शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (चतुर्थ खण्ड) के ग्यारहवें अध्याय से पंद्रहवें अध्याय तक (From the eleventh chapter to the fifteenth chapter of Shiv Purana Sri Rudra Samhita (4th volume))


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【चतुर्थ खण्ड

ग्यारहवाँ अध्याय 

"बाणासुर और दैत्य प्रलंब का वध"

ब्रह्माजी बोले ;– नारद! जब तारकासुर कुमार कार्तिकेय के द्वारा मारा गया तब यह देखकर सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों सहित जन साधारण में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। सभी खुश थे। सभी देवताओं ने मिलकर भक्तिभाव से कार्तिकेय की स्तुति की। तभी क्रौंच नामक एक पर्वत दुखी होकर कार्तिकेय के पास आया। वह क्रौंच बाणासुर नामक दैत्य द्वारा सताया गया था। वह कुमार के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और भक्तिभाव से स्वामी के कार्तिकेय की स्तुति करने लगा। 

तत्पश्चात बोला ;- हे प्रभो! बाणासुर मुझे बहुत कष्ट दे रहा है, आप उससे मेरी रक्षा कीजिए। तब कार्तिकेय ने पर्वतराज क्रौंच की स्तुति से प्रसन्न होकर क्रौंच को सांत्वना दी।

जब पर्वतराज क्रौंच शांत हो गए तब कुमार कार्तिकेय ने उन्हें उनके दुखों और कष्टों से छुटकारा दिलाने हेतु भगवान शिव का स्मरण करके वहीं से अपनी अद्भुत शक्ति का परिचय देते हुए एक अनोखी शक्ति छोड़ी। इस शक्ति का प्रयोग कुमार कार्तिकेय ने उस दुष्ट रा बाणासुर पर किया था। तब वह शक्ति दैत्यराज बाणासुर को भस्म करके शीघ्र ही कार्तिकेय के पास वापिस लौट आई। 

यह शक्ति जब उनके पास वापस पहुंच गई तब वे क्रौंच से बोले ;- हे पर्वतराज क्रौंच! अब आपको बाणासुर नामक दैत्य से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैंने बाणासुर को मारकर तुम्हारी इस परेशानी को सदा-सदा के लिए हल कर दिया है। अतः अब तुम अपने भय को छोड़कर हमेशा के लिए निर्भय हो जाओ। अब तुम प्रसन्नतापूर्वक अपने घर की ओर प्रस्थान करो।

बाणासुर के भय से मुक्ति का समाचार पाकर पर्वतराज क्रौंच बहुत प्रसन्न हुआ और उसने भक्तिभाव से कार्तिकेय की स्तुति की। तत्पश्चात वह उनसे विदा लेकर अपने गृह स्थान की ओर चल दिया। वहां पहुंचकर क्रौंच ने अपने स्वामी कार्तिकेय की प्रसन्नता के लिए भगवान शिव के तीन शिवलिंगों की स्थापना की। प्रतिज्ञेश्वर, कपालेश्वर और कुमारेश्वर नामक ये तीन शिवलिंग विश्व विख्यात हैं और लोगों की आस्था और भक्ति का जीता-जागता उदाहरण हैं । ये शिवलिंग सिद्धिदायक हैं और सोलह महान ज्योर्तिलिंगों में सम्मिलित हैं।

पर्वतराज क्रौंच के अपने स्थान पर वापिस लौट जाने के उपरांत देवताओं के गुरु बृहस्पति ने कुमार कार्तिकेय से कहा कि कुमार ! देवताओं द्वारा आपको शिव-पार्वती की आज्ञा से यहां महाबली तारकासुर का वध करने के लिए लाया गया था। इस अभीष्ट कार्य की पूर्ति हो चुकी है। अतः अब आपको कैलाश पर्वत पर लौट जाना चाहिए। गुरु बृहस्पति की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि तभी प्रलंबासुर नामक दैत्य ने बहुत उपद्रव मचाना शुरू कर दिया और लोगों को कष्ट देना आरंभ कर दिया। तब शेष जी के पुत्र कुमुद दुखी अवस्था में कुमार कार्तिकेय के पास आए। 

वहां आकर कुमुद ने कार्तिकेय की स्तुति की और कहा ;- हे प्रभु! मैं आपकी शरण में आया हूं। हे गिरिजापुत्र! मुझे प्रलंबासुर की प्रताड़ना से मुक्ति दिलाइए।

तब कुमार कार्तिकेय ने प्रसन्नतापूर्वक कुमुद को प्रलंबासुर द्वारा दिए गए कष्टों से मुक्ति दिलाने हेतु अपनी शक्ति द्वारा उसका भी संहार कर दिया। उस प्रलंबासुर को उसके साथियों सहित मरा जानकर उसके शेष पुत्र कुमुद ने कार्तिकेय की बहुत स्तुति की और अपने निवास स्थान पाताल को चला गया।

【श्रीरुद्र संहिता】

【चतुर्थ खण्ड

बारहवाँ अध्याय

"कार्तिकेय का कैलाश-गमन"

ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! इस प्रकार जब कार्तिकेय द्वारा दैत्यराज बाणासुर और प्रलंबासुर को भस्म कर दिया गया तब सभी देवताओं ने सहर्ष कुमार कार्तिकेय का स्तवन किया। 

देवता बोले ;– हे देव! हम राक्षसराज तारक का वध करने वाले आपको नमस्कार करते हैं।

हे शंकर नंदन! हे गिरिजापुत्र! आपने बाणासुर और प्रलंबासुर नामक राक्षसों को मारकर इस त्रिलोक के संकटों को दूर किया है। आपकी भक्ति पवित्र है तथा आपका स्वरूप विघ्नों का नाश कर अभय प्रदान करने वाला है। हम सब स्वच्छ मन से आपकी स्तुति करते हैं। आप हमारी इस स्तुति को स्वीकार करें । कुमार! हम आशा करते हैं कि आप इसी प्रकार सदैव हमारे कष्टों और संकटों को दूर करने में हमारी सहायता करेंगे।

देवताओं द्वारा की गई इस अनन्य स्तुति को सुनकर कुमार कार्तिकेय का हृदय प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने सभी देवताओं को सहर्ष उत्तम वरदान प्रदान किए तथा भविष्य में सदैव सहायता करने का उन्हें वचन दिया। पर्वतों द्वारा की गई स्तुति से प्रसन्न होकर 

कार्तिकेय बोले ;- हे भूधरो! आप सदा से उत्तम और श्रेष्ठ हैं। आज से आप सभी साधु-संतों और तपस्या में लीन रहने वाले साधकों द्वारा पूजनीय होंगे। पर्वतों में श्रेष्ठ मेरे नाना हिमालय इन ज्ञानियों और तपस्वियों के लिए फलदाता सिद्ध होंगे।

श्रीहरि विष्णु बोले ;- हे कुमार! महाबली तारक का वध करके आपने इस चराचर जगत को सुखी कर दिया है। अब आप अपना पुत्र होने का कर्तव्य भी निभाएं। अब आपको अपने माता-पिता भगवान शिव और पार्वती की प्रसन्नता के लिए उनके पास कैलाश पर्वत पर जाना चाहिए।

तत्पश्चात कुमार सभी देवताओं के साथ दिव्य विमान में बैठकर अपने माता-पिता के पास कैलाश पर्वत की ओर चल दिए। वे सब आनंद ध्वनि करते हुए भगवान शिव के पास पहुंचे। विष्णुजी सहित सभी देवताओं ने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को प्रणाम करके उनकी स्तुति की। कुमार कार्तिकेय ने भी अपने माता-पिता को सेवा भाव से प्रणाम किया। भगवान शिव ने प्रसन्नता से अपने पुत्र का मुंह चूम लिया और बहुत स्नेह किया । देवी पार्वती ने कुमार को अपनी गोद में बिठाकर खूब चूमा। यह देखकर सभी देवता आनंद में मगन होकर शिव पार्वती और कार्तिकेय की जय-जयकार करने लगे।

तत्पश्चात सभी देवताओं सहित श्रीहरि विष्णु और मैंने देवाधिदेव शिवजी से जाने की आज्ञा मांगी और अपने-अपने लोक को चले गए। तब भगवान शिव अपनी प्राणप्रिया देवी पार्वती और पुत्र कार्तिकेय के साथ आनंदपूर्वक कैलाश पर निवास करने लगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【चतुर्थ खण्ड

तेरहवाँ अध्याय

"पार्वती द्वारा गणेश की उत्पत्ति"

सूत जी कहते हैं ;- कुमार कार्तिकेय के उत्तम चरित को सुनकर नारद जी बहुत प्रसन्न हुए। और प्रसन्नतापूर्वक ब्रह्माजी से बोले - हे विधाता! आप ज्ञान के अथाह सागर हैं तथा करुणानिधान भगवान शिव के विषय में सबकुछ जानते हैं। आपने शिवपुत्र स्वामी कार्तिकेय के अमृतमय चरित को सुनाकर मुझ पर बड़ी कृपा की है। भगवन्! अब मैं विघ्न विनाशक श्रीगणेश के विषय में जानना चाहता हूं। उनके दिव्य चरित, उनकी उत्पत्ति के विषय में, सबकुछ सविस्तार बताकर मुझे कृतार्थ कीजिए मुनिश्रेष्ठ नारद के ये उत्तम वचन सुनकर !

ब्रह्माजी हर्षपूर्वक बोले ;- नारद! तुम गणेश उत्पत्ति की कथा सुनना चाहते हो। अतएव तुम्हारी प्रसन्नता के लिए मैं तुम्हें उनके जन्म के विषय में बताता हूं। एक बार की बात है। देवी पार्वती की दो सखियां जया और विजया, जो सदा से ही उनके पास रहती थीं, उनके पास आईं 

और बोलीं ;- हे सखी! यहां कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के असंख्य गण हैं। वे सदा भगवान शिव की आज्ञा का प्रसन्नता से पालन करते हैं। वे सदा भगवान शिव की आज्ञा को ही सर्वोपरि मानते हैं। इसलिए आपको भी अपने लिए किसी एक विशेष ऐसे गण की रचना करनी चाहिए, जिसके लिए आपकी ही आज्ञा सर्वोच्च हो और वह किसी अन्य के सामने न झुके। अपनी सखियों की बात यद्यपि पार्वती को एक बार को अच्छी लगी परंतु अगले ही पल वे बोलीं कि भला मुझमें और मेरे पति में क्या भेद है? हम दोनों एक ही हैं और सभी शिवगण मुझमें और सदाशिव में कोई अंतर नहीं समझते। वे हम दोनों की ही आज्ञाओं का सदा पालन करते हैं ।

पार्वती जी के ये वचन सुनकर उनकी सखियां आगे कुछ नहीं बोलीं और वहां से चली गईं। एक दिन की बात है, देवी पार्वती अपने कक्ष में स्नान कर रही थीं। वे नंदी को द्वारपाल बनाकर द्वार पर बैठाकर गई थीं। तभी कक्ष में भगवान शिव का प्रवेश हो गया क्योंकि नंदी अपने आराध्य शिव को अंदर आने से रोक न पाए। देवी पार्वती को उस समय बड़ी लज्जा महसूस हुई। इस घटना के उपरांत पार्वती को अपनी सखियों द्वारा दिए गए सुझाव का स्मरण हुआ।

तब उन्होंने सोचा कि मेरा भी कोई ऐसा सेवक होना चाहिए जो कार्यकुशल हो और मेरी आज्ञा का सदैव पालन करे। अपने कर्तव्य से कभी भी विचलित न हो। ऐसा विचार करके उन्होंने अपने शरीर के मैल से शुभ लक्षणों से युक्त उत्तम बालक की रचना की। वह बालक शोभा संपन्न, महाबली, पराक्रमी और सुंदर था। पार्वती जी ने उसे सुंदर वस्त्र और आभूषणों से विभूषित करके उसे अनेक आशीर्वाद दिए। पार्वती ने कहा कि तुम मेरे पुत्र हो। तुम्हारा नाम गणेश है। पार्वती जी के ये वचन सुनकर 

वह तेजस्वी बालक गणेश बोला ;- हे माता! हे जननी! आज आपने मुझे इस जगत में उत्पन्न किया है। आज से मैं आपका पुत्र हूं। मैं आपको बारंबार नमस्कार करता हूं। मेरे लिए अब क्या कार्य है? बताइए, मैं उसे अवश्य पूरा करूंगा। 

तब देवी पार्वती बोलीं ;- हे पुत्र गणेश! आज से तुम मेरे द्वारपाल बन जाओ। मेरी यह आज्ञा है कि मेरे महल में कोई मेरी अनुमति के बिना प्रविष्ट न हो। कोई कितना भी हठ क्यों न करे, तुम उसे अंदर नहीं आने देना । यह कहकर पार्वती ने एक छड़ी गणेश के हाथ में पकड़ा दी और प्रेमपूर्वक उनका मुख चूमकर अंदर स्नान करने के लिए चली गईं। गणेश सजगता से हाथ में छड़ी लेकर महल के द्वार पर पहरा देने लगे। उसी समय भगवान शिव देवी पार्वती से मिलने की इच्छा लेकर महल में आ गए। जब वे द्वार पर पहुंचे तो गणेश ने उनसे कहा- हे देव! इस समय मेरी माता अंदर स्नान कर रही हैं। अतः आप यहां से चले जाएं तथा बाद में आएं। यह कहकर उन्होंने भगवान शिव के सामने छड़ी अड़ा दी। चूंकि गणेश जी ने भगवान शिव को पहले कभी नहीं देखा था इसलिए उन्हें वे नहीं पहचान सके।

यह देखकर भगवान शिव को क्रोध आ गया और वे बोले-ओ मूर्ख! तू मुझको अंदर जाने से रोक रहा है। तू नहीं जानता कि मैं कौन हूं? मैं शिव हूं। मैं पार्वती का पति हूं और अपने ही घर में जा रहा हूं। यह कहकर जैसे ही भगवान शिव आगे बढ़े, गणेश जी ने उन पर छड़ी से प्रहार कर दिया। यह देखकर भगवान शिव को क्रोध आ गया। उन्होंने अपने गणों को गणेश को वहां से हटाने की आज्ञा दी और स्वयं बाहर खड़े हो गए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【चतुर्थ खण्ड

चौदहवाँ अध्याय

"शिवगणों का गणेश से विवाद"

ब्रह्माजी बोले ;– नारद! शिवगण अपने प्रभु भगवान शिव की आज्ञा पाकर द्वार पर पहुंचे और द्वारपाल बने श्रीगणेश को वहां से हट जाने के लिए कहा। परंतु जब गणेश ने हटने से साफ इनकार कर दिया और शिवगणों को डांटा-फटकारा तो वे भी गणेश से लड़ने लगे और बोले ;– ओ मूर्ख बालक! अगर तू अपने प्राणों की रक्षा करना चाहता है तो अभी और इसी वक्त महल के द्वार को छोड़कर यहां से चला जा अन्यथा दंड पाने के लिए तैयार हो जा।

यह देखकर गणेश को क्रोध आ गया और वे कठोरतापूर्वक शिवगणों से बोले कि तुम इसी समय यहां से दूर चले जाओ वरना मेरे क्रोध को भुगतने के लिए तैयार हो जाओ। गणेश की बातें सुनकर शिवगण हंसने लगे, 

फिर द्वारपाल श्री गणेश को डांटते हुए बोले ;— मूर्ख हम भगवान शिव के गण हैं और उनकी आज्ञा से ही तुम्हें यहां से हटने के लिए कह रहे हैं। अब तक तुम्हें बालक समझकर हम छोड़ रहे थे, परंतु तुम तो बहुत ही हठी बालक हो, जो मानने को बिलकुल भी तैयार नहीं हो। अभी भी कहते हैं कि शीघ्र ही यहां से हट जाओ अन्यथा मार दिए जाओगे। शिवगणों के इन वाक्यों को सुनकर गणेश जी अत्यंत क्रोधित हो गए। उन्होंने शिवगणों को डांटा और धमकाकर वहां से भगा दिया। उनके इस प्रकार डांटने से शिवगण भयभीत होकर वहां से भागकर भगवान शिव के पास वापस आ गए। वहां जाकर उन शिवगणों ने अपने स्वामी भगवान शिव को जाकर सारी बातें बता दीं। यह सुनकर भगवान शिव ने क्रोधित होकर श्री गणेश को द्वार से हटाने का आदेश अपने गणों को दिया।

शिवगण पुनः द्वार पर पहुंचे और गणेश को हटने के लिए कहने लगे परंतु गणेश ने वहां से हटने से साफ इनकार कर दिया। गणेश निर्भय होकर उन गणों से बोले कि मैं पार्वती का पुत्र हूं और तुम भगवान शिव के गण हो। हम दोनों ही अपनी-अपनी जगह अपने-अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं। तुम शिवजी की आज्ञा मानकर मुझे द्वार से हटाना चाहते हो, परंतु मैं अपनी माता की आज्ञा मानते हुए उनकी बिना आज्ञा प्राप्त किए किसी को भी इस द्वार से प्रवेश करने की आज्ञा नहीं दे सकता । अतः मुझसे बार-बार द्वार से हटने के लिए न कहो और जाकर अपने आराध्य स्वामी को इसकी सूचना दे दो। तब शिवगण भगवान शिव के पास गए और उन्हें सब बातों से अवगत करा दिया। भगवान शिव तो महान लीलाधारी हैं। उनकी बातों को समझ पाना अत्यंत कठिन है। यह सुनकर उन्होंने अपने गणों से कहा कि वह छोटा-सा बालक अकेला तुम्हें डरा रहा है और तुम इतनी अधिक संख्या में होकर भी उससे डर रहे हो । जाओ, जाकर उससे युद्ध करो और उसे बंदी बनाकर द्वार के सामने से हटाकर ही मेरे सामने आना।

【श्रीरुद्र संहिता】

【चतुर्थ खण्ड

पंद्रहवाँ अध्याय

"शिवगणों से गणेश का युद्ध"

ब्रह्माजी बोले ;– नारद! जब भगवान शिव ने इस प्रकार अपने गणों को आज्ञा दी कि वे द्वार पर खड़े उस गण को किसी भी प्रकार से हटा दें, तब शिवगण निर्भय होकर पुनः महल के द्वार पर आ खड़े हुए। उन्हें देखकर गणेश जी हंसने लगे और बोले कि तुम फिर से आ गए। तुम्हें मैंने अभी समझाया था कि मैं यहां से हटने वाला नहीं हूं। मेरी माता पार्वती ने मुझे इसीलिए ही उत्पन्न किया है ताकि मैं उनकी हर आज्ञा का पालन कर सकूं। मेरे लिए उनकी आज्ञा ही सर्वश्रेष्ठ है। उनकी अवज्ञा मेरे वश में नहीं है। तुम ऐसे ही बार-बार मुझे परेशान करने के लिए यहां अडा रहे हो।

तब शिवगण बोले ;— अरे मूर्ख! अबकी बार हम तुमसे विनम्रता से कहने नहीं आए हैं क्योंकि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। अब हम तुम्हें तुम्हारी धृष्टता के लिए दंड देने आए हैं। यह कहकर सभी शिवगण, जो कि विभिन्न प्रकार के आयुधों से विभूषित थे, गणेश पर टूट पड़े। गणेश और शिवगणों में बहुत भयानक युद्ध होने लगा परंतु गणेश के साहस और पराक्रम को देखकर सभी शिवगणों के होश उड़ गए। शिवजी का कोई भी गण गणेश को परास्त नहीं कर सका। गणेश ने अकेले ही अनेकों शिवगणों को मार-मारकर घायल कर दिया और वहां से भागने को विवश कर दिया। तत्पश्चात पुनः महल के द्वार पर डटकर खड़े हो गए। तब सब शिवगण घायल अवस्था में शिवजी के पास पहुंचे और उन्हें सारी बातें कह सुनाईं।

हे नारद! तभी मैं और श्रीहरि भी भगवान शिव के दर्शनों के लिए कैलाश पर पहुंचे। वहां हमने भगवान शिव को इस प्रकार चिंतित देखकर उनकी परेशानी का कारण पूछा। 

तब शिवजी ने कहा ;- हे विधाता! हे विष्णो! मेरे महल के द्वार पर एक बालक हाथ में छड़ी लेकर खड़ा है और वह मुझे महल के भीतर नहीं जाने दे रहा है। अतः मैं यहां खड़ा हूं। उसने मेरे गणों को भी मार-पीटकर वहां से भगा दिया है। ब्रह्माजी! आप जाकर उस बालक को समझाएं। तब मैं भगवान शिव की आज्ञा से गणेश को समझाने के लिए गया। मुझे वहां आया देखकर गणेश जी का क्रोध और बढ़ गया और वे मुझे मारने के लिए दौड़े। उन्होंने मेरी दाढ़ी-मूंछें नोच डालीं और मेरे साथ गए गणों को प्रताड़ित करने लगे। यह देखकर मैं वहां से लौट आया।

भगवान शिव को मैंने सारी घटना बता दी। यह सुनकर उन्हें बहुत क्रोध आया। तब शिवजी ने इंद्र सहित सभी देवताओं, भूतों-प्रेतों को गणेश जी को द्वार से हटाने के लिए भेजा परंतु यह सब व्यर्थ हो गया। गणेश ने सबको मार-पीटकर वहां से भगा दिया। उस छोटे से बालक ने देवताओं की विशाल सेना के छक्के छुड़ाकर रख दिए। जब इस बात की सूचना महादेव जी को मिली तो वे बहुत क्रोधित हुए और स्वयं ही गणेश को दंडित करने के लिए चल दिए ।

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