संक्षिप्त गरुड़ पुराण – सोलहवाँ अध्याय (succinct Garuda Purana - Sixteenth Chapter)
"मनुष्य शरीर प्राप्त करने की महिमा, धर्माचरण ही मुख्य कर्तव्य, शरीर और संसार की दु:खरूपता तथा नश्वरता, मोक्ष-धर्म-निरूपण"
गरुड़ जी ने कहा – हे दयासिन्धो ;- अज्ञान के कारण जीव जन्म-मरणरूपी संसार चक्र में पड़ता है, यह मैंने सुना। अब मैं मोक्ष के सनातन उपाय को सुनना चाहता हूँ। हे भगवन ! हे देवदेवेश ! हे शरणागतवत्सल ! सभी प्रकार के दु:खों से मलिन तथा साररहित इस भयावह संसार में अनेक प्रकार के शरीर धारण करके अनन्त जीवराशियाँ उत्पन्न होती हैं और मरती हैं, उनका कोई अन्त नहीं है। ये सभी सदा दु:ख से पीड़ित रहते हैं, इन्हें कहीं सुख नहीं प्राप्त होता। हे मोक्षेश ! हे प्रभो ! किस उपाय के करने से इन्हें इस संसृति-चक्र से मुक्ति प्राप्त हो सकती है, इसे आप मुझे बताएँ।
श्रीभगवान ने कहा – हे तार्क्ष्य ;- तुम इस विषय में मुझसे जो पूछते हो, मैं बतलाता हूँ ! सुनो – जिसके सुनने मात्र से मनुष्य संसार से मुक्त हो जाता है। वह परब्रह्म परमात्मा निष्कल (कलारहित) परब्रह्मस्वरूप, शिवस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, निर्मल तथा अद्वय (द्वैतभावरहित) है। वह (परमात्मा) स्वत: प्रकाश है, अनादि, अनन्त, निर्विकार, परात्पर, निर्गुण और सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है। यह जीव उसी का अंश है। जैसे अग्नि से बहुत से स्फुलिंग अर्थात चिंगारियाँ निकलती हैं उसी प्रकार अनादिकालीन अविद्या से युक्त होने के कारण अनादि काल से किये जाने वाले कर्मों के परिणामस्वरुप देहादि उपाधि को धारण करके जीव भगवान से पृथक हो गए हैं। वे जीव प्रत्येक जन्म में पुण्य और पापरूप सुख-दु:ख प्रदान करने वाले कर्मों से नियंत्रित होकर तत्तत् जाति के योग से देह(शरीर), आयु और कर्मानुरोधी भोग प्राप्त करते हैं।
हे खग ;- इसके पश्चात भी पुन: वे अत्यन्त सूक्ष्म लिंग शरीर प्राप्त करते हैं और यह क्रम मोक्षपर्यन्त स्थित रहता है। ये जीव कभी स्थावर (वृक्ष-लतादि जड़) योनियों में, पुन: कृमियोनियों में तदनन्तर जलचर, पक्षी और पशुयोनियों को प्राप्त करते हुए मनुष्ययोनि प्राप्त करते हैं फिर धार्मिक मनुष्य के रूप में और पुन: देवता तथा देवयोनि के पश्चात क्रमश: मोक्ष प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं। उद्भिज्ज, स्वेदज और पिण्डज (जरायुज) – इन चार प्रकार के शरीरों को सहस्त्रों बार धारण करके उनसे मुक्त होकर सुकृतवश (पुण्यप्रभाव से) जीव मनुष्य-शरीर प्राप्त करता है और यदि वह ज्ञानी हो जाए तो मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
जीवों की चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य किसी भी योनि में तत्वज्ञान प्राप्त नहीं होता। पूर्वोक्त विभिन्न योनियों में हजारों-हजार करोड़ों बार जन्म लेने के अनन्तर उपार्जित पुण्यपुंज के कारण कदाचित मनुष्य-योनि प्राप्त होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिए सोपानभूत यह दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त करके इस संसृति चक्र से जो अपने को मुक्त नहीं कर लेता, उससे अधिक पापी और कौन होगा !
उत्तम मनुष्य शरीर में जन्म प्राप्त करके और समस्त सौष्ठव संपन्न अविकल इन्द्रियों को प्राप्त करके भी जो व्यक्ति अपने हित को नहीं जानता वह ब्रह्मघातक होता है। शरीर के बिना कोई भी जीव पुरुषार्थ नहीं कर सकता इसलिए शरीर और धन की रक्षा करता हुआ इन दोनों से पुण्योपार्जन करना चाहिए। मनुष्य को सर्वदा अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि शरीर सभी पुरुषार्थों का एकमात्र साधन है इसलिए उसकी रक्षा का उपाय करना चाहिए। जीवन धारण करने पर ही व्यक्ति अपने कल्याण को देख सकता है।
गाँव, क्षेत्र, धन, घर और शुभाशुभ कर्म पुन:-पुन: प्राप्त हो सकते हैं किंतु मनुष्य शरीर पुन:-पुन: प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति सदा शरीर की रक्षा का उपाय करते हैं। कुष्ठ आदि रोगी भी अपने शरीर को त्यागने की इच्छा नहीं करते। शरीर की रक्षा धर्माचरण के उद्देश्य से और धर्माचरण ज्ञानप्राप्ति के उद्देश्य से ज्ञान, ध्यान एवं योग की सिद्धि के लिए और फिर ध्यानयोग से मनुष्य अविलम्ब मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
यदि मनुष्य स्वयं ही अपने आत्मा का अहित से निवारण नहीं कर लेता तो आत्मा का दूसरा कौन हितैषी होगा जो आत्मा को तारेगा। जो जीव मनुष्य के शरीर में रहकर इसी जन्म में नरकरूपी व्याधि की चिकित्सा नहीं कर लेता, वह परलोक में जाने पर जहाँ औषध नहीं प्राप्त है, नरक व्याधि से पीड़ित होने पर फिर क्या कर सकेगा? वृद्धावस्था बाघिन के समान सामने खड़ी है, फूटे हुए घड़े के गिरने वाले जल की भाँति प्रतिक्षण आयु समाप्त होती जा रही है, रोग शत्रु की भाँति प्रहार कर रहे हैं, अत: श्रेय:प्राप्ति के लिए जीव को अभ्यास करना चाहिए।
जब तक दु:ख प्राप्त नहीं होता, जब तक आपत्तियाँ घेर नहीं लेती और जब तक इन्द्रियों में वैकल्य (शिथिलता) नहीं आ जाता, तब तक श्रेय:प्राप्ति के लिए जीव को प्रयास करते रहना चाहिए। जब तक यह शरीर है तभी तक तत्त्वज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। भवन में आग लग जाने पर कौन ऎसा दुर्बुद्धि मनुष्य है जो कुँआ खोदना प्रारंभ करता है। बहुविध सांसारिक कार्यप्रपंचों में व्यस्त रहने के कारण काल का ज्ञान नहीं होता। यह क्लेश की बात है कि मनुष्य अपने सुख-दु:ख और हित की बात को नहीं समझता।
संसार में जीवों को उत्पन्न होते हुए, रोगादि से दु:खी होते हुए, मृत्यु प्राप्त करते हुए और आपत्तिग्रस्त तथा दु:खी देखकर भी सांसारिक मनुष्य मोहरूपी मदिरा को पीकर कभी बी भयभीत नहीं होता। भौतिक सम्पत्ति स्वप्न के समान नश्वर-क्षणभंगुर है, यौवन भी पुष्प के समान मुरझा जाने वाला है, आयु बादलों में चमकने वाली बिजली के समान चंचल है – यह सब जानते हुए भी मनुष्य को कैसे धैर्य हो सकता है।
एक तो मनुष्य की सौ वर्ष की आयु ही बहुत थोड़ी है, उसमें भी निद्रा और आलस्य के वशीभूत होकर उसका आधा भाग बीत जाता है और जो शेष है वह भी बाल्यावस्था, रोग और जरा में होने वाले दु:ख से चला जाता है और जो थोड़ा बचा, वह भी निष्फल ही बीत जाता है। प्रारंभ करने वाले कार्य के विषय में जो उद्योग नहीं करता और जहाँ ब्रह्मचिन्तन आदि में जागरुक रहना चाहिए वहाँ वह सोता रहता है। इसके विपरीत जहाँ सदा-सदा भय विद्यमान है (उस संसार में), वहाँ वह विश्वस्त है, ऎसा जो मनुष्य है, वह अभागा क्यों नहीं मारा जाएगा। जल में उठने वाले फेन के समान अतीव क्षणभंगुर देह को प्राप्त करके जीवात्मा उसमें स्थित रहता है।
यह शरीर ही उसको प्रियसंवास के रूप में प्रतीत होता है किंतु इस अनित्य शरीर में जीवात्मा निर्भय होकर कैसे रह सकता है? जो अहित करने वाले विषय भोगों में ही हितबुद्धि रखता है तथा अनिश्चित (पुत्र-कलत्र-देह-गेहादि) को स्थाई समझता है और भौतिक धन-संपत्ति आदि अनर्थकारी वस्तुओं में जो अर्थबुद्धि रखता है, वह अपने परमार्थ को नहीं जानता।
जो “यह जगत किसी का नहीं हुआ” – ऎसा देखते हुए भी गिर रहा है और आत्मज्ञानविषयक वचनों को सुनते हुए भी जिसे बोध नहीं होता, पढ़ करके भी उसका अर्थ नहीं समझता – ऎसा इसलिए होता है कि जीव भगवान की माया से मोहित है। मृत्यु, रोग और जगरूपी ग्राहों के द्वारा गंभीर कालसागर में डूबते हुए इस जगत को कोई भी नहीं जान पाता। प्रतिक्षण क्षीण होते हुए भी इस काल की सूक्ष्म गति को जीव वैसे ही नहीं जान पाता जैसे कच्चे घड़े में स्थित जल के विगलित होने का ज्ञान नहीं हो पाता। कदाचित वायु का बाँधना संभव हो सकता है, आकाश को खण्ड-खण्ड करने की तरंगों के गुम्फन की कल्पना भी संभव हो सकती है परंतु आयु के शाश्वत होने की आस्था कथमपि संभव नहीं हो सकती।
जिस काल के द्वारा जल जाती है, मेरु पर्वत भी चूर-चूर हो जाता है, सागर का जल भी सूख जाता है, उस काल से मनुष्य-शरीर की रक्षा की क्या कथा? मेरा पुत्र, मेरी पत्नी, मेरा धन, मेरे बान्धव – इस प्रकार मैं-मैं कहते हुए मनुष्य रूपी बकरे को हठपूर्वक कालरूपी भेड़िया मार डालता है। यह मैंने कर लिया, यह करना शेष है, यह दूसरा कार्य भी अभी कुछ करना बाकी है – इस प्रकार की इच्छा से युक्त मनुष्य को यमराज अपने वश में कर लेते हैं।
कल किए जाने वाले कार्य को आज, अपराह्ण में किए जाने वाले कार्य को पूर्वाह्ण में ही कर लेना चाहिए क्योंकि मनुष्य ने अपना कार्य कर लिया है अथवा नहीं – इसकी प्रतीक्षा मृत्यु नहीं करती। वृद्धावस्था जिसको रास्ता दिखाने वाली है, अत्युग्र रोग ही जिसके सैनिक है, ऎसे म्रत्युरूपी शत्रु के तुम सम्मुख स्थित हो फिर उस प्रबल शत्रु से रक्षा करने वाले परमात्मा की ओर क्यों नहीं देखते अर्थात उनकी ओर उन्मुख क्यों नहीं होते?
तृष्णारूपी शूल में बिंधे हुए और विषयवासनारूपी घीसे सींचे हुए तथा राग-द्वेषरूपी अग्नि में पके हुए मनुष्य को मृत्यु खा जाती है। यह जगत ऎसा है कि इसमें मृत्यु बालकों, युवकों, वृद्धों और गर्भस्थ जीवों – सभी को ग्रस लेती है। जब जीव अपनी देह को भी यहीं छोड़कर यमलोक को चला जाता है तो फिर स्त्री-माता-पिता और पुत्रादि से किस प्रयोजन से संबंध स्थापित किया जाए।
यह संसार दु:ख का मूल कारण है इसलिए इस संसार से जिसका संबंध है, वही दु:खी है और जिसने इस जगत का त्याग किया, वही मनुष्य सुखी है। दूसरा कोई भी, कहीं भी सुखी नहीं है। यह संसार सभी प्रकार के दु:खों का उत्पत्ति स्थान है, सभी आपत्तियों का घर है और सभी पापों का आश्रय-स्थान है इसलिए ऎसे संसार को क्षणमात्र में त्याग देना चाहिए। लौह एवं लकड़ी के पाशों से बँधा हुआ मनुष्य मुक्त हो सकता है किंतु पुत्र और पत्नीरुपी पाशों से बँधा हुआ मनुष्य कभी भी मुक्त नहीं हो सकता।
मनुष्य अपने मन को प्रिय लगने वाले इस जगत में जितने पदार्थों से संबंध बनाता जाता है, उतनी ही अधिक शोक की कीले उसके ह्रदय में गड़ती जाती हैं। यह बड़े खेद की बात है कि मनुष्य की देह में स्थित शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध, विषयों का आहार करने वाले इन्द्रियरूपी चोरों ने इस लोक के समस्त धन को अपहृत करके इसे नष्ट कर दिया है अर्थात परलोक के लिए हितकारी धर्मरूपी जो धन है, उसका इन्द्रियों ने हरण कर लिया है। माँसलोभी मत्स्य जैसे बंसी में लगे हुए लोहे के अंकुश को नहीं जान पाता, उसी प्रकार विषयों से प्राप्त होने वाले सुख के लोभ से जीव यमयातना की परवाह नहीं करता।
हे गरुड़ ;- जो अपने हित औत अहित को नहीं जानते, सदा कुमार्ग पर चलने वाले हैं और मात्र पेट भरने में ही जिनका सारा अध्यवसाय रहता है, वे मनुष्य नरकगामी हैं। निद्रा, मैथुन और आहार आदि की स्वाभाविक प्रवृति सभी प्राणियों में समान रूप से विद्यमान रहती है। उनमें जो वास्तविक हित-अहित को जानने वाला ज्ञानवान है, वह मनुष्य कहा जाता है और उस ज्ञान से जो शून्य है, वह पशु कहलाता है।
मूर्ख मनुष्य प्रात:काल मल-मूत्रों के वेग से, मध्य दिन में क्षुधा और तृषा से तथा रात्रि में काम क्रीड़ा और निद्रा से बाधित रहते हैं।
हाय ! यह खेद की बात है कि अज्ञान से मोहित होकर सभी जीव अपनी देह, धन, पत्नी आदि में आसक्त होकर बार-बार पैदा होते हैं और मर जाते हैं इसलिए सदा आसक्ति का त्याग कर देना चाहिए और यदि उसका सर्वथा त्याग न हो सके तो महापुरुषों के साथ संबंध बनाना चाहिए क्योंकि संत पुरुष संसारासक्तिरूपी रोग के भेषज हैं।
सत्संग और विवेक – ये दोनों ही व्यक्ति के दो निर्मल नेत्र हैं। जिस व्यक्ति के पास ये नहीं है, वह अंधा है, अंधा मनुष्य कुमार्गगामी क्यों नहीं होगा? अपने-अपने वर्ण और आश्रम के लिए शास्त्रबोधित आचारों का पालन करने में संलग्न रहने वाले सभी मनुष्य यदि परम धर्म को नहीं जानते तो वे दम्भाचारी व्यर्थ में नष्ट हो जाते हैं।
कुछ लोग अनेक प्रकार की क्रियाओं को करने का प्रयत्न करते हैं और कुछ अन्य व्रत, उपवास आदि में संलग्न रहते हैं, अज्ञान से आवृत आत्मा वाले कुछ लोग ढ़ोंगी बनकर विचरण करते हैं। कर्मकाण्ड में आस्था रखने वाले मनुष्य शास्त्रबोधित नाममात्र की फलश्रुतियों से संतुष्ट हो करके मन्त्रोच्चारण ओर होमादि कृत्यों से तथा यज्ञ से विस्तृत विधानों से भ्रान्त रहते हैं, उन्हीं में उलझे रहते हैं। मेरी माया से विमोहित होकर शरीर को सुखाने वाले मूर्ख लोग एकभुक्त, उपवास आदि व्रतों का आचरण करके परोक्ष (परमगति) को प्राप्त करना चाहते हैं। शरीर को दण्ड देने मात्र से क्या अविवेकी पुरुषों को मुक्ति प्राप्त हो सकती है? वल्मीक (साँप की बाँबी) को ताड़न करने मात्र से क्या कहीं भी महासर्प की मृत्यु होती है? बड़ी लंबी जटाओं के भार को ढोने वाले और मृगचर्म आदि से युक्त दाम्भिक पुरुष वेष धारण करके ज्ञानी की भाँति ही लोक में भ्रमण करते हैं और लोगों को भी भ्रमित करते हैं।
सांसारिक सुख में आसक्त जो व्यक्ति “मैं ब्रह्मज्ञानी हूँ” ऎसा कहता है वह कर्ममार्ग तथा ब्रह्मज्ञानमार्ग – दोनों मार्गों से भ्रष्ट हो जाता है, उसे चाण्डाल की भाँति छोड़ देना चाहिए। संसार में, घर में और अरण्य में लज्जा त्यागकर समान रुप से नग्न होकर गर्दभ आदि पशु भी विचरण करते हैं तो क्या इस आचरण से वे संसार से विरक्त हो जाते हैं? यदि मिट्टी और भस्म के धारण करने मात्र से मनुष्य मुक्त हो जाए तो मिट्टी और भस्म में शयन करने वाला वह कुत्ता भी क्या मुक्ति प्राप्त कर लेगा? घास-पात और जल का आहार करने वाले तथा निरन्तर जंगल में निवास करने वाले श्रृंगाल, चूहे तथा मृग आदि पशु भी क्या तपस्वी – योगी हो जाते हैं अर्थात अन्न छोड़ देने, ग्राम या नगर में निवास छोड़कर वन में रहने मात्र से कोई सन्यासी नहीं हो जाता। मण्डूक अर्थात मेढ़क और मत्स्य आदि जलचर जीव जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त गंगा आदि नदियों में निवास करते हैं तो क्या वे योगी हो जाते हैं?
कबूतर शिलवृत्ति (कंकड़) का आहार करने वाले हैं तथा चातक कभी भी भूमि पर स्थित जल को नहीं पीते तो क्या इससे वे व्रती हो जाते हैं?
इसलिए हे खगेश्वर ;- पूर्वोक्त संपूर्ण कर्मानुष्ठान केवल लोकरंजनमात्र के लिए हैं। मोक्ष का अकरण तो साक्षात तत्त्वज्ञान ही है।
हे खग ;- षड्दर्शनरूपी महाकूप में पड़े हुए मनुष्यरूपी पशु परमार्थ को नहीं जानते हैं क्योंकि वे पशुपाश से नियंत्रित रहते हैं। वेद और शास्त्ररूपी घोर समुद्र में इधर-उधर ले जाए जाते हुए कुतार्किक व्यक्ति षडूर्मियों (क्षुधा-पिपासा, शोक-मोह और जन्म-मृत्यु को “षडूर्मि” कहा जाता है) से ग्रस्त होकर स्थित रहते हैं।
वेद-शास्त्र और पुराणों को जानने वाला भी जो मनुष्य परमार्थ को नहीं जानता, विडंबनाग्रस्त उसका पूर्वोक्त संपूर्ण ज्ञान कौए के काँव-काँव करने जैसा है। परम तत्व से पराड्मुख जीव यह ज्ञान है, यह ज्ञेय है, इसी चिन्ता से व्याकुल होकर रात-दिन शास्त्रों का अध्ययन करते हैं\ काव्योचित अलंकारों से सुशोभित गद्य वाक्य-रचना या छन्दोबद्ध कविता की रचान करने पर भी विषयोपभोग के प्रति लालायित इन्द्रियों वाले तत्त्वज्ञानरहित मूढ व्यक्ति नाना चिन्ताओं के कारण दु:खी रहते हैं। परम तत्व की प्राप्ति तो अन्य प्रकार से होती है, किंतु लोग अन्य प्रकार के उपाय करके क्लेश प्राप्त करते हैं। शास्त्र का भाव तो कुछ और होता है परंतु वे उसकी व्याख्या कुछ दूसरे प्रकार से करते हैं। कुछ अहंकारी व्यक्ति गुरूपदेश आदि को प्राप्त न करके भी उन्मनीभाव के विषय में कहते हैं, पर वे स्वयं उसका अनुभव नहीं करते।
बहुत से लोग वेद और शास्त्र का अध्ययन तो करते हैं और परस्पर एक-दूसरे को बोध भी कराते हैं, तात्पर्य समझाते हैं, पर वे परम तत्त्वों के विषय में उसी प्रकार कुछ नहीं जानते जिस प्रकार कलछी पाकरस को नहीं जानती। पुष्प को धारण तो सिर करता है किंतु उस पुष्प की गन्ध को नासिका ही जानती है, ठीक इसी प्रकार वेद और शास्त्र का अध्ययन में उसी प्रकार भटकता फिरता रह जाता है, जैसे कोई मूर्ख ग्वाला अपनी कोख में बकरे को पकड़े रखने पर भी उसको खोजने के लिए कुएँ में देखता है। संसार के मोह का नाश करने के लिए शास्त्र के शब्दों के अअर्थ को जानना मात्र पर्याप्त नहीं है। दीपक की बात से कभी अंधकार की निवृत्ति नहीं हो सकती। बुद्धिहीन मनुष्य का पढ़ना अंधे व्यक्ति के दर्पण देखने के समान व्यर्थ है। अत: बुद्धिमान व्यक्ति को ही शास्त्रीय तत्त्वज्ञान का लक्षण हो सकता है अर्थात बुद्धिमान को ही तत्त्वज्ञान लक्षित हो सकता है।
जो यह ज्ञान यहाँ है, इसे जानना चाहिए – इस प्रकार बुद्धि करके शास्त्र में प्रतिपाद्य सब कुछ सुनना चाहता है, वह हजार दिव्य वर्षों की आयु प्राप्त करके भी शास्त्रों का अन्त पप्राप्त नहीं कर सकता। अनेक शास्त्र हैं, आयु अत्यल्प है, जिसमें करोड़ों विघ्न हैं इसलिए जैसे हंस जल के मध्य से दूध को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति को भी शास्त्र के सारतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। वेदशास्त्रों का अभ्यास कर वहाँ से तत्त्वज्ञान प्राप्त करके बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि जैसे धान चाहने वाला व्यक्ति धान ग्रहण करके पलाल अर्थात पुआल को छोड़ देता हैम उसी तरह उसे भी अन्य सभी शास्त्रों को छोड़ देना चाहिए।
जैसे अमृत से तृप्त व्यक्ति के लिए भोजन की कोई आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार हे तार्क्ष्य ! तत्त्वज्ञ को शास्त्र से कोई प्रयोजन नहीं होता।
हे विनतात्मज ;- न वेदाध्ययन से मुक्ति प्राप्त होती है और न शास्त्रों के अध्ययन से ही। मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान से ही होती है, किसी दूसरे उपाय से नहीं।
जिस प्रकार मुक्ति के लिए न तो आश्रम धर्म का अनुष्ठान कारण है, न दर्शनों का अध्ययन कारण है, उसी प्रकार श्रौत-स्मार्त कर्म भी कारण नहीं है। मात्र ज्ञान ही मोक्ष का उपाय है। गुरु का वचन ही मोक्ष देने वाला है, अन्य सब विद्याएँ विडम्बना मात्र है। लकड़ी के हजारों भारों की अपेक्षा एक संजीवनी ही श्रेष्ठ है। कर्मकाण्ड और वेद-शास्त्रादि के अध्ययन रूपी परिश्रम से रहित केवल गुरु मुख से प्राप्त अद्वैतज्ञान ही कल्याणकारी कहा गया है, अन्य करोड़ों शास्त्रों को पढ़ने से कोई लाभ नहीं। वेदादि आगम शास्त्रों का अध्ययन तथा विवेक – इन दो साधनों से ज्ञान की प्राप्ति होती है। आगम से शब्द ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त होता है और विवेक से परब्रह्म का ज्ञान प्राप्त होता है। कई विद्वान अद्वैत को वास्तविक परमतत्त्व स्वीकार करते हैं और कुछ अन्य विद्वज्जन द्वैततत्त्व की ही प्रतिष्ठा चाहते हैं किंतु द्वैत और अद्वैत से पृथक सभी के लिये समान रूप से स्वीकार्य परम तत्त्व को कोई नहीं जानता। “न मम” (मेरा नहीं है) और “मम” (मेरा है) – ये दो पद (भावनाएँ) ही बन्धन और मोक्ष के कारण हैं। मम – बुद्धि करने से प्राणी बन्धन को प्राप्त होता है और ‘मेरा नहीं है’ इस प्रकार की भावना करने से मुक्त होता है।
कर्म वही है, जो बन्धन का हेतु नहीं होता तथा विद्या वही है, जो मोक्ष प्रदान करा दे और इससे अतिरिक्त कर्म केवल श्रममात्र के हेतु हैं जो शरीर के लिए क्लेशप्रद हैं तथा अन्य प्रकार की विद्या शिल्पचातुर्यमात्र है। जब तक कर्म किये जाते हैं, जब तक संसार में आसक्ति रहती है, जब तक इन्द्रियों का चांचल्य बना रहता है, तब तक तत्त्वज्ञान की बात ही कहाँ हो सकती है? जब तक देहाभिमान (देह को अपना स्वरुप मानना) है, जब तक ममता रहती है, जब तक प्रयत्नों का वेग रहता है, जब तक संकल्प की कल्पना होती रहती है, जब तक मन स्थिर नहीं हो जाता, जब तक शास्त्र का चिन्तन नहीं किया जाता तथा जब तक गुरु की कृपा नहीं प्राप्त होती, तब तक तत्त्वज्ञान की चर्चा ही कहाँ होती है?
तप, व्रत, तीर्थ, जप, होम तथा पूजा आदि सत्कर्मों का अनुष्ठान तथा वेद, शास्त्र और आगम की कथा तभी तक उपयोगी है, जब तक जीव को तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता। इसलिए हे तार्क्ष्य ! यदि अपने मोक्ष की इच्छा हो तो सर्वदा संपूर्ण प्रयत्नों का सभी अवस्थाओं में निरन्तर अनुष्ठान करके तत्त्वज्ञान की प्राप्ति में संलग्न रहना चाहिए।
जो प्राणी (आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक) ताप त्रय से सदा संतप्त रहता है, उसे मोक्ष वृक्ष की छाया का आश्रयण करना चाहिए। जिस मोक्षवृक्ष का पुष्प धर्म और ज्ञानस्वरुप है तथा फल स्वर्ग एवं मोक्ष है। इसलिए श्रीगुरु मुख से आत्मतत्त्वविषयक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ज्ञान हो जाने पर प्राणी इस घोर संसार बंधन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता अहि।
हे तार्क्ष्य ;- मैं तत्त्वज्ञानी पुरुष के द्वारा किए जाने वाले अन्तिम कृत्य के विषय में तुम्हें बताता हूँ, सुनो ! जिस उपाय को करके जीव को ब्रह्मनिर्वाणसंज्ञक मोक्ष की प्राप्ति होती है। अन्तकाल के आ जाने पर पुरुष भय छोड़कर अनासक्तिरूपी शस्त्र से देह-गेहादि विषयक ममत्व को काट डाले। वह धीर पुरुष घर से निकलकर पवित्र तीर्थ के जल में स्नान करके पवित्र और एकान्त देश में विधिवत आसन लगाकर बैठ जाए और शुद्ध परम त्रिवृत ब्रह्माक्षर अर्थात ओंकार का मन से अभ्यास करे तथा ब्रह्मबीज स्वरुप ओंकार का निरन्तर स्मरण करके श्वास को जीतकर मन को नियंत्रित करे।
बुद्धि रूपी सारथी की सहायता से मन रूपी लगाम के द्वारा इन्द्रियों को विषयों से निगृहीत कर ले और कर्मों के द्वारा आक्षिप्त मन को बुद्धि की सहायता से शुभ अर्थ में अर्थात परब्रह्म के चिन्तन में लगा दे। मैं ब्रह्म हूँ, मैं परम धाम हूँ और परम पदरूपी ब्रह्म मैं हूँ – ऎसी समीक्षा करके अपनी आत्मा को निष्कल परमात्मा में लगा दे और ‘ओम्’ इस एकाक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ तथा मेरा स्मरण करता हुआ जो मनुष्य देह-त्याग करता है, वह इस संसार से तर जाता है और परम गति प्राप्त करता है। मान और मोह से रहित तथा आसक्ति से उत्पन्न होने वाले दोषों को जीत लेने वाले, सुख-दु:खादि द्वंद्वों से मुक्त ज्ञानी पुरुष उस शाश्वत अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं। जो व्यक्ति राग और द्वेष रूपी मलों का अपहरण करने वाले ज्ञानरूप जलाशय और सत्यस्वरुप जलवाले मानसतीर्थ में स्नान करता है, वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
जो प्रौढ़ वैराग्य को धारण करके अन्य भावों का परित्याग कर केवल मद्विषयक भावना के द्वारा मेरा भजन करता है, ऎसा पूर्ण दृष्टि रखने वाला अमलान्तरात्मा संत ही मोक्ष को प्राप्त होता है। “तीर्थ में मृत्यु हो जाय” – इस उत्कण्ठा से उत्सुक होकर जो अपने घर का परित्याग करके तीर्थ में निवास करता है और मुक्तिक्षेत्र में मरता है, वही मोक्ष प्राप्त करता है। अयोध्या, मथुरा, कनखल-हरिद्वार, काशी, कांची, अवन्तिका और द्वारावतीपुरी – ये सात पुरियाँ मोक्ष देने वाली हैं।
हे तार्क्ष्य ;- मैंने सनातन मोक्ष धर्म को तुम्हें बता दिया, ज्ञान और वैराग्य के सहित इसे सुनकर पुरुष मोक्ष प्राप्त करता है। तत्त्वज्ञ पुरुष मोक्ष प्राप्त करते हैं, धार्मिक पुरुष स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। पापियों की दुर्गति होती है और पशु-पक्षी आदि पुन:-पुन: जन्म-मरण रूपी संसार में भ्रमण करते हैं। इस प्रकार सभी शास्त्रों का सारोद्धार मैंने सोलह अध्यायों में कह दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो?
सूत जी ने कहा – हे राजन ;- गरुड़ जी ने भगवान के मुख से ऎसा वचन सुनकर उन्हें बार-बार प्रणाम करके अंजलि बाँधकर इस प्रकार कहा –
गरुड़ जी ने कहा ;- हे देवाधिदेव भगवन ! हे नाथ ! हे प्रभो ! अपने अमृतमय वचनों को सुनाकर आपने मुझे भवसागर से तार दिया है। अब मेरा संदेह समाप्त हो गया और मैं कृतार्थ हो गया हूँ, इसमें संशय नहीं – ऎसा कहकर गरुड़ जी ने मौन होकर भगवद्ध्यानपरायण हो गए। स्मरण करने से जो दुर्गति का हरण कर लेते हैं, पूजन और यज्ञ के द्वारा जो सद्गति प्रदान करते हैं और अपनी परम भक्ति के द्वारा जो मुक्ति प्रदान करते हैं, वे हति मेरी रक्षा करें।
।। "इस प्रकार गरुड़पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में भगवान विष्णु ओर गरुड़ के संवाद में “मोक्षधर्मनिरूपण” नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ" ।।
"मनुष्य शरीर प्राप्त करने की महिमा, धर्माचरण ही मुख्य कर्तव्य, शरीर और संसार की दु:खरूपता तथा नश्वरता, मोक्ष-धर्म-निरूपण"
गरुड़ जी ने कहा – हे दयासिन्धो ;- अज्ञान के कारण जीव जन्म-मरणरूपी संसार चक्र में पड़ता है, यह मैंने सुना। अब मैं मोक्ष के सनातन उपाय को सुनना चाहता हूँ। हे भगवन ! हे देवदेवेश ! हे शरणागतवत्सल ! सभी प्रकार के दु:खों से मलिन तथा साररहित इस भयावह संसार में अनेक प्रकार के शरीर धारण करके अनन्त जीवराशियाँ उत्पन्न होती हैं और मरती हैं, उनका कोई अन्त नहीं है। ये सभी सदा दु:ख से पीड़ित रहते हैं, इन्हें कहीं सुख नहीं प्राप्त होता। हे मोक्षेश ! हे प्रभो ! किस उपाय के करने से इन्हें इस संसृति-चक्र से मुक्ति प्राप्त हो सकती है, इसे आप मुझे बताएँ।
श्रीभगवान ने कहा – हे तार्क्ष्य ;- तुम इस विषय में मुझसे जो पूछते हो, मैं बतलाता हूँ ! सुनो – जिसके सुनने मात्र से मनुष्य संसार से मुक्त हो जाता है। वह परब्रह्म परमात्मा निष्कल (कलारहित) परब्रह्मस्वरूप, शिवस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, निर्मल तथा अद्वय (द्वैतभावरहित) है। वह (परमात्मा) स्वत: प्रकाश है, अनादि, अनन्त, निर्विकार, परात्पर, निर्गुण और सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है। यह जीव उसी का अंश है। जैसे अग्नि से बहुत से स्फुलिंग अर्थात चिंगारियाँ निकलती हैं उसी प्रकार अनादिकालीन अविद्या से युक्त होने के कारण अनादि काल से किये जाने वाले कर्मों के परिणामस्वरुप देहादि उपाधि को धारण करके जीव भगवान से पृथक हो गए हैं। वे जीव प्रत्येक जन्म में पुण्य और पापरूप सुख-दु:ख प्रदान करने वाले कर्मों से नियंत्रित होकर तत्तत् जाति के योग से देह(शरीर), आयु और कर्मानुरोधी भोग प्राप्त करते हैं।
हे खग ;- इसके पश्चात भी पुन: वे अत्यन्त सूक्ष्म लिंग शरीर प्राप्त करते हैं और यह क्रम मोक्षपर्यन्त स्थित रहता है। ये जीव कभी स्थावर (वृक्ष-लतादि जड़) योनियों में, पुन: कृमियोनियों में तदनन्तर जलचर, पक्षी और पशुयोनियों को प्राप्त करते हुए मनुष्ययोनि प्राप्त करते हैं फिर धार्मिक मनुष्य के रूप में और पुन: देवता तथा देवयोनि के पश्चात क्रमश: मोक्ष प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं। उद्भिज्ज, स्वेदज और पिण्डज (जरायुज) – इन चार प्रकार के शरीरों को सहस्त्रों बार धारण करके उनसे मुक्त होकर सुकृतवश (पुण्यप्रभाव से) जीव मनुष्य-शरीर प्राप्त करता है और यदि वह ज्ञानी हो जाए तो मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
जीवों की चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य किसी भी योनि में तत्वज्ञान प्राप्त नहीं होता। पूर्वोक्त विभिन्न योनियों में हजारों-हजार करोड़ों बार जन्म लेने के अनन्तर उपार्जित पुण्यपुंज के कारण कदाचित मनुष्य-योनि प्राप्त होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिए सोपानभूत यह दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त करके इस संसृति चक्र से जो अपने को मुक्त नहीं कर लेता, उससे अधिक पापी और कौन होगा !
उत्तम मनुष्य शरीर में जन्म प्राप्त करके और समस्त सौष्ठव संपन्न अविकल इन्द्रियों को प्राप्त करके भी जो व्यक्ति अपने हित को नहीं जानता वह ब्रह्मघातक होता है। शरीर के बिना कोई भी जीव पुरुषार्थ नहीं कर सकता इसलिए शरीर और धन की रक्षा करता हुआ इन दोनों से पुण्योपार्जन करना चाहिए। मनुष्य को सर्वदा अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि शरीर सभी पुरुषार्थों का एकमात्र साधन है इसलिए उसकी रक्षा का उपाय करना चाहिए। जीवन धारण करने पर ही व्यक्ति अपने कल्याण को देख सकता है।
गाँव, क्षेत्र, धन, घर और शुभाशुभ कर्म पुन:-पुन: प्राप्त हो सकते हैं किंतु मनुष्य शरीर पुन:-पुन: प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति सदा शरीर की रक्षा का उपाय करते हैं। कुष्ठ आदि रोगी भी अपने शरीर को त्यागने की इच्छा नहीं करते। शरीर की रक्षा धर्माचरण के उद्देश्य से और धर्माचरण ज्ञानप्राप्ति के उद्देश्य से ज्ञान, ध्यान एवं योग की सिद्धि के लिए और फिर ध्यानयोग से मनुष्य अविलम्ब मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
यदि मनुष्य स्वयं ही अपने आत्मा का अहित से निवारण नहीं कर लेता तो आत्मा का दूसरा कौन हितैषी होगा जो आत्मा को तारेगा। जो जीव मनुष्य के शरीर में रहकर इसी जन्म में नरकरूपी व्याधि की चिकित्सा नहीं कर लेता, वह परलोक में जाने पर जहाँ औषध नहीं प्राप्त है, नरक व्याधि से पीड़ित होने पर फिर क्या कर सकेगा? वृद्धावस्था बाघिन के समान सामने खड़ी है, फूटे हुए घड़े के गिरने वाले जल की भाँति प्रतिक्षण आयु समाप्त होती जा रही है, रोग शत्रु की भाँति प्रहार कर रहे हैं, अत: श्रेय:प्राप्ति के लिए जीव को अभ्यास करना चाहिए।
जब तक दु:ख प्राप्त नहीं होता, जब तक आपत्तियाँ घेर नहीं लेती और जब तक इन्द्रियों में वैकल्य (शिथिलता) नहीं आ जाता, तब तक श्रेय:प्राप्ति के लिए जीव को प्रयास करते रहना चाहिए। जब तक यह शरीर है तभी तक तत्त्वज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। भवन में आग लग जाने पर कौन ऎसा दुर्बुद्धि मनुष्य है जो कुँआ खोदना प्रारंभ करता है। बहुविध सांसारिक कार्यप्रपंचों में व्यस्त रहने के कारण काल का ज्ञान नहीं होता। यह क्लेश की बात है कि मनुष्य अपने सुख-दु:ख और हित की बात को नहीं समझता।
संसार में जीवों को उत्पन्न होते हुए, रोगादि से दु:खी होते हुए, मृत्यु प्राप्त करते हुए और आपत्तिग्रस्त तथा दु:खी देखकर भी सांसारिक मनुष्य मोहरूपी मदिरा को पीकर कभी बी भयभीत नहीं होता। भौतिक सम्पत्ति स्वप्न के समान नश्वर-क्षणभंगुर है, यौवन भी पुष्प के समान मुरझा जाने वाला है, आयु बादलों में चमकने वाली बिजली के समान चंचल है – यह सब जानते हुए भी मनुष्य को कैसे धैर्य हो सकता है।
एक तो मनुष्य की सौ वर्ष की आयु ही बहुत थोड़ी है, उसमें भी निद्रा और आलस्य के वशीभूत होकर उसका आधा भाग बीत जाता है और जो शेष है वह भी बाल्यावस्था, रोग और जरा में होने वाले दु:ख से चला जाता है और जो थोड़ा बचा, वह भी निष्फल ही बीत जाता है। प्रारंभ करने वाले कार्य के विषय में जो उद्योग नहीं करता और जहाँ ब्रह्मचिन्तन आदि में जागरुक रहना चाहिए वहाँ वह सोता रहता है। इसके विपरीत जहाँ सदा-सदा भय विद्यमान है (उस संसार में), वहाँ वह विश्वस्त है, ऎसा जो मनुष्य है, वह अभागा क्यों नहीं मारा जाएगा। जल में उठने वाले फेन के समान अतीव क्षणभंगुर देह को प्राप्त करके जीवात्मा उसमें स्थित रहता है।
यह शरीर ही उसको प्रियसंवास के रूप में प्रतीत होता है किंतु इस अनित्य शरीर में जीवात्मा निर्भय होकर कैसे रह सकता है? जो अहित करने वाले विषय भोगों में ही हितबुद्धि रखता है तथा अनिश्चित (पुत्र-कलत्र-देह-गेहादि) को स्थाई समझता है और भौतिक धन-संपत्ति आदि अनर्थकारी वस्तुओं में जो अर्थबुद्धि रखता है, वह अपने परमार्थ को नहीं जानता।
जो “यह जगत किसी का नहीं हुआ” – ऎसा देखते हुए भी गिर रहा है और आत्मज्ञानविषयक वचनों को सुनते हुए भी जिसे बोध नहीं होता, पढ़ करके भी उसका अर्थ नहीं समझता – ऎसा इसलिए होता है कि जीव भगवान की माया से मोहित है। मृत्यु, रोग और जगरूपी ग्राहों के द्वारा गंभीर कालसागर में डूबते हुए इस जगत को कोई भी नहीं जान पाता। प्रतिक्षण क्षीण होते हुए भी इस काल की सूक्ष्म गति को जीव वैसे ही नहीं जान पाता जैसे कच्चे घड़े में स्थित जल के विगलित होने का ज्ञान नहीं हो पाता। कदाचित वायु का बाँधना संभव हो सकता है, आकाश को खण्ड-खण्ड करने की तरंगों के गुम्फन की कल्पना भी संभव हो सकती है परंतु आयु के शाश्वत होने की आस्था कथमपि संभव नहीं हो सकती।
जिस काल के द्वारा जल जाती है, मेरु पर्वत भी चूर-चूर हो जाता है, सागर का जल भी सूख जाता है, उस काल से मनुष्य-शरीर की रक्षा की क्या कथा? मेरा पुत्र, मेरी पत्नी, मेरा धन, मेरे बान्धव – इस प्रकार मैं-मैं कहते हुए मनुष्य रूपी बकरे को हठपूर्वक कालरूपी भेड़िया मार डालता है। यह मैंने कर लिया, यह करना शेष है, यह दूसरा कार्य भी अभी कुछ करना बाकी है – इस प्रकार की इच्छा से युक्त मनुष्य को यमराज अपने वश में कर लेते हैं।
कल किए जाने वाले कार्य को आज, अपराह्ण में किए जाने वाले कार्य को पूर्वाह्ण में ही कर लेना चाहिए क्योंकि मनुष्य ने अपना कार्य कर लिया है अथवा नहीं – इसकी प्रतीक्षा मृत्यु नहीं करती। वृद्धावस्था जिसको रास्ता दिखाने वाली है, अत्युग्र रोग ही जिसके सैनिक है, ऎसे म्रत्युरूपी शत्रु के तुम सम्मुख स्थित हो फिर उस प्रबल शत्रु से रक्षा करने वाले परमात्मा की ओर क्यों नहीं देखते अर्थात उनकी ओर उन्मुख क्यों नहीं होते?
तृष्णारूपी शूल में बिंधे हुए और विषयवासनारूपी घीसे सींचे हुए तथा राग-द्वेषरूपी अग्नि में पके हुए मनुष्य को मृत्यु खा जाती है। यह जगत ऎसा है कि इसमें मृत्यु बालकों, युवकों, वृद्धों और गर्भस्थ जीवों – सभी को ग्रस लेती है। जब जीव अपनी देह को भी यहीं छोड़कर यमलोक को चला जाता है तो फिर स्त्री-माता-पिता और पुत्रादि से किस प्रयोजन से संबंध स्थापित किया जाए।
यह संसार दु:ख का मूल कारण है इसलिए इस संसार से जिसका संबंध है, वही दु:खी है और जिसने इस जगत का त्याग किया, वही मनुष्य सुखी है। दूसरा कोई भी, कहीं भी सुखी नहीं है। यह संसार सभी प्रकार के दु:खों का उत्पत्ति स्थान है, सभी आपत्तियों का घर है और सभी पापों का आश्रय-स्थान है इसलिए ऎसे संसार को क्षणमात्र में त्याग देना चाहिए। लौह एवं लकड़ी के पाशों से बँधा हुआ मनुष्य मुक्त हो सकता है किंतु पुत्र और पत्नीरुपी पाशों से बँधा हुआ मनुष्य कभी भी मुक्त नहीं हो सकता।
मनुष्य अपने मन को प्रिय लगने वाले इस जगत में जितने पदार्थों से संबंध बनाता जाता है, उतनी ही अधिक शोक की कीले उसके ह्रदय में गड़ती जाती हैं। यह बड़े खेद की बात है कि मनुष्य की देह में स्थित शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध, विषयों का आहार करने वाले इन्द्रियरूपी चोरों ने इस लोक के समस्त धन को अपहृत करके इसे नष्ट कर दिया है अर्थात परलोक के लिए हितकारी धर्मरूपी जो धन है, उसका इन्द्रियों ने हरण कर लिया है। माँसलोभी मत्स्य जैसे बंसी में लगे हुए लोहे के अंकुश को नहीं जान पाता, उसी प्रकार विषयों से प्राप्त होने वाले सुख के लोभ से जीव यमयातना की परवाह नहीं करता।
हे गरुड़ ;- जो अपने हित औत अहित को नहीं जानते, सदा कुमार्ग पर चलने वाले हैं और मात्र पेट भरने में ही जिनका सारा अध्यवसाय रहता है, वे मनुष्य नरकगामी हैं। निद्रा, मैथुन और आहार आदि की स्वाभाविक प्रवृति सभी प्राणियों में समान रूप से विद्यमान रहती है। उनमें जो वास्तविक हित-अहित को जानने वाला ज्ञानवान है, वह मनुष्य कहा जाता है और उस ज्ञान से जो शून्य है, वह पशु कहलाता है।
मूर्ख मनुष्य प्रात:काल मल-मूत्रों के वेग से, मध्य दिन में क्षुधा और तृषा से तथा रात्रि में काम क्रीड़ा और निद्रा से बाधित रहते हैं।
हाय ! यह खेद की बात है कि अज्ञान से मोहित होकर सभी जीव अपनी देह, धन, पत्नी आदि में आसक्त होकर बार-बार पैदा होते हैं और मर जाते हैं इसलिए सदा आसक्ति का त्याग कर देना चाहिए और यदि उसका सर्वथा त्याग न हो सके तो महापुरुषों के साथ संबंध बनाना चाहिए क्योंकि संत पुरुष संसारासक्तिरूपी रोग के भेषज हैं।
सत्संग और विवेक – ये दोनों ही व्यक्ति के दो निर्मल नेत्र हैं। जिस व्यक्ति के पास ये नहीं है, वह अंधा है, अंधा मनुष्य कुमार्गगामी क्यों नहीं होगा? अपने-अपने वर्ण और आश्रम के लिए शास्त्रबोधित आचारों का पालन करने में संलग्न रहने वाले सभी मनुष्य यदि परम धर्म को नहीं जानते तो वे दम्भाचारी व्यर्थ में नष्ट हो जाते हैं।
कुछ लोग अनेक प्रकार की क्रियाओं को करने का प्रयत्न करते हैं और कुछ अन्य व्रत, उपवास आदि में संलग्न रहते हैं, अज्ञान से आवृत आत्मा वाले कुछ लोग ढ़ोंगी बनकर विचरण करते हैं। कर्मकाण्ड में आस्था रखने वाले मनुष्य शास्त्रबोधित नाममात्र की फलश्रुतियों से संतुष्ट हो करके मन्त्रोच्चारण ओर होमादि कृत्यों से तथा यज्ञ से विस्तृत विधानों से भ्रान्त रहते हैं, उन्हीं में उलझे रहते हैं। मेरी माया से विमोहित होकर शरीर को सुखाने वाले मूर्ख लोग एकभुक्त, उपवास आदि व्रतों का आचरण करके परोक्ष (परमगति) को प्राप्त करना चाहते हैं। शरीर को दण्ड देने मात्र से क्या अविवेकी पुरुषों को मुक्ति प्राप्त हो सकती है? वल्मीक (साँप की बाँबी) को ताड़न करने मात्र से क्या कहीं भी महासर्प की मृत्यु होती है? बड़ी लंबी जटाओं के भार को ढोने वाले और मृगचर्म आदि से युक्त दाम्भिक पुरुष वेष धारण करके ज्ञानी की भाँति ही लोक में भ्रमण करते हैं और लोगों को भी भ्रमित करते हैं।
सांसारिक सुख में आसक्त जो व्यक्ति “मैं ब्रह्मज्ञानी हूँ” ऎसा कहता है वह कर्ममार्ग तथा ब्रह्मज्ञानमार्ग – दोनों मार्गों से भ्रष्ट हो जाता है, उसे चाण्डाल की भाँति छोड़ देना चाहिए। संसार में, घर में और अरण्य में लज्जा त्यागकर समान रुप से नग्न होकर गर्दभ आदि पशु भी विचरण करते हैं तो क्या इस आचरण से वे संसार से विरक्त हो जाते हैं? यदि मिट्टी और भस्म के धारण करने मात्र से मनुष्य मुक्त हो जाए तो मिट्टी और भस्म में शयन करने वाला वह कुत्ता भी क्या मुक्ति प्राप्त कर लेगा? घास-पात और जल का आहार करने वाले तथा निरन्तर जंगल में निवास करने वाले श्रृंगाल, चूहे तथा मृग आदि पशु भी क्या तपस्वी – योगी हो जाते हैं अर्थात अन्न छोड़ देने, ग्राम या नगर में निवास छोड़कर वन में रहने मात्र से कोई सन्यासी नहीं हो जाता। मण्डूक अर्थात मेढ़क और मत्स्य आदि जलचर जीव जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त गंगा आदि नदियों में निवास करते हैं तो क्या वे योगी हो जाते हैं?
कबूतर शिलवृत्ति (कंकड़) का आहार करने वाले हैं तथा चातक कभी भी भूमि पर स्थित जल को नहीं पीते तो क्या इससे वे व्रती हो जाते हैं?
इसलिए हे खगेश्वर ;- पूर्वोक्त संपूर्ण कर्मानुष्ठान केवल लोकरंजनमात्र के लिए हैं। मोक्ष का अकरण तो साक्षात तत्त्वज्ञान ही है।
हे खग ;- षड्दर्शनरूपी महाकूप में पड़े हुए मनुष्यरूपी पशु परमार्थ को नहीं जानते हैं क्योंकि वे पशुपाश से नियंत्रित रहते हैं। वेद और शास्त्ररूपी घोर समुद्र में इधर-उधर ले जाए जाते हुए कुतार्किक व्यक्ति षडूर्मियों (क्षुधा-पिपासा, शोक-मोह और जन्म-मृत्यु को “षडूर्मि” कहा जाता है) से ग्रस्त होकर स्थित रहते हैं।
वेद-शास्त्र और पुराणों को जानने वाला भी जो मनुष्य परमार्थ को नहीं जानता, विडंबनाग्रस्त उसका पूर्वोक्त संपूर्ण ज्ञान कौए के काँव-काँव करने जैसा है। परम तत्व से पराड्मुख जीव यह ज्ञान है, यह ज्ञेय है, इसी चिन्ता से व्याकुल होकर रात-दिन शास्त्रों का अध्ययन करते हैं\ काव्योचित अलंकारों से सुशोभित गद्य वाक्य-रचना या छन्दोबद्ध कविता की रचान करने पर भी विषयोपभोग के प्रति लालायित इन्द्रियों वाले तत्त्वज्ञानरहित मूढ व्यक्ति नाना चिन्ताओं के कारण दु:खी रहते हैं। परम तत्व की प्राप्ति तो अन्य प्रकार से होती है, किंतु लोग अन्य प्रकार के उपाय करके क्लेश प्राप्त करते हैं। शास्त्र का भाव तो कुछ और होता है परंतु वे उसकी व्याख्या कुछ दूसरे प्रकार से करते हैं। कुछ अहंकारी व्यक्ति गुरूपदेश आदि को प्राप्त न करके भी उन्मनीभाव के विषय में कहते हैं, पर वे स्वयं उसका अनुभव नहीं करते।
बहुत से लोग वेद और शास्त्र का अध्ययन तो करते हैं और परस्पर एक-दूसरे को बोध भी कराते हैं, तात्पर्य समझाते हैं, पर वे परम तत्त्वों के विषय में उसी प्रकार कुछ नहीं जानते जिस प्रकार कलछी पाकरस को नहीं जानती। पुष्प को धारण तो सिर करता है किंतु उस पुष्प की गन्ध को नासिका ही जानती है, ठीक इसी प्रकार वेद और शास्त्र का अध्ययन में उसी प्रकार भटकता फिरता रह जाता है, जैसे कोई मूर्ख ग्वाला अपनी कोख में बकरे को पकड़े रखने पर भी उसको खोजने के लिए कुएँ में देखता है। संसार के मोह का नाश करने के लिए शास्त्र के शब्दों के अअर्थ को जानना मात्र पर्याप्त नहीं है। दीपक की बात से कभी अंधकार की निवृत्ति नहीं हो सकती। बुद्धिहीन मनुष्य का पढ़ना अंधे व्यक्ति के दर्पण देखने के समान व्यर्थ है। अत: बुद्धिमान व्यक्ति को ही शास्त्रीय तत्त्वज्ञान का लक्षण हो सकता है अर्थात बुद्धिमान को ही तत्त्वज्ञान लक्षित हो सकता है।
जो यह ज्ञान यहाँ है, इसे जानना चाहिए – इस प्रकार बुद्धि करके शास्त्र में प्रतिपाद्य सब कुछ सुनना चाहता है, वह हजार दिव्य वर्षों की आयु प्राप्त करके भी शास्त्रों का अन्त पप्राप्त नहीं कर सकता। अनेक शास्त्र हैं, आयु अत्यल्प है, जिसमें करोड़ों विघ्न हैं इसलिए जैसे हंस जल के मध्य से दूध को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति को भी शास्त्र के सारतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। वेदशास्त्रों का अभ्यास कर वहाँ से तत्त्वज्ञान प्राप्त करके बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि जैसे धान चाहने वाला व्यक्ति धान ग्रहण करके पलाल अर्थात पुआल को छोड़ देता हैम उसी तरह उसे भी अन्य सभी शास्त्रों को छोड़ देना चाहिए।
जैसे अमृत से तृप्त व्यक्ति के लिए भोजन की कोई आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार हे तार्क्ष्य ! तत्त्वज्ञ को शास्त्र से कोई प्रयोजन नहीं होता।
हे विनतात्मज ;- न वेदाध्ययन से मुक्ति प्राप्त होती है और न शास्त्रों के अध्ययन से ही। मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान से ही होती है, किसी दूसरे उपाय से नहीं।
जिस प्रकार मुक्ति के लिए न तो आश्रम धर्म का अनुष्ठान कारण है, न दर्शनों का अध्ययन कारण है, उसी प्रकार श्रौत-स्मार्त कर्म भी कारण नहीं है। मात्र ज्ञान ही मोक्ष का उपाय है। गुरु का वचन ही मोक्ष देने वाला है, अन्य सब विद्याएँ विडम्बना मात्र है। लकड़ी के हजारों भारों की अपेक्षा एक संजीवनी ही श्रेष्ठ है। कर्मकाण्ड और वेद-शास्त्रादि के अध्ययन रूपी परिश्रम से रहित केवल गुरु मुख से प्राप्त अद्वैतज्ञान ही कल्याणकारी कहा गया है, अन्य करोड़ों शास्त्रों को पढ़ने से कोई लाभ नहीं। वेदादि आगम शास्त्रों का अध्ययन तथा विवेक – इन दो साधनों से ज्ञान की प्राप्ति होती है। आगम से शब्द ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त होता है और विवेक से परब्रह्म का ज्ञान प्राप्त होता है। कई विद्वान अद्वैत को वास्तविक परमतत्त्व स्वीकार करते हैं और कुछ अन्य विद्वज्जन द्वैततत्त्व की ही प्रतिष्ठा चाहते हैं किंतु द्वैत और अद्वैत से पृथक सभी के लिये समान रूप से स्वीकार्य परम तत्त्व को कोई नहीं जानता। “न मम” (मेरा नहीं है) और “मम” (मेरा है) – ये दो पद (भावनाएँ) ही बन्धन और मोक्ष के कारण हैं। मम – बुद्धि करने से प्राणी बन्धन को प्राप्त होता है और ‘मेरा नहीं है’ इस प्रकार की भावना करने से मुक्त होता है।
कर्म वही है, जो बन्धन का हेतु नहीं होता तथा विद्या वही है, जो मोक्ष प्रदान करा दे और इससे अतिरिक्त कर्म केवल श्रममात्र के हेतु हैं जो शरीर के लिए क्लेशप्रद हैं तथा अन्य प्रकार की विद्या शिल्पचातुर्यमात्र है। जब तक कर्म किये जाते हैं, जब तक संसार में आसक्ति रहती है, जब तक इन्द्रियों का चांचल्य बना रहता है, तब तक तत्त्वज्ञान की बात ही कहाँ हो सकती है? जब तक देहाभिमान (देह को अपना स्वरुप मानना) है, जब तक ममता रहती है, जब तक प्रयत्नों का वेग रहता है, जब तक संकल्प की कल्पना होती रहती है, जब तक मन स्थिर नहीं हो जाता, जब तक शास्त्र का चिन्तन नहीं किया जाता तथा जब तक गुरु की कृपा नहीं प्राप्त होती, तब तक तत्त्वज्ञान की चर्चा ही कहाँ होती है?
तप, व्रत, तीर्थ, जप, होम तथा पूजा आदि सत्कर्मों का अनुष्ठान तथा वेद, शास्त्र और आगम की कथा तभी तक उपयोगी है, जब तक जीव को तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता। इसलिए हे तार्क्ष्य ! यदि अपने मोक्ष की इच्छा हो तो सर्वदा संपूर्ण प्रयत्नों का सभी अवस्थाओं में निरन्तर अनुष्ठान करके तत्त्वज्ञान की प्राप्ति में संलग्न रहना चाहिए।
जो प्राणी (आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक) ताप त्रय से सदा संतप्त रहता है, उसे मोक्ष वृक्ष की छाया का आश्रयण करना चाहिए। जिस मोक्षवृक्ष का पुष्प धर्म और ज्ञानस्वरुप है तथा फल स्वर्ग एवं मोक्ष है। इसलिए श्रीगुरु मुख से आत्मतत्त्वविषयक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ज्ञान हो जाने पर प्राणी इस घोर संसार बंधन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता अहि।
हे तार्क्ष्य ;- मैं तत्त्वज्ञानी पुरुष के द्वारा किए जाने वाले अन्तिम कृत्य के विषय में तुम्हें बताता हूँ, सुनो ! जिस उपाय को करके जीव को ब्रह्मनिर्वाणसंज्ञक मोक्ष की प्राप्ति होती है। अन्तकाल के आ जाने पर पुरुष भय छोड़कर अनासक्तिरूपी शस्त्र से देह-गेहादि विषयक ममत्व को काट डाले। वह धीर पुरुष घर से निकलकर पवित्र तीर्थ के जल में स्नान करके पवित्र और एकान्त देश में विधिवत आसन लगाकर बैठ जाए और शुद्ध परम त्रिवृत ब्रह्माक्षर अर्थात ओंकार का मन से अभ्यास करे तथा ब्रह्मबीज स्वरुप ओंकार का निरन्तर स्मरण करके श्वास को जीतकर मन को नियंत्रित करे।
बुद्धि रूपी सारथी की सहायता से मन रूपी लगाम के द्वारा इन्द्रियों को विषयों से निगृहीत कर ले और कर्मों के द्वारा आक्षिप्त मन को बुद्धि की सहायता से शुभ अर्थ में अर्थात परब्रह्म के चिन्तन में लगा दे। मैं ब्रह्म हूँ, मैं परम धाम हूँ और परम पदरूपी ब्रह्म मैं हूँ – ऎसी समीक्षा करके अपनी आत्मा को निष्कल परमात्मा में लगा दे और ‘ओम्’ इस एकाक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ तथा मेरा स्मरण करता हुआ जो मनुष्य देह-त्याग करता है, वह इस संसार से तर जाता है और परम गति प्राप्त करता है। मान और मोह से रहित तथा आसक्ति से उत्पन्न होने वाले दोषों को जीत लेने वाले, सुख-दु:खादि द्वंद्वों से मुक्त ज्ञानी पुरुष उस शाश्वत अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं। जो व्यक्ति राग और द्वेष रूपी मलों का अपहरण करने वाले ज्ञानरूप जलाशय और सत्यस्वरुप जलवाले मानसतीर्थ में स्नान करता है, वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
जो प्रौढ़ वैराग्य को धारण करके अन्य भावों का परित्याग कर केवल मद्विषयक भावना के द्वारा मेरा भजन करता है, ऎसा पूर्ण दृष्टि रखने वाला अमलान्तरात्मा संत ही मोक्ष को प्राप्त होता है। “तीर्थ में मृत्यु हो जाय” – इस उत्कण्ठा से उत्सुक होकर जो अपने घर का परित्याग करके तीर्थ में निवास करता है और मुक्तिक्षेत्र में मरता है, वही मोक्ष प्राप्त करता है। अयोध्या, मथुरा, कनखल-हरिद्वार, काशी, कांची, अवन्तिका और द्वारावतीपुरी – ये सात पुरियाँ मोक्ष देने वाली हैं।
हे तार्क्ष्य ;- मैंने सनातन मोक्ष धर्म को तुम्हें बता दिया, ज्ञान और वैराग्य के सहित इसे सुनकर पुरुष मोक्ष प्राप्त करता है। तत्त्वज्ञ पुरुष मोक्ष प्राप्त करते हैं, धार्मिक पुरुष स्वर्ग को प्राप्त होते हैं। पापियों की दुर्गति होती है और पशु-पक्षी आदि पुन:-पुन: जन्म-मरण रूपी संसार में भ्रमण करते हैं। इस प्रकार सभी शास्त्रों का सारोद्धार मैंने सोलह अध्यायों में कह दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो?
सूत जी ने कहा – हे राजन ;- गरुड़ जी ने भगवान के मुख से ऎसा वचन सुनकर उन्हें बार-बार प्रणाम करके अंजलि बाँधकर इस प्रकार कहा –
गरुड़ जी ने कहा ;- हे देवाधिदेव भगवन ! हे नाथ ! हे प्रभो ! अपने अमृतमय वचनों को सुनाकर आपने मुझे भवसागर से तार दिया है। अब मेरा संदेह समाप्त हो गया और मैं कृतार्थ हो गया हूँ, इसमें संशय नहीं – ऎसा कहकर गरुड़ जी ने मौन होकर भगवद्ध्यानपरायण हो गए। स्मरण करने से जो दुर्गति का हरण कर लेते हैं, पूजन और यज्ञ के द्वारा जो सद्गति प्रदान करते हैं और अपनी परम भक्ति के द्वारा जो मुक्ति प्रदान करते हैं, वे हति मेरी रक्षा करें।
।। "इस प्रकार गरुड़पुराण के अन्तर्गत सारोद्धार में भगवान विष्णु ओर गरुड़ के संवाद में “मोक्षधर्मनिरूपण” नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ" ।।
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