सम्पूर्ण विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश) का सातवाँ व आठवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (चतुर्थ अंश) का सातवाँ व आठवाँ अध्याय}} {The seventh and eighth chapters of the entire Vishnu Purana (fourth part)}

                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)


                                "सातवाँ अध्याय"

"जह्नुका गंगापान तथा जगदग्नि और विश्वामित्रकी उत्पत्ति"
श्रीपराशरजी बोले ;- राजा पुरूरवाके परम बुद्धिमान आयु, अमावसु, विश्वावसु, श्रुतायु, शतायु और अयुतायु नामक छः पुत्र हुए ॥१॥

अमावसुके भीम, भीमके कात्र्जन, कात्र्जनके सुहोत्र और सुहोत्रके जह्नु, नामक पुत्र हुआ जिसने अपनी सम्पूर्ण यज्ञशालाको गंगाजलसे आल्पावित देख क्रोधसे रक्तनयन हो भगवान् यज्ञपुरुषको परम समाधिके द्वारा अपनेमें स्थापित कर सम्पूर्ण गंगाजीको पी लिया था ॥२-४॥

तब देवर्षियोंने इन्हें प्रसन्न किया और गंगाजीको इनकी पुत्रीरूपसे पाकर ले गये ॥५-६॥

जह्नुके सुमन्तु नामक पुत्र हुआ ॥७॥

सुमन्तुके अजक, अजकके बलाकाश्व, बलाकाश्वके कुश और कुशके कुशाम्ब, कुशनाभ, अधूर्त्तरजा और वसु नामक चार पुत्र हुए ॥८॥

उनमेंसे कुशाम्बने इस इच्छासे कि मेरे इन्द्रके समान पुत्र हो , तपस्या की ॥९॥

उसके उग्र तपको देखकर ' बलमें कोई अन्य मेरे समान न हो जाये ' इस भयसे इन्द्र स्वयं ही इनका पुत्र हो गया ॥१०॥

वह गाधि नामक पुत्र कौशिक कहलाया ॥११॥

गाधिने सत्यवती नामकी कन्याको जन्म दिया ॥१२॥

उसे भृगुपुत्र ॠचीकने वरण किया ॥१३॥

गाधिने अति क्रोधी और अति वृद्ध ब्राह्मणको कन्या न देनेकी इच्छासे ऋचीकसे कन्याके मूल्यमें जो चन्द्रमाके समान कान्तिमान् और पवनके तुल्य वेगवान् हों, ऐसे एक सहस्त्र श्यामकर्ण घोड़े माँगे ॥१४॥

किन्तु महर्षि ऋचीकने अश्वतीर्थसे उप्तन्न हुए वैसे एक सहस्त्र घोड़े उन्हें वरुणसे लेकर दे दिये ॥१५॥

तब ऋचीकने उस कन्यासे विवाह किया ॥१६॥

( तदुपरान्त एक समय ) उन्होंने सन्तानकी कामनासे सत्यवतीके लिये चरु ( यज्ञीय खीर ) तैयार किया ॥१७॥

और उसीके द्वारा प्रसन्न किये जानेपर एक क्षत्रियश्रेष्ठ पुत्रकी उप्तत्तिके लिये एक और चरु उसकी माताके लिये भी बनाया ॥१८॥

और ' यह चरु तुम्हारे लिये है तथा यह तुम्हारी माताके लिये - इनका तुम यथोचित उपयोग करना - ' ऐसा कहकर वे वनको चले गये ॥१९॥

उनका उपयोग करते समय सत्यवतीकी माताने उससे कहा - ॥२०॥

" बेटी ! सभी लोग अपने ही लिये सबसे अधिक गुणवान् पुत्र चाहते हैं, अपनी पत्नीके भाईके गुणोंमें किसीकी भी विशेष रुचि नहीं होती ॥२१॥

अतः तु अपना चरु तो मुझे दे दे और मेरा तू ले ले; क्योंकी मेरे पुत्रको तो सम्पुर्ण भूमण्डलका पालन करना होगा और ब्राह्मणकुमारको तो बल, वीर्य तथा सम्पत्ति आदिसे लेना ही क्या है । " ऐसा कहनेपर सत्यवतीने अपना चरु अपनी माताको दे दिया ॥२२-२३॥

वनसे लौटनेपर ऋषिने सत्यवतीको देखकर कहा - " अरी पापिनि ! तुने ऐसा क्या अकार्य किया है जिससे तेरा शरीर ऐसा भयानक प्रतीत होता है ॥२४-२५॥

अवश्य ही तुने अपनी माताके लिये तैयार किये चरुका उपयोग किया है, सो ठीक नहीं है ॥२६॥

मैनें उसमें सम्पूर्ण ऐश्वर्य, पराक्रम, शूरता और बलकी सम्पत्तिका आरोपण किया था तथा तेरेमें शान्ति, ज्ञान तितिक्षा आदि सम्पूर्ण ब्राह्मणोचित गुणोंका समावेश किया था ॥२७॥

उनका विपरित उपयोग करनेसे तेरे अति भयानक अस्त्र- शस्त्रधारी पालन - कर्ममें तत्पर क्षत्रियके समान आचरणवाला पुत्र होगा और उसके शान्तिप्रिय ब्राह्मणाचारयुक्त पुत्र होगा ।" यह सुनते ही सत्यवतीने उनके चरण पकड़ लिये और प्रमाण करके कहा - ॥२८-२९॥

" भगवान ! अज्ञानसे ही मैंने ऐसा किया है, अतः प्रसन्न होइये और ऐसा कीजिये जिससे मेरा पुत्र ऐसा न हो, भले ही पौत्र ऐसा हो जाय !" इसपर मुनिने कहा - ' ऐसा ही हो ।' ।३०-३१॥

तदनन्तर उसने जमदग्निको जन्म दिया और उसकी माताने विश्वामित्रको उत्पन्न किया तथा सत्यवती कौशिकी नामकी नदी हो गयी ॥३२-३४॥

जमदग्निने इक्ष्वाकुकुलोद्भव रेणुकी कन्या रेणुकासे विवाह किया ॥३५॥

उससे जमदग्निके सम्पूर्ण क्षत्रियोंका ध्वंस कारनेवाले भगवान् परशुरामजी उप्तन्न हुए जो सकल लोक- गुरु भगवान् नारायणके अंश थे ॥३६॥

देवताओंने विश्वामित्रजीको भृगुवंशीयं शुनःशेप पुत्ररूपसे दिया था । उसके पीछे उनके देवरात नामक एक पुत्र हुआ और फिर मधुच्छन्द, धनत्र्जय, कृतदेव, अष्टक, कच्छप एवं हारीतक नामक और भी पुत्र हुए ॥३७-३८॥

उनसे अन्यान्य ऋषिवंशोमें विवाहने योग्य बहुत- से कौशिकगोत्रीय पुत्र - पौत्रादि हुए ॥३९॥

          "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थें‍ऽशे सप्तमोऽध्यायः"

                            "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।
                                  श्री विष्णुपुराण
                                   (चतुर्थ अंश)


                                "आठवाँ अध्याय"

"काश्यवंशका वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;- आयु नामक जो पुरुरवाका ज्येष्ठ पुत्र था उसने राहुकी कन्यासे विवाह किया ॥१॥
उससे उसके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः नहुष, क्षत्रवृद्ध, रभ्म, रजि और अनेना थे ॥२-३॥
क्षत्रवृद्धके सुहोत्र नामक पुत्र हुआ और सुहोत्रके काश्य, काश तथा गृत्समय नामक तीन पुत्र हुए । गृत्समदका पुत्र शौनक चातुर्वर्ण्यका प्रवर्तक हुआ ॥४-६॥
काश्यका पुत्र काशिराज काशेय हुआ । उसके राष्ट्र, राष्ट्रके दीर्घतपा और दीर्घतपाके धन्वन्तरि नामक पुत्र हुआ ॥७-८॥
इस धन्वन्तरिके शरीर और इन्द्रियाँ जरा आदि विकारोंसे रहित थीं - तथा सभी जन्मोंमें यह सम्पूर्णं शास्त्रोंका जाननेवाले था । पूवजन्ममें भगवान् नारायणने उसे यह वर दिया था कि ' काशिराज के वंशमें उप्तन्न होकर तुम सम्पूर्ण आयुर्वेदको आठ भागोंमें विभक्त करोगे और यज्ञ - भागके भोक्ता होगे' ॥९-१०॥
धन्वन्तरिका पुत्र केतुमान् , केतुमानका भीमरथ, भीमरथका दिवोदास तथा दिवोदसका पुत्र प्रतर्दन हुआ ॥११॥ उसने मद्रश्रेण्यवंशका नाश करके समस्त शत्रुओंपर विजय प्राप्त की थी, इसलिये उसका नाम ' शत्रुजित' हुआ ॥१२॥

दिवोदासने अपने इस पुत्र ( प्रतर्दन ) से अत्यन्त प्रेमवश 'वत्स, वत्स' कहा था, इसलिये इसका नाम 'वत्स' हुआ ॥१३॥

अत्यन्त सत्यपरायण होनेके कारण इसका नाम ऋतध्वज' हुआ ॥१४॥

तदनन्तर इसने कुवलय नामक अपूवं अश्व प्राप्त किया । इसलिये यह इस पृथिवीतलपर 'कुवलयाश्च' नामसे विख्यात हुआ ॥१५॥

इस वत्सके अलर्क नामक पुत्र हुआ जिसके विषयमें यह श्‍लोक आजतक गाया जाता है ॥१६॥

' पूर्वकालमें अलर्कके अतिरिक्त और किसीने भी छाछठ सहस्त्र वर्षतक युवावस्थामें रहकर पृथिवीका भोग नहीं किया' ॥१७॥

उस अलर्कके भी सन्नति नामक पुत्र हुआ; सन्नतिके सुनीथ, सुनीथके सुकेतु, सुकेतुके धर्मकेतु, धर्मकेतुके, सत्यकेतु, सत्यकेतुके विभु, विभुके सुविभु, सुविभुके सुकुमार,सुकुमारके धृष्टकेतु, धृष्टकेतुके वीतिहोत्र, वीतिहोत्रके भार्ग और भार्गके भार्गभूमि नामक पुत्र हुआ, भार्गभूमिसे चातुर्वर्ण्यका प्रचार हुआ । इस प्रकार काश्यवंशके राजाओंका वर्णन हो चुका अब रजिकी सन्तानका विवरण सुनो ॥१८-२१॥

          "इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे अष्टमोऽध्यायः"

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