सम्पूर्ण विष्णु पुराण (तृतीय अंश) का नवाँ व दसवाँ अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (तृतीय अंश) का नवाँ व दसवाँ अध्याय}} {The ninth and tenth chapter of the entire Vishnu Purana (third part)}

                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (तृतीय अंश)


                             "नवाँ अध्याय"

"ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों का वर्णन"
और्व बोले ;– हे भूपते ! बालक को चाहिये कि उपनयन-संस्कार के अनन्तर वेदाध्ययन में तत्पर होकर ब्रह्मचर्य का अवलम्बन कर सावधानतापूर्वक गुरुगृह में निवास करे || १ || वहाँ रहकर उसे शौच और आचार-व्रतका पालन करते हुए गुरु की सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिये तथा व्रतादिका आचरण करते हुए स्थिर-बुद्धिसे वेदाध्यायन करना चाहिये || २ || हे राजन ! दोनों संध्याओं में एकाग्र होकर सूर्य और अग्निकी उपासना करे तथा गुरुका अभिवादन करें || ३ || गुरु के खड़े होनेपर खड़ा हो जाय, चलनेपर पीछे-पीछे चलने लगे तथा बैठ जानेपर नीचे बैठ जाय | हे नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार कभी गुरु के विरुद्ध कोई आचरण न करे || ४ || गुरूजी के कहनेपर ही उनके सामने बैठकर एकाग्रचित्त से वेदाध्ययन करें और उनकी आज्ञा होनेपर ही भिक्षान्न भोजन करे || ५ || जल में प्रथम आचार्य के स्नान कर चुकनेपर फिर स्वयं स्नान करे तथा प्रतिदिन प्रात:काल गुरूजी के लिये समिधा, जल, कुश और पुष्पादि लाकर जुटा दे || ६ ||

इसप्रकार अपना अभिमत वेदपाठ समाप्त कर चुकनेपर बुद्धिमान शिष्य गुरूजी की आज्ञा से उन्हें गुरुदक्षिणा देकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे || ७ || हे राजन ! फिर विधिपूर्वक पाणिग्रहण कर अपनी वर्णानुकूल वृत्ति से द्रव्योंपार्जन करता हुआ सामर्थ्यानुसार समस्त गृहकार्य करता रहे || ८ || पिण्ड-दानादि से पितृगणकी, यज्ञादि से देवताओं की, अन्नदान से अतिथियों की, स्वाध्याय से ऋषियों की, पुत्रोत्पत्तिसे प्रजापति की, बलियों (अन्नभाग) से भूतगण की तथा वात्सल्यभावसे सम्पूर्ण जगतकी पूजा करते हुए पपुरुष अपने कर्मोद्वारा मिले हुए उत्तमोत्तम लोकों को प्राप्त कर लेता है || ९ – १० ||

जो केवल भिक्षावृत्तिसे ही रहनेवाले परिव्राजक और ब्रह्मचारी आदि हैं उनका आश्रय भी गृहस्थाश्रम ही हैं, अत: यह सर्वश्रेष्ठ हैं || ११ || हे राजन ! विप्रगण वेदाध्ययन, तीर्थस्नान और देश दर्शन के लिये पृथ्वी-पर्यटन किया करते हैं || १२ || उनमे से जिनका कोई निश्चित गृह अथवा भोजन-प्रबंध नहीं होता और जो जहाँ सायंकाल हो जाता है वहीँ ठहर जाते हैं, उन सबका आधार और मूल गृहस्थाश्रम ही है || १३ || हे राजन ! ऐसे लोग जब घर आवें तो उनका कुशल-प्रश्न और मधुर वचनों से स्वागत करें तथा शय्या, आसन और भोजन के द्वारा उनका यथाशक्ति सत्कार करे || १४ || जिसके घरसे अतिथि निराश होकर लौट जाता हैं उसे अपने समस्त दुष्कर्म देकर वह अतिथि उसके पुण्यकर्मों को स्वयं ले जाता हाँ || १५ || ग्रहस्थ के लिये अतिथि के प्रति अपमान, अंहकार और दम्भ का आचरण करना, उसे देकर पछताना, उसपर प्रहार करना अथवा उससे कटुभाषण करना उचित नहीं है || १६ || इसप्रकार जो गृहस्थ अपने परम धर्मका पूर्णतया पालन करता है वह समस्त बन्धनों से मुक्त होकर अत्युत्तम लोकों को प्राप्त कर लेता हैं || १७ ||

हे राजन ! इसप्रकार गृह्स्थोचित कार्य करते-करते जिसकी अवस्था ढल गयी हो उस गृहस्थ को उचित है कि स्त्री को पुत्रों के प्रति सौंपकर अथवा अपने साथ लेकर वनको चला जाय || १८ || वहाँ पत्र, मूल, फल आदिका आहार करता हुआ, लोभ, श्मश्रु (दाढ़ी-मूँछ) और जटाओं को धारण कर पृथ्वीपर शयन करें और मुनिवृत्ति का अवलम्बन कर सब प्रकार अतिथि की सेवा करें || १९ || उसे चर्म, काश और कुशाओं से अपना बिछौना तथा ओढने का वस्त्र बनाना चाहिये | हे नरेश्वर ! उस मुनि के लिये त्रिकाल-स्नान का विधान है || २० || इसीप्रकार देवपूजन, होम, सब अतिथियों का सत्कार, भिक्षा और बलिवैश्वदेव, भी उसके विहित कर्म है || २१ || हे राजेन्द्र ! वन्य तैलादि को शरीर में मलना और शीतोष्णका सहन करते हुए तपस्या में लगे रहना उसके प्रशस्त कर्म है || २२ || जो वानप्रस्थ मुनि इन नियत कर्मों का आचरण करता है वह अपने समस्त दोषोंको अग्नि के समान भस्म कर देता हैं और नित्य-लोकों को प्राप्त कर लेता हैं || २३ ||

हे नृप ! पंडितगण जिस चतुर्थ आश्रम को भिक्षु आश्रम कहते हैं अब मैं उसके स्वरूप का वर्णन करता हूँ, सावधान होकर सुनो || २४ || हे नरेन्द्र ! तृतीय आश्रम के अनन्तर पुत्र, द्रव्य और स्त्री आदि के स्नेह को सर्वथा त्यागकर तथा मात्सर्य को छोडकर चतुर्थ आश्रम में प्रवेश करे || २५ || हे पृथ्वीपते ! भिक्षुको उचित हैं कि अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्गसम्बन्धी समस्त कर्मों को छोड़ दें, शत्रु-मित्रादि में समान भाव रखें और सभी जीवों का सुह्रद हो || २६ || निरंतर समाहित रहकर जरायुज, अंडज और स्व्देज आदि समस्त जीवों से मन, वाणी अथवा कर्मद्वारा कभी द्रोह न करें तथा सब प्रकार की आसक्तियों को त्याग दे || २७ || ग्राम में एक रात और पुर में पाँच रात्रितक रहें तथा इतने दिन भी तो इसप्रकार रहे जिससे किसीसे प्रेम अथवा द्वेष न हो || २८ || जिस समय घरों में अग्नि शांत हो जाय और लोग भोजन कर चुके उस समय प्राणरक्षा के लिये उत्तम वर्णों में भिक्षा के लिये जाय || २९ || परिव्राजक को चाहिये कि काम, क्रोध तथा दर्प, लोभ और मोह आदि समस्त दुर्गुणों को छोडकर ममताशून्य होकर रहे || ३० || जो मुनि समस्त प्राणियों को अभयदान देकर विचरता है उसको भी किसीसे कबी कोई भय नहीं होता || ३१ || जो ब्राह्मण चतुर्थ आश्रम में अपने शरीर में स्थित प्राणादिसहित जठराग्नि के उद्देश्य से अपने मुख में भिक्षान्नरूप हविसे हवन करता है, वह ऐसा अग्निहोत्र करके अग्निहोत्रियों के लोकों को प्राप्त हो जाता हैं || ३२ || जो ब्राह्मण [ ब्रह्म से भिन्न सभी मिथ्या है, सम्पूर्ण जगत भगवान का ही संकल्प है ] बुद्धियोगी से युक्त होकर, यथाविधि आचरण करता हुआ उस मोक्शाश्रम का पवित्रता और सुखपूर्वक आचरण करता है, वह निरीबंधन अग्नि के समान शांत होता है और अंत में ब्रह्मलोक प्राप्त करता है || ३३ ||

          "इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे नवमोऽध्यायः"

                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (तृतीय अंश)


                             "दसवाँ अध्याय"

"जातकर्म, नामकरण और विवाह-संस्कार की विधि"
सगर बोले ;– हे द्विजश्रेष्ठ ! अपने चारों आश्रम और चारों वर्णों के कर्मों का वर्णन किया | अब मैं आपके द्वारा मनुष्यों के कर्मों को सुनना चाहता हूँ || १ || हे भृगुश्रेष्ठ ! मेरा विचार हैं कि आप सर्वज्ञ है | अतएव आप मनुष्यों के नित्य-नैमित्तिक और काम्य आदि सब प्रकार के कर्मों का निरूपण कीजिये || २ ||

और्य बोले ;– हे राजन ! आपने जो नित्य-नैमित्तिक आदि क्रियाकलाप के विषय में पूछा सो मैं सबका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो || ३ ||

पुत्र के उत्पन्न होनेपर पिताको चाहिये कि उसके जातकर्म आदि सकल क्रियाकांड और आभ्युदयिक श्राद्ध करे || ४ || हे नरेश्वर ! पूर्वाभिमुख बिठाकर युग्म ब्राह्मणों को भोजन करावे तथा द्विजातियों के व्यवहार के अनुसार देव और पितृपक्ष की तृप्ति के लिये श्राद्ध करे || ५ || और हे राजन ! प्रसन्नतापूर्वक देवतीर्थ (अँगुलियों के अग्रभाग) द्वारा नांदीमुख पितृगण को दही, जौ और बदरीफल मिलाकर बनाये हुए पिण्ड दे || ६ || अथवा प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिका के मूल) द्वारा सम्पूर्ण उपचारद्रव्यों का दान करें | इसी प्रकार [ कन्या अथवा पुत्रों के विवाह आदि ] समस्त वृद्धिकालों में भी करे || ७ ||

तदनन्तर, पुत्रोत्पत्तिके दसवे दिन पिता नामकरण-संस्कार करे | पुरुष का नाम पुरुषवाचक होना चाहिये | उसके पूर्व में देववाचक शब्द हो तथा पीछे शर्मा, वर्मा आदि होने चाहिये || ८ || ब्राह्मण के नाम के अंतमे शर्मा, क्षत्रिय के अंत में वर्मा तथा वैश्य और शूद्रों के नामांत में क्रमश: गुप्त और दास शब्दों का प्रयोग करना चाहिये || ९ || नाम अर्थहीन, अविहित, अपशब्दयुक्त, अमांगलिक और निंदनीय न होना चाहिये तथा उसके अक्षर समान होने चाहिये || १० || अति दीर्घ, अति लघु अथवा कठिन अक्षरों से युक्त नाम न रखे | जो सुखपूर्वक उच्चारण किया जा सके और जिसके पीछे के वर्ण लघु हों ऐसे नामका व्यवहार करे || ११ ||

तदनन्तर उपनयन-संस्कार हो जानेपर गुरुगृह में रहकर विधिपूर्वक विद्याध्ययन करे || १२ || हे भूपाल ! फिर विद्याध्ययन कर चुकनेपर गुरु को दक्षिणा देकर यदि गृहस्थाश्रम में प्रवेश करनेकी इच्छा हो तो विवाह कर ले || १३ || यह दृढ़ संकल्पपूर्वक नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहणकर गुरु अथवा गुरुपुत्रों की सेवा-शुश्रूषा करता रहे || १४ || अथवा अपनी इच्छानुसार वानप्रस्थ या संन्यास ग्रहण कर ले | हे राजन ! पहले जैसा संकल्प किया हो वैसा ही करे || १५ ||

यदि विवाह करना हो तो अपनेसे तृतीयांश अवस्थावाली कन्या से विवाह करे तथा अधिक या अल्प केशवाली अथवा अति साँवली या पांडूवर्णा (भूरे रंगकी) स्त्री से सम्बन्ध न करे || १६ || जिसके जन्म से ही अधिक या न्यून अंग हो, जो अपवित्र, रोमयुक्त, अकुलीना अथवा रोगिणी हो उस स्त्री से पाणिग्रहण न करे || १७ || बुद्धिमान पुरुषको उचित है कि जो दुष्ट स्वभाववाली हो, कटुभाषिणी हो, माता अथवा पिता के अनुसार अंगहीना हो, जिसके श्मश्रु (मूँछों के ) चिन्ह हो, जो पुरुष के से आकारवाली हो अथवा घर्घर शब्द करनेवाले अतिमन्द या गोल नेत्रोवाली हो उस स्त्री से विवाह न करे || १८ – १९ || जिसकी जंघाओंपर रोम हो, जिसके गल्फ ऊँचे हों तथा हँसते समय जिसके कपोलों में गड्डे पड़ते हों उस कन्यासे विवाह न करे || २० || जिसकी कान्ति अत्यंत उदासीन न हो, नख पांडूवर्ण हों, नेत्र लाल हों तथा हाथ-पैर कुछ भारी हो, बुद्धिमान पुरुष उस कन्यासे सम्बन्ध न करे || २१ || जो अति वामन अथवा अति दीर्घ हो, जिसकी भृकुटियाँ जुडी हुई हो, जिसके दाँतों में अधिक अंतर हो तथा जो दन्तुर (अंगों को दाँत निकले हुए) मुखवाली हो उस स्त्रीसे कभी विवाह न करे || २२|| हे राजन ! मातृपक्ष से पाँचवी पीढ़ीतक और पितृपक्ष से सातवीं पीढ़ीतक जिस कन्याका सम्बन्ध न हो, गृहस्थ पुरुष को नियमानुसार उसीसे विवाह करना चाहिये || २३ || ब्राह्य, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच – ये आठ प्रकार के विवाह है || २४ || इनमें से जिस विवाह को जिस वर्ण के लिये महर्षियों ने धर्मानुकुल कहा है उसी के द्वारा दार-परिग्रह करे, अन्य विधियों को छोड़ दे || २५ || इसप्रकार सहधर्मिणी को प्राप्तकर उसके साथ गार्हस्थ्यधर्म का पालन करे, क्योंकि उसका पालन करनेपर वह महान फल देनेवाला होता है || २६ ||

          "इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे दशमोऽध्यायः"

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