सम्पूर्ण विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश) का नवाँ व दशवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश) का नवाँ व दसवाँ अध्याय}} {The ninth and tenth chapter of the entire Vishnu Purana (fourth part)}

                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)


                                "नवाँ अध्याय"

      "महाराज रजि और उनके पुत्रोंका चरित्र"
श्रीपराशरजी बोले ;- रजिके अतुलित बलपराक्रमशाली पाँच सौ पुत्र थे ॥१॥

एक बार देवासुरसंग्रामके आरम्भके एक - दुसरेकी मारनेकी इच्छावाले देवता और दैत्योंने ब्रह्माजीके पास जाकर पूछा- " भगवान् ! हम दोनोंके पारस्परिक कलहमें कौन - सा पक्ष जीतेगा ?" ॥२-३॥

तब भगवान् ब्रह्माजी बोले ;- "जिस पक्षकी ओरसे राजा रजि शस्त्र धारणकर युद्ध करेगा उसी पक्षकी विजय होगी " ॥४-५॥

तब दैत्योंने जाकर रजिसे अपनी सहायताके लिये प्रार्थना की, इसपर रजि बोले - ॥६॥

"यदि देवताओंको जीतनेपर मैं आपलोगोंका इन्द्र हो सकूँ तो आपके पक्षमें लड़ सकता हूँ ॥७॥

यह सुनकर दैत्योंनें कहा ;- " हमलोग एक बात कहकर उसके विरुद्ध द्सरी तरहका आचरण नहीं करते । हमारे इन्द्र तो प्रह्लादजी हैं और उन्हींके लिये हमारा यह सम्पूर्ण उद्योग है" ऐसा कहकर जब दैत्यगण चले गये तो देवताओंने भी आकर राजासे उसी प्रकार प्रार्थना की और उनसे भी उसने वही इन्द्र होंगे उसकी बात स्वीकार कर ली ॥८॥

अतः रजिने देव सेनाकी सहायता करते हुए अनेक महान् अस्त्रोंसे दैत्योंकी सम्पूर्ण सेना नष्ट कर दी ॥९॥

तदनन्तर शत्रु-पक्षको जीत चुकनेपर देवराज इन्द्रने रजिके दोनों चरणोंको अपने मस्तकपर रखकर कहा - ॥१०॥

"भयसे रक्षा करने और अन्न दान देनेके कारण आप हमारे पिता हैं, आप सम्पूर्ण लोकोंमें सर्वोत्तम हैं क्योंकी मैं त्रिलोकेन्द्र आपका पुत्र हूँ;' ॥११॥

इसपर राजाने हँसकर कहा ;- 'अच्छा, ऐसा ही सही । शत्रुपक्षकी भी नाना प्रकारकी चाटुवाक्ययुक्त अनुनय-विनयका अतिक्रमण करना उचित नहीं होता, ( फिर स्वपक्षके तो बात ही क्या है ) । ' ऐसा कहकर वे अपनी राजधानीको चले गये ॥१२-१३॥

इस प्रकार शतक्रतु ही इन्द्र पदपर स्थित हुआ । पीछे, रजिके स्वर्गवासी होनेपर देवर्षि नारदजीकी प्रेरणासे रजिके पुत्रोंने अपने पिताके पुत्रभावको प्राप्त हुए शतक्रतुसे व्यवहारके अनुसार अपने पिताका राज्य माँगा ॥१४-१५॥

किन्तु जब उसने न दिया, तो उन महाबलवान् रजि-पुत्रोंने इन्द्र्को जीतकर स्वयं ही इन्द्र पदका भोग किया ॥१६॥

फिर बहुत सा समय बीत जानेपर एक दिन बृहस्पतिजीको एकान्तमें बैठे देख त्रिलोकीके यज्ञभागसे वत्र्चित हुए शतक्रतुने उसने कहा - ॥१७॥

क्या ' आप मेरी तृत्पिके लिये एक बेरके बराबर बी पुरोडाशखण्ड मुझे दे सकते हैं ? उनके ऐसा कहनेपर बृहस्पतिजी बोले - ॥१८॥

' यदि ऐसा है, तो पहले ही तुमने मुझसे क्यों नहीं कहा ? तुम्हारे लिये भला मैं क्या नहीं कर सकता ? अच्छा, अब थोड़े ही दिनोंमें मैं तुम्हें अपने पदपर स्थित कर दूँगा ।' ऐसा कह बृहस्पतिजी रजिपुत्रोंकी बुद्धिको मोहित करनेके लिये अभिचार और इन्द्रकी तेजोवृद्धिके लिये हवन करने लगे ॥१९॥

बुद्धिको मोहित करनेवाले उस अभिचार - कर्मसे अभिभृत हो जानेके कारण रजि- पुत्र ब्राह्मण विरोधी , धर्म - त्यागी और वेद - विमुख हो गये ॥२०॥

तब धर्माचारहीन हो जानेसे इन्द्रने उन्हें मार डाला ॥२१॥

और पुरोहितजीके द्वारा तेजोवृद्ध होकर स्वर्गपर अपना अधिकार जमा लिया ॥२२॥

इस प्रकार इन्द्रके अपने पदसे गिरकर उसपर फिर आरुढ़ होनेके इस प्रसंगको सुननेसे पुरुष अपने पदसे पतित नहीं होता और उसमें कभी दुष्ट्‌ता नहीं आती ॥२३॥

( आयुका दुसरा पुत्र ) रम्भ सन्तानहीन हुआ ॥२४॥

क्षत्रवृद्धका पुत्र प्रतिक्षत्र हुआ, प्रतिक्षत्रका सत्र्जय , सत्र्जयका जय, जयका विजय, विजयका कृत, कृतका हर्यधन, हर्यधनका सहदेव, सहदेवका अदिन, अदीनका जयत्सने, जयत्सेनका संस्कृति और संस्कृतिका पुत्र क्षत्रधर्मा हुआ । ये सब क्षत्रवृद्धके वंशज हुए ॥२५-२७॥

अब मैं नहुष वंश का वर्णन करूँगा ॥२८॥

           "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेंऽशे नवमोऽध्यायः"

                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)


                                "दसवाँ अध्याय"


"ययाति का चरित्र"


श्रीपराशरजी बोले ;- नहुषके यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति और कृति नामक छः महाबल - विक्रमशाली पुत्र हुए ॥१॥

यतिने राज्यकी इच्छा नहीं की, इसलिये ययाति ही राजा हुआ ॥२-३॥

ययातिने शुक्राचार्यजीकी पुत्री देवयानी और वृषपर्वाकी कन्या शर्मिष्ठासे विवाह किया था ॥४॥

उनके वंशके सम्बन्धमें यह श्‍लोक प्रसिद्ध हैं ॥५॥

' देवयानीने यदु और तुर्वसुको जन्म दिया तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने द्रुह्यु, अनु और पुरुको उप्तन्न किया' ॥६॥

ययातिको शुक्राचार्यजीको शापसे वृद्धावस्थाने असमय ही घेर लिया था ॥७॥

पीछे शुक्रजीके प्रसन्न होकर कहनेपर उन्होंने अपनी वृद्धावस्थाको ग्रहण करनेके लिये बड़े पुत्र यदुसे कहा - ॥८॥

' वत्स ! तुम्हारे नानाजीके शापसे मुझे असमयमें ही वृद्धवस्थाने घेर लिया है, अब उन्हींको कृपासे मैं उसे तुमको देना चाहता हूँ ॥९॥

मैं अभी विषय भोगोंसे तृप्त नहीं हुआ हूँ, इसलिये एक सहस्त्र वर्षतक मैं तुम्हारी युवावस्थासे उन्हें भोगना चाहता हूँ ॥१०॥

इस विषयमें तुम्हें किसी प्रकारकी आनाकानी नहीं करनी चाहिये । ' कितु पिताके ऐसा कहनेपर भी यदुने वृद्धवस्थाको ग्रहण करना न चाहा ॥११॥

तब पिताने उसे शाप दिया कि तेरी सन्तान राज्य - पदके योग्य न होगी ॥१२॥

फिर राजा ययातिने तुर्वस, द्रुह्यु और अनुसे भी अपना यौवन देकर वृद्धावस्था ग्रहण करनेके लिये कहाः तथा उनमेंसे प्रत्येकके अस्वीकार करनेपर उन्होंने उन सभीको शाप दे दिया ॥१३-१४॥

अन्तमें सबसे छोटे शर्मिष्ठाके पुत्र पुरुसे भी वही बात कही तो उसने अति नम्रता और आदरके साथ पिताको प्रणाम करके उदारतापूर्वक कहा - ' यह तो हमारे ऊपर आपका महान् अनुग्रह है । ' ऐसा कहकर पुरुने अपने पिताकी वृद्धावस्था ग्रहण कर उन्हें अपना यौवन दे दिया ॥१५-१७॥

राजा ययातिने पुरुका यौवन लेकर समयानुसार प्राप्त हुए यथेच्छ विषयोंको अपने उत्साहके अनुसार धर्मपूर्वक भोगा और अपनी प्रजाका भली प्रकार पालन किया ॥१८-१९॥

फिर विश्वाची और देवयानीके साथ विविध भोगोंको भोगते हुए मैं कामनाओंका अन्त कर दूँगा - ऐसे सोचते - सोचते ते प्रतिदिन ( भोगोंके लिये ) उत्कण्ठित रहने लगे ॥२०॥

और निरन्तर भोगते रहनेसे उन कामनाओंको अत्यन्त प्रिय मानने लगे; तदुपरन्त उन्होंने इस प्रकार अपना उद्गार प्रकट किया ॥२१-२२॥

'भोगोकी तृष्णा उनके भोगनसे कभी शान्त नहीं होती, बल्कि घृताहुतिसे अग्निके समान वह बढ़ती ही जाती हैं ॥२३॥

सम्पूर्ण पृथिवीमें जितने भी धान्य, यव सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं वे सब एक मनुष्यके लिये भी सन्तोषजनक नहीं हैं, इसलिये तृष्णाको सर्वथा त्याग देना चाहिये ॥२४॥

जिस समय कोई पुरुष किसी भी प्राणीके लिये पापमयी भावना नहीं करता उस समय उस समदशीकें लिये सभी दिशाएँ सुखमयी हो जाती हैं ॥२५॥

दुर्मतियोंके लिये जो अत्यन्त दुस्त्यज है तथा वृद्धावस्थामें भी जो शिथिल नहीं होती, बुद्धिमान पुरुष उस तृष्णाको त्यागकर सुखसे परिपूर्ण हो जाता है ॥२६॥

अवस्थाके जीर्ण होनेपर केशा और दाँत तो जीर्ण हो जाते हैं किन्तु जीवन और धनकी आशाएँ उसके जीर्ण होनेपर भी नहीं जीर्ण होतीं ॥२७॥

विषयोंमें आसक्त रहते हुए मुझे एक सहस्त्र वर्ष बीत गये, फिर भी नित्य ही उनमें मेरी कामना होती हैं ॥२८॥

अतः अब में इसे छोड़्कर और अपने चित्तको भगवान्‌में ही स्थिरकत निर्द्वन्द्व और निर्मम होकर ( वनमें ) मृगोंके साथ विचरूँगा' ॥२९॥

श्रीपराशरजी बोले ;- तदनन्तर राजा ययातिने पुरुसे अपनी वृद्धावस्था लेकर उसका यौवन दे दिया और उसे राज्य - पदपर अभिषक्त कर वनको चले गये ॥३०॥

उन्होंने दक्षिण पूर्व दिशामें तुर्वसुको पश्चिममें द्गुह्युको, दक्षिणमें यदुको और उत्तरमें अनुको माण्डलिकपदपर नियुक्त कियाः तथा पुरुको सम्पूर्ण भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्तकर स्वयं वनको चले गये ॥३१-३२॥


        "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे दशमोऽध्यायः"

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