द्विज ! समस्त भूतों का चार प्रकारका प्रलय है – नैमित्तिक, प्राकृतिक, आत्यंतिक और नित्य || ४१ || उनमें से नैमित्तिक प्रलय ही ब्राह्म – पल्य है, जिसमें जगत्पति प्रलय में ब्रह्मांड प्रकृति में लीन हो जाता है || ४२ || ज्ञान के द्वारा योगी का परमात्मा में लीन हो जाना आत्यंतिक प्रलय है और रात – दिन जो भूतों का क्षय होता है वही नित्य – पल्य है || ४३ || प्रकृति से महत्तत्त्वादि क्रम से जो सृष्टि होती है वह प्राकृतिक सृष्टि कहलाती है और अवांतर- प्रलय के अनन्तर जो [ ब्रह्मा के द्वारा ] चराचर जगत की उत्पत्ति होती है वह दैनन्दिनी सृष्टि कही जाती है || ४४ || और हे मुनिश्रेष्ठ ! जिसमें प्रतिदिन प्राणियों की उत्पत्ति होती रहती है उसे पुराणार्थ में कुशल महानुभावों ने नित्य – सृष्टि कहा है || ४५ ||
इसप्रकार समस्त शरीर में स्थित भूतभावन भगवान विष्णु जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करते रहते है || ४६ || हे मैत्रेय ! सृष्टि, स्थिति और विनाशकी इन वैष्णवी शक्तियों का समस्त शरीरों में समान भावसे अहर्निश संचार होता रहता है || ४७ || हे ब्रह्मन ! ये तीनों महती शक्तियाँ त्रिगुणमयी हैं; अत: जो उन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है वह परमपद को ही प्राप्त कर लेता है, फिर जन्म – मरणादि के चक्र में नहीं पड़ता || ४८ ||
"इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे सप्तमोऽध्यायः"
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
श्री विष्णुपुराण
(प्रथम अंश)
"आठवाँ अध्याय"
"रौद्र – सृष्टि और भगवान तथा लक्ष्मीजी की सर्वव्यापकता का वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे महामुने ! मैंने तुमसे ब्रह्माजी के तामस-सर्ग का वर्णन किया, अब मैं रूद्र – सर्ग का वर्णन करता हूँ, सो सुनो || १ || कल्प के आदि में अपने समान पुत्र उत्पन्न होने के लिये चिन्तन करते हुए ब्रह्माजी की गोद में नीललोहित वर्ण के एक कुमार का प्रादुर्भाव हुआ || २ ||
हे द्विजोत्तम ! जन्म के अनन्तर ही वह जोर – जोर से रोने और इधर – उधर दौड़ने लगा | उसे रोता देख ब्रह्माजी ने उससे पूछा – ‘तू क्यों रोता है ?’ || ३ || उसने कहा – ‘मेरा नाम रखो |’ तब ब्रह्माजी बोले – ‘ हे देव ! तेरा नाम रूद्र है, अब तू मत रो, धैर्य धारण कर |’ ऐसा कहनेपर भी वह सात बार और रोया || ४ || तब भगवान ब्रह्माजी ने उसके सात नाम और रखे; तथा उन आठों के स्थान, स्त्री और पुत्र भी निश्चित किये || ५ || हे द्विज ! प्रजापति ने उसे भव, शर्व, ईशान, पशुपति, भीम, उग्र और महादेव कहकर सम्बोधन किया || ६ || यही उसके नाम रखे और इनके स्थान भी निश्चित किये | सूर्य, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, आकाश, [यज्ञ में ] दीक्षित ब्राह्मण और चंद्रमा – ये क्रमश: उनकी मूर्तियाँ है || ७ || हे द्विजश्रेष्ठ ! रूद्र आदि नामों के साथ उन सूर्य आदि मूर्तियों की क्रमश: सुवर्चला, ऊषा, विकेशी, अपरा, शिवा, स्वाहा, दिशा, दीक्षा और रोहिणी नामकी पत्नियाँ है | हे महाभाग ! अब उनके पुत्रों के नाम सुनो; उन्हीं के पुत्र- पौत्रादिकों से यह सम्पूर्ण जगत परिपूर्ण है || ८ – १० || शनैश्वर, शुक्र, लोहितांग, मनोजव, स्कन्द, सर्ग, सन्तान और बुध – ये क्रमश: उनके पुत्र है || ११|| ऐसे भगवान रूद्र ने प्रजापति दक्ष की अनिंदिता पुत्री सती को अपनी भार्यारूप से ग्रहण किया || १२ || हे द्विजसत्तम ! उस सतीने दक्षपर कुपित होने के कारण अपना शरीर त्याग दिया था | फिर वह मेना के गर्भ से हिमाचल की पत्नी (उमा) हुई | भगवान शंकर ने उस अनन्यपरायणा उमासे फिर भी विवाह किया || १३ -१४ || भृगु के द्वारा ख्याति ने धाता और विधातानामक दो देवताओं को तथा लक्ष्मीजी को जन्म दिया जो भगवान विष्णु की पत्नी हुई || १५ ||
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– भगवन ! सुना जाता है कि लक्ष्मीजी तो अमृत – मंथन के समय क्षीर-सागर से उत्पन्न हुई थी, फिर आप ऐसा कैसे कहते है कि वे भृगु के द्वारा ख्याति से उत्पन्न हुई || १६ ||
श्रीपराशरजी बोले ;– हे द्विजोत्तम ! भगवान का कभी संग न छोड़नेवाली जगज्जननी लक्ष्मीजी तो नित्य ही है और जिसप्रकार श्रीविष्णुभगवान सर्वव्यापक है वैसे ही ये भी है || १७ || विष्णु अर्थ है और ये वाणी है, हरि नियम है और ये निति है, भगवान विष्णु बोध है और ये बुद्धि है तथा वे धर्म है और ये सत्क्रिया है || १८ || हे मैत्रेय ! भगवान जगत के स्त्रष्टा है और लक्ष्मीजी सृष्टि है, श्रीहरि भूधर (पर्वत अथवा राजा) है और लक्ष्मीजी भूमि है तथा भगवान संतोष है और लक्ष्मीजी नित्य तुष्टि है || १९ || भगवान काम है और लक्ष्मीजी इच्छा है, वे यज्ञ है और वे दक्षिणा है, श्रीजनार्दन पुरोडाश है और देवी लक्ष्मीजी आज्याहुति (घृत की आहुति ) है || २० || हे मुने ! मधुसुदन यजमानगृह है और लक्ष्मीजी पत्नीशाला है, श्रीहरि युप है और लक्ष्मीजी चिति है तथा भगवान कुशा है और लक्ष्मीजी इध्मा है || २१ || भगवान सामस्वरूप है और श्रीकमलादेवी उद्भिति है, जगत्पति भगवान वासुदेव हुताशन है और लक्ष्मीजी स्वाहा है || २२ || हे द्विजोत्तम ! भगवान विष्णु शंकर है और श्रीलक्ष्मीजी गौरी है तथा हे मैत्रेय ! श्रीकेशव सूर्य है और कमलवासिनी श्रीलक्ष्मीजी उनकी प्रभा है || २३ || श्रीविष्णु पितृगण है और श्रीकमला नित्य पुष्टिदायिनी स्वधा है, विष्णु अति विस्तीर्ण सर्वात्मक अवकाश है और लक्ष्मीजी स्वर्गलोक है || २४ || भगवान श्रीधर चन्द्रमा है और श्रीलक्ष्मीजी उनकी अक्षय कान्ति है, हरि सर्वगामी वायु है और लक्ष्मीजी जगचेष्टा (जगतकी गति) और धृति (आधार) है || २५ || हे महामुने ! श्रीगोविंद समुद्र है और हे द्विज ! लक्ष्मीजी उसकी तरंग है, भगवान मधुसुदन देवराज इंद्र है और लक्ष्मीजी इंद्राणी है || २६ || चक्रपाणि भगवान यम है और श्रीकमला यमपत्नी धुमोर्णा है, देवाधिदेव श्रीविष्णु कुबेर है और श्रीलक्ष्मीजी साक्षात ऋद्धि है || २७ || श्रीकेशव स्वयं वरुण है और महाभागा लक्ष्मीजी गौरी है, हे द्विजराज ! श्रीहरि देवसेनापति स्वामिकार्तिकेय है और श्रीलक्ष्मीजी देवसेना है || २८ || हे द्विजोत्तम ! भगवान गदाधर आश्रय है और लक्ष्मीजी शक्ति है, भगवान निमेष है और लक्ष्मीजी काष्ठा है, वे मुहूर्त है और ये कला है || २९ || सर्वेश्वर सर्वरूप श्रीहरि दीपक है और श्रीलक्ष्मीजी ज्योति है, श्रीविष्णु वृक्षरूप है और जगन्माता श्रीलक्ष्मीजी लता है || ३० || चक्रगदाधरदेव श्रीविष्णु दिन है और लक्ष्मीजी रात्रि है, वरदायक श्रीहरि वर है और पद्मनिवासिनी श्रीलक्ष्मीजी वधु है || ३१ || भगवान नद है और श्रीजी नदी है, कमलनयन भगवान ध्वजा है और कमलालया लक्ष्मीजी पताका है || ३२ || जगदीश्वर परमात्मा नारायण लोभ है और लक्ष्मीजी और गोविन्दरूप ही है || ३३ || अधिक क्या कहा जाय ? संक्षेप में, यह कहना चाहिये कि देव, तिर्यक और मनुष्य आदिमें पुरुषवाची भगवान हरि है और स्त्रीवाची श्रीलक्ष्मीजी, इनके परे और कोई नही है || ३४ -३५ ||
"इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे अष्टमोऽध्यायः"
(नोट :- सभी अंश के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये ।। )
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
श्री विष्णुपुराण
(प्रथम अंश)
"सातवाँ अध्याय"
"मरीचि आदि प्रजापतिगण, तामसिक सर्ग, स्वायम्भुवमनु और शतरूपा तथा उनकी सन्तान का वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;– फिर उन प्रजापति के ध्यान करनेपर उनके देहस्वरूप भूतों से उत्पन्न हुए शरीर और इन्दिर्यों के सहित मानस प्रजा उत्पन्न हुई | उस समय मतिमान ब्रह्माजी के जड शरीर से ही चेतन जीवों का प्रादुर्भाव हुआ || १ || मैंने पहले जिनका वर्णन किया है, देवताओं से लेकर स्थावरपर्यन्त वे सभी त्रिगुणात्मक चर और अचर जीव इसीप्रकार उत्पन्न हुए || २ – ३ ||
जब महाबुद्धिमान प्रजापति की वह प्रजा पुत्र-पौत्रादि-क्रम से और न बढ़ी तब उन्होंने भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि और वसिष्ठ – इन अपने ही सदृश अन्य मानस-पुत्रों की सृष्टि की | पुराणों में ये नौ ब्रह्मा माने गये है || ४ – ६ ||
फिर ख्याति, भूति, सम्भूति, क्षमा, प्रीति, सन्नति, ऊर्ज्जा, अनसूया तथा प्रसूति इन नौ कन्याओं को उत्पन्न कर, इन्हें उन महात्माओं को ‘तुम इनकी पत्नी हो’ ऐसा कहकर सौंप दिया || ७ – ८ ||
ब्रह्माजीने पहले जिन सनन्दनादि को उत्पन्न किया था वे निरपेक्ष होने के कारण सन्तान और संसार आदि में प्रवृत्त नहीं हुए || ९ || वे सभी ज्ञानसम्पन्न, विरक्त और मत्सरादि दोषों से रहित थे | उन महात्माओं को संसार-रचना से बह्माजी को त्रिलोकी को भस्म कर देनेवाला महान क्रोध उत्पन्न हुआ | हे मुने ! उन ब्रह्माजी के क्रोध के कारण सम्पूर्ण त्रिलोकी ज्वाला-मालाओं से अत्यंत देदीप्यमान हो गयी || १०- ११ ||
उससमय उनकी टेढ़ी भृकुटि और क्रोध-संतप्त ललाटसे दोपहर के सूर्य के समान प्रकाशमान रूद्र की उत्पत्ति हुई || १२ || उसका अति प्रचंड शरीर आधा नर और आधा नारीरूप था | तब ब्रह्माजी ‘अपने शरीर का विभाग कर’ ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये || १३ || ऐसा कहे जानेपर उस रूद्र ने अपने शरीरस्थ स्त्री और पुरुष दोनों भागों को अलग-अलग कर दिया और फिर पुरुष-भाग को ग्यारह भागों में विभक्त किया || १४ || तथा स्त्री-भाग को भी सौम्य, क्रूर, शांत-अशांत और श्याम – गौर आदि कई रूपों में विभक्त कर दिया || १५ ||
तदनन्तर, हे द्विज ! अपने से उत्पन्न अपने ही स्वरूप स्वायम्भुव को ब्रह्माजी ने प्रजा-पालन के लिये प्रथम मनु बनाया || १६ || उन स्वायम्भुव मनुने [अपने ही साथ उत्पन्न हुई ] तप के कारण निष्पाप शतरूपा नाम की स्त्री को अपनी पत्नीरूप से ग्रहण किया || १७ || हे धर्मज्ञ ! उन स्वायम्भुव मनु से शतरूपा देवीने प्रियव्रत और उत्तानपादनामक दो पुत्र तथा उदार, रूप और गुणों से सम्पन्न प्रसूति और आकूति नामकी दो कन्याएँ उत्पन्न की | उनमें से प्रसूति को दक्ष के साथ तथा आकूति को रूचि प्रजापति के साथ विवाह दिया || १८ – १९ ||
हे महाभाग ! रूचि प्रजापति ने उसे ग्रहण कर लिया | तब उन दम्पती के यज्ञ और दक्षिणा – ये युगल (जुड़वाँ) सन्तान उत्पन्न हुई || २० || यज्ञ के दक्षिणा से बारह पुत्र हुए, जो स्वायम्भुव मन्वन्तर से वाम नामके देवता कहलाये || २१ || तथा दक्ष ने प्रसूति से चौबीस कन्याएँ उत्पन्न की | मुझसे उनके शुभ नाम सुनो || २२ || श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, मेधा, पुष्टि, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि और तेरहवी कीर्ति – इन दक्ष कन्याओं को धर्म ने पत्नीरूप से ग्रहण किया | इनसे छोटी शेष ग्यारह कन्याएँ ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्तति, अनसूया, ऊर्ज्जा, स्वाहा और स्वधा थीं || २३ – २५ || हे मुनिसत्तम ! इन ख्याति आदि कन्याओं को क्रमशः भृगु, शिव, मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ – इन मुनियों तथा अग्नि और पितरों ने ग्रहण किया || २६ – २७ ||
श्रद्धासे काम, चला (लक्ष्मी) से दर्प, धृति से नियम, तुष्टि से संतोष और पुष्टि से लोभ की उत्पत्ति हुई || २८ || तथा मेधासे श्रुत, क्रियासे दंड, नय और विनय, बुद्धिसे बोध, लज्जासे विनय, वपुसे उसका पुत्र व्यवसाय, शान्ति से क्षेम, सिद्धिसे सुख और कीर्तिसे यशका जन्म हुआ; ये ही धर्म के पुत्र हैं | रतिने कामसे धर्म के पौत्र हर्ष को उत्पन्न किया || २९ – ३१ ||
अधर्म की स्त्री हिंसा थी, उससे अनृत नामक पुत्र और निकृति नामकी कन्या उत्पन्न हुई | उन दोनोंसे भय और नरक नामके पुत्र तथा उनकी पत्नियाँ माया और वेदना नामकी कन्याएँ हुई | उनमें से मायाने समस्त प्राणियों का संहारकर्ता मृत्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया || ३२ – ३३ || वेद्नाने भी रौरव (नरक) के द्वारा अपने पुत्र दुःख को जन्म दिया और मृत्युसे व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा और क्रोध की उत्पत्ति हुई || ३४ || ये सब अधर्मरूप है और ‘दु:खोंत्तर’ नामसे प्रसिद्ध है, [ क्योंकि इनसे परिणाम में दुःख ही प्राप्त होता है ] इनके न कोई स्त्री है और न सन्तान | ये सब ऊर्ध्वरेता हैं || ३५ || हे मुनिकुमार ! ये भगवान विष्णु के बड़े भयंकर रूप है और ये ही संसार के नित्य-प्रलय के कारण होते है || ३६ || हे महाभाग ! दक्ष, मरीचि, अत्रि और भृगु आदि प्रजापतिगण इस जगत के नित्य-सर्ग के कारण है || ३७ || तथा मनु और मनुके पराक्रमी, सन्मार्गपरायण और शूर – वीर पुत्र राजागण इस संसार की नित्य-स्थिति के कारण है || ३८ ||
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– हे ब्रह्मन ! आपने जो नित्य-स्थिति, नित्य-सर्ग और नित्य-प्रलयका उल्लेख किया सो कृपा करके मुझसे इनका स्वरूप वर्णन कीजिये || ३९ ||
श्रीपराशरजी बोले ;– जिनकी गति कहीं नहीं रूकती वे अचिंत्यात्मा सर्वव्यापक भगवान मधुसुदन निरंतर इन मनु आदि रूपों से संसार की उत्पत्ति, स्थिति और नाश करते रहते है || ४० || हे द्विज ! समस्त भूतों का चार प्रकारका प्रलय है – नैमित्तिक, प्राकृतिक, आत्यंतिक और नित्य || ४१ || उनमें से नैमित्तिक प्रलय ही ब्राह्म – पल्य है, जिसमें जगत्पति प्रलय में ब्रह्मांड प्रकृति में लीन हो जाता है || ४२ || ज्ञान के द्वारा योगी का परमात्मा में लीन हो जाना आत्यंतिक प्रलय है और रात – दिन जो भूतों का क्षय होता है वही नित्य – पल्य है || ४३ || प्रकृति से महत्तत्त्वादि क्रम से जो सृष्टि होती है वह प्राकृतिक सृष्टि कहलाती है और अवांतर- प्रलय के अनन्तर जो [ ब्रह्मा के द्वारा ] चराचर जगत की उत्पत्ति होती है वह दैनन्दिनी सृष्टि कही जाती है || ४४ || और हे मुनिश्रेष्ठ ! जिसमें प्रतिदिन प्राणियों की उत्पत्ति होती रहती है उसे पुराणार्थ में कुशल महानुभावों ने नित्य – सृष्टि कहा है || ४५ ||
इसप्रकार समस्त शरीर में स्थित भूतभावन भगवान विष्णु जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करते रहते है || ४६ || हे मैत्रेय ! सृष्टि, स्थिति और विनाशकी इन वैष्णवी शक्तियों का समस्त शरीरों में समान भावसे अहर्निश संचार होता रहता है || ४७ || हे ब्रह्मन ! ये तीनों महती शक्तियाँ त्रिगुणमयी हैं; अत: जो उन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है वह परमपद को ही प्राप्त कर लेता है, फिर जन्म – मरणादि के चक्र में नहीं पड़ता || ४८ ||
"इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे सप्तमोऽध्यायः"
"सम्पूर्ण विष्णु पुराण "
ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
श्री विष्णुपुराण
(प्रथम अंश)
"आठवाँ अध्याय"
"रौद्र – सृष्टि और भगवान तथा लक्ष्मीजी की सर्वव्यापकता का वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे महामुने ! मैंने तुमसे ब्रह्माजी के तामस-सर्ग का वर्णन किया, अब मैं रूद्र – सर्ग का वर्णन करता हूँ, सो सुनो || १ || कल्प के आदि में अपने समान पुत्र उत्पन्न होने के लिये चिन्तन करते हुए ब्रह्माजी की गोद में नीललोहित वर्ण के एक कुमार का प्रादुर्भाव हुआ || २ ||
हे द्विजोत्तम ! जन्म के अनन्तर ही वह जोर – जोर से रोने और इधर – उधर दौड़ने लगा | उसे रोता देख ब्रह्माजी ने उससे पूछा – ‘तू क्यों रोता है ?’ || ३ || उसने कहा – ‘मेरा नाम रखो |’ तब ब्रह्माजी बोले – ‘ हे देव ! तेरा नाम रूद्र है, अब तू मत रो, धैर्य धारण कर |’ ऐसा कहनेपर भी वह सात बार और रोया || ४ || तब भगवान ब्रह्माजी ने उसके सात नाम और रखे; तथा उन आठों के स्थान, स्त्री और पुत्र भी निश्चित किये || ५ || हे द्विज ! प्रजापति ने उसे भव, शर्व, ईशान, पशुपति, भीम, उग्र और महादेव कहकर सम्बोधन किया || ६ || यही उसके नाम रखे और इनके स्थान भी निश्चित किये | सूर्य, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, आकाश, [यज्ञ में ] दीक्षित ब्राह्मण और चंद्रमा – ये क्रमश: उनकी मूर्तियाँ है || ७ || हे द्विजश्रेष्ठ ! रूद्र आदि नामों के साथ उन सूर्य आदि मूर्तियों की क्रमश: सुवर्चला, ऊषा, विकेशी, अपरा, शिवा, स्वाहा, दिशा, दीक्षा और रोहिणी नामकी पत्नियाँ है | हे महाभाग ! अब उनके पुत्रों के नाम सुनो; उन्हीं के पुत्र- पौत्रादिकों से यह सम्पूर्ण जगत परिपूर्ण है || ८ – १० || शनैश्वर, शुक्र, लोहितांग, मनोजव, स्कन्द, सर्ग, सन्तान और बुध – ये क्रमश: उनके पुत्र है || ११|| ऐसे भगवान रूद्र ने प्रजापति दक्ष की अनिंदिता पुत्री सती को अपनी भार्यारूप से ग्रहण किया || १२ || हे द्विजसत्तम ! उस सतीने दक्षपर कुपित होने के कारण अपना शरीर त्याग दिया था | फिर वह मेना के गर्भ से हिमाचल की पत्नी (उमा) हुई | भगवान शंकर ने उस अनन्यपरायणा उमासे फिर भी विवाह किया || १३ -१४ || भृगु के द्वारा ख्याति ने धाता और विधातानामक दो देवताओं को तथा लक्ष्मीजी को जन्म दिया जो भगवान विष्णु की पत्नी हुई || १५ ||
श्रीमैत्रेयजी बोले ;– भगवन ! सुना जाता है कि लक्ष्मीजी तो अमृत – मंथन के समय क्षीर-सागर से उत्पन्न हुई थी, फिर आप ऐसा कैसे कहते है कि वे भृगु के द्वारा ख्याति से उत्पन्न हुई || १६ ||
श्रीपराशरजी बोले ;– हे द्विजोत्तम ! भगवान का कभी संग न छोड़नेवाली जगज्जननी लक्ष्मीजी तो नित्य ही है और जिसप्रकार श्रीविष्णुभगवान सर्वव्यापक है वैसे ही ये भी है || १७ || विष्णु अर्थ है और ये वाणी है, हरि नियम है और ये निति है, भगवान विष्णु बोध है और ये बुद्धि है तथा वे धर्म है और ये सत्क्रिया है || १८ || हे मैत्रेय ! भगवान जगत के स्त्रष्टा है और लक्ष्मीजी सृष्टि है, श्रीहरि भूधर (पर्वत अथवा राजा) है और लक्ष्मीजी भूमि है तथा भगवान संतोष है और लक्ष्मीजी नित्य तुष्टि है || १९ || भगवान काम है और लक्ष्मीजी इच्छा है, वे यज्ञ है और वे दक्षिणा है, श्रीजनार्दन पुरोडाश है और देवी लक्ष्मीजी आज्याहुति (घृत की आहुति ) है || २० || हे मुने ! मधुसुदन यजमानगृह है और लक्ष्मीजी पत्नीशाला है, श्रीहरि युप है और लक्ष्मीजी चिति है तथा भगवान कुशा है और लक्ष्मीजी इध्मा है || २१ || भगवान सामस्वरूप है और श्रीकमलादेवी उद्भिति है, जगत्पति भगवान वासुदेव हुताशन है और लक्ष्मीजी स्वाहा है || २२ || हे द्विजोत्तम ! भगवान विष्णु शंकर है और श्रीलक्ष्मीजी गौरी है तथा हे मैत्रेय ! श्रीकेशव सूर्य है और कमलवासिनी श्रीलक्ष्मीजी उनकी प्रभा है || २३ || श्रीविष्णु पितृगण है और श्रीकमला नित्य पुष्टिदायिनी स्वधा है, विष्णु अति विस्तीर्ण सर्वात्मक अवकाश है और लक्ष्मीजी स्वर्गलोक है || २४ || भगवान श्रीधर चन्द्रमा है और श्रीलक्ष्मीजी उनकी अक्षय कान्ति है, हरि सर्वगामी वायु है और लक्ष्मीजी जगचेष्टा (जगतकी गति) और धृति (आधार) है || २५ || हे महामुने ! श्रीगोविंद समुद्र है और हे द्विज ! लक्ष्मीजी उसकी तरंग है, भगवान मधुसुदन देवराज इंद्र है और लक्ष्मीजी इंद्राणी है || २६ || चक्रपाणि भगवान यम है और श्रीकमला यमपत्नी धुमोर्णा है, देवाधिदेव श्रीविष्णु कुबेर है और श्रीलक्ष्मीजी साक्षात ऋद्धि है || २७ || श्रीकेशव स्वयं वरुण है और महाभागा लक्ष्मीजी गौरी है, हे द्विजराज ! श्रीहरि देवसेनापति स्वामिकार्तिकेय है और श्रीलक्ष्मीजी देवसेना है || २८ || हे द्विजोत्तम ! भगवान गदाधर आश्रय है और लक्ष्मीजी शक्ति है, भगवान निमेष है और लक्ष्मीजी काष्ठा है, वे मुहूर्त है और ये कला है || २९ || सर्वेश्वर सर्वरूप श्रीहरि दीपक है और श्रीलक्ष्मीजी ज्योति है, श्रीविष्णु वृक्षरूप है और जगन्माता श्रीलक्ष्मीजी लता है || ३० || चक्रगदाधरदेव श्रीविष्णु दिन है और लक्ष्मीजी रात्रि है, वरदायक श्रीहरि वर है और पद्मनिवासिनी श्रीलक्ष्मीजी वधु है || ३१ || भगवान नद है और श्रीजी नदी है, कमलनयन भगवान ध्वजा है और कमलालया लक्ष्मीजी पताका है || ३२ || जगदीश्वर परमात्मा नारायण लोभ है और लक्ष्मीजी और गोविन्दरूप ही है || ३३ || अधिक क्या कहा जाय ? संक्षेप में, यह कहना चाहिये कि देव, तिर्यक और मनुष्य आदिमें पुरुषवाची भगवान हरि है और स्त्रीवाची श्रीलक्ष्मीजी, इनके परे और कोई नही है || ३४ -३५ ||
"इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे अष्टमोऽध्यायः"
(नोट :- सभी अंश के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये ।। )
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