शिव पुराण कैलाश संहिता के ग्यारहवें अध्याय से बीसवें अध्याय तक (From the eleventh chapter to the twentieth chapter of Shiv Purana Kailash Samhita)


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【कैलाश संहिता】

ग्यारहवाँ अध्याय

 "वामदेव द्वारा ब्रह्म निरूपण"

   ऋषि बोले ;- महाभाग सूत जी ! हम सभी वामदेव के बारे में जानना चाहते हैं । कृपा कर हमें उनके बारे में बताइए । 

  तब ऋषिगणों की जिज्ञासा शांत करने हेतु सूत जी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठो! पहले मन्वंतर में वामदेव नामक एक महामुनि हुए हैं। वामदेव को गर्भ से उत्पन्न होने से पूर्व ही शिव ज्ञान प्राप्त था। वे सबके जन्म कर्म को जानने वाले थे। वामदेव मुनि सदा अपने शरीर पर भस्म लगाकर और सिर पर जटा धारण किए रहते थे। वे शांत और अहंकार रहित थे और सदा योग, ध्यान और ब्रह्म में लीन रहते थे।

   एक बार वामदेव ने दक्षिण शिखर पर जाकर शिवजी के पुत्र स्कंद से भेंट की। उस समय स्कंद का रूप सूर्य के समान तेजोदीप्त होकर प्रकाशित हो रहा था। उनकी चार भुजाएं थीं और वे मोर पर बैठे हुए थे। उन्हें देखकर मुनि वामदेव ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और उनकी बहुत स्तुति की। इससे प्रसन्न होकर,,

   शिवजी के पुत्र स्कंद बोले ;- हे महामुनि ! मैं आपकी इस स्तुति से बहुत संतुष्ट हूं। आप जैसे मुनि सदा दूसरों के हित के लिए ही कार्य करते हैं। आपकी जो इच्छा हो कहिए, मैं उसे अवश्य ही पूरा करूंगा।

  तब वामदेव जी स्कंद देव से बोले ;- भगवन्! आप सबकुछ जानने वाले और सबके कर्ता हैं। आपके दर्शनों से ही मेरी सभी कामनाएं पूरी हो गईं। मैं भला आपके गुणों का वर्णन कैसे कर सकता हूं? आप तो साक्षात परमेश्वर वाचक देव पशुपति वाच्य हैं। वे सभी के पाप मोचक हैं। प्रणव मंत्र द्वारा त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का ध्यान करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। ओंकार सर्वस्वरूप है और ॐ सबकी श्रुति और ब्रह्म स्वरूप है। प्रभु! मेरे दृष्टिकोण से इस संसार में शिवजी के समान दूसरा कोई नहीं है। वे ही समाविष्ट और व्यष्टि स्वरूप हैं।

【कैलाश संहिता】

बारहवाँ अध्याय

"साक्षात शिव स्वरूप ही प्रणव है"

   स्कंद जी बोले ;- हे वामदेव जी ! आप धन्य हैं। आप परम शिव भक्त और शिव तत्व ज्ञान जानने वालों में श्रेष्ठ हैं। इस संसार में जीव माया से मोहित होकर परमेश्वर के स्वरूप को नहीं समझ पाते। प्रणव महेश्वर का ही रूप है, जिसे साधारण जीव नहीं समझ पाते । देवाधिदेव भगवान शिव ही सगुण, निर्गुण और ब्रह्म नामक त्रिगुणों के स्वामी हैं। साक्षात शिव स्वरूप ही प्रणव का अर्थ है। वे ही इस संसार की उत्पत्ति का कारण हैं। शिवजी ने ही ब्रह्मा, रुद्र, इंद्र, आकाश, पाताल, जीव सभी का निर्माण किया है।

  सूर्य और चंद्रमा शिवजी के प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं। इस संसार में दिखाई देने वाला सारा ऐश्वर्य शिवजी का ही है। वे सर्वेश्वर ही निर्गुण सगुण निष्फल हैं। वे ही स्थूल और सूक्ष्म रूप होकर संसार के कार्यों को आगे बढ़ाते हैं। वे ही शिव देवाधिदेव, संतान, निष्फल और ज्ञान क्रिया के परमात्मा हैं। देव पंचक और पंचक कला भी उनकी बनाई हुई हैं। परमात्मा शिव का मन शीतल और स्फटिक मणि के समान निर्मल है।

  भगवान शिव के पांच मुख, दस भुजा और पंद्रह नेत्र हैं। जो ईश्मन देव मुकुट धारण किए औघर, हृदयी, वामदेव, गुह्य और प्रदेशवान हैं। वे परमेश्वर शिव ही सद्यपाद, तन्मूर्ति, साक्षात, संपूर्ण, निष्फल और मूर्ति नामक छः प्रकार का स्वरूप धारण करने वाले हैं। वे ही उपन्यास मार्ग पर चलने वाले, समष्टि और व्यष्टि भाव वाले हैं। इस संसार में विख्यात तीन वर्णों को वेदाचारी कहा गया है। शूद्रों को वेद पढ़ने और जानने का अधिकार नहीं है। अन्य वर्णों को श्रुति, स्मृति और धर्म का ही अनुष्ठान करना चाहिए। इससे ही इंद्र सिद्धि प्राप्त होती है। भगवान शिव की ही आज्ञा के अनुसार वेद मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। श्रुति स्मृति में वर्णित धर्म और आचारों के अनुसार ही आचरण एवं पूजा करें।

【कैलाश संहिता】

तेरहवाँ अध्याय

"प्रणव सब मंत्रों का बीज रूप है"

    स्कंद जी बोले ;— हे वामदेव जी ! प्रातःकाल स्नान से निवृत्त होने के पश्चात गंध, पुष्प और अक्षत आदि पूजा की सामग्रियों से भगवान शिव और श्रीगणेश का विधिपूर्वक पूजन और ध्यान करें। पूर्णाहुति देकर हवन करें और गायत्री मंत्र का जाप करें। इसी प्रकार सायंकाल में संध्या करें। सद्योजात के पांच मंत्रों से हवन करें। मन में भगवान शिव का देवी पार्वती सहित ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र का उच्चारण करते हुए आहुति दें। 'भूर्भुवः सुवरोत्र' कहते हुए त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप का ध्यान करें। देवाधिदेव महादेव जी के पांच मुख, दस भुजाएं, पंद्रह नेत्र और उज्ज्वल मनोहारी स्वरूप हैं। उनकी पत्नी देवी पार्वती जगतमाता त्रिलोक को उत्पन्न करने वाली और निगुर्णमयी हैं। ऐसा मन में विचार करते हुए ज्ञानी पुरुष गायत्री मंत्र का जाप करें। पार्वती जी ही आदि देवी, त्रिपदा, ब्राह्मणत्व दात्री और अजा हैं। वे व्याहृतियों से उत्पन्न हैं और उसी में लीन हो जाती हैं।

   वे जगतमाता देवी पार्वती वेदों की आदि प्रणव और शिवपात्री हैं। प्रणव मंत्र ही सब मंत्रों का बीज रूप है। प्रणव ही शिव है और शिव ही प्रणव हैं। मोक्ष की नगरी काशी में मरने वाले मनुष्य को शिवजी इसी मंत्र की शिक्षा देते हैं। तभी ज्ञानी पुरुष को मुक्ति मिलती है। इसलिए सभी को अपने हृदय में भगवान शिव को धारण कर सदा उनका पूजन करना चाहिए।

【कैलाश संहिता】

चौदहवाँ अध्याय

"शिवरूप वर्णन"

वामदेव बोले ;- हे भगवन्! वे छः प्रकार के अर्थ कौन से हैं और उनका क्या ज्ञान है? इनके प्रतिपादक कौन हैं? और इनका क्या फल है ? इस संसार में वह कौन-सा ज्ञान है, जिसे जाने बिना जीव शास्त्रों से विमोहित हो जाता है। मैं भी शिव माया से विमोहित हूं। मैं कुछ भी नहीं जानता। आपकी शरण में आया हूं। मुझ पर कृपा कर मुझे ज्ञानरूपी अमृत पिलाइए ताकि मेरी अज्ञानता दूर हो जाए।

मुनि वामदेव के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए शिव पुत्र स्कंद बोले ;- हे मुनि शार्दूल! इस संसार में भगवान शिव ही समस्त प्रणवार्थ परिज्ञान के भण्डार हैं। वे ही समष्टि व्यष्टि का भाव रखते हैं। अब मैं एक ही परिज्ञान के छः अर्थों का वर्णन करता हूं। जिनमें पहला मंत्र रूप, दूसरा भाव, तीसरा देवार्थ, चौथा प्रपंचार्थ, पांचवां गुरुरूप और छठा शिष्य के आत्मानुरूप कार्य है। पहला स्वर अकार, दूसरा उकार, तीसरा मकार है। इसी पर नाद रूपी बिंदु है। इन्हीं को वेद में ॐकार कहा गया है। यही समष्टि रूप है। नाद में ही सबकी समष्टि है। अकार, उकार और मकार ये सब बिंदु नाद के आदि हैं। व्यष्टि रूप में सिद्ध होकर ओंकार की उत्पत्ति होती है, जो शिवजी का याचक है। इसी प्रकार ॐकार रूपी पांच वर्णों की समष्टि कला भी शिवजी की वाचक है। जो त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के उपदेश मार्ग का अनुसरण करते हैं उन्हें अवश्य ही शिवपद की प्राप्ति होती है। प्रणव मंत्र शिव का ही रूप है।

【कैलाश संहिता】

पंद्रहवाँ अध्याय

"उपासना मूर्ति"

   भगवान स्कंद बोले ;– त्रिलोकीनाथ! कल्याणकारी भगवान शिव ही इस संसार के सृष्टिकर्ता और आकाश के अधिपति हैं। वे ही समष्टि हैं और वे ही व्यष्टि भी हैं। उन्हीं देवाधिदेव सदाशिव से महेश्वर की उत्पत्ति हुई है। अनंत रूप पुरुष होने के कारण वायु के भी अधिपति हैं। वे ही सभी प्रकार की मायाओं और शक्तियों से युक्त हैं। ईश्वर, विश्वेश्वर, परमेश्वर और सर्वेश्वर यही चतुष्टय व्यष्टि रूप कहा गया है। यही श्रेष्ठ तिरोभाव चक्र कहा जाता है। तिरोभाव दो प्रकार का होता है- रुद्रादि गोचर एवं जीव समूह का शरीर रूप । पाप और पुण्य जब तक इस संसार में हैं, तब तक इसमें कर्म की साम्यता रहती है। इसी में अनुग्रह करने की सामर्थ्य होती है। इसी विभु में तिरोभाव और कर्म की साम्यता होती है। वही कल्याणकारी भगवान शिव ही साक्षात परब्रह्म, निर्विकल्प तथा निरामय स्वरूप हैं। तिरोभाव के शांतिकलामय तिरोभाव चक्र को महेश्वर के अधिष्ठित उत्तम पद कहा गया है।

  महेश्वर के चरणों की सच्चे हृदय से भक्ति करने वाले को यही पद प्राप्त होता है। उन्हीं महेश्वर के हजारवें अंश से रुद्र उत्पन्न हुए हैं। वे अधीर शरीरधारी और तेज तत्व के स्वामी हैं। वे प्रभु ही वाम भाग में देवी गौरी शक्ति धारण करते हैं। रुद्र ही पापियों का संहार करने वाले हैं। व्यष्टि रूप शिव, हर, मुंड और भव अद्भुत चक्रविदित हैं। ये सप्रावरण से रक्षित होते हैं। इनके ऊपर की ओर दस गुना जल है। इस जल के मध्य में रहने वाले को श्रुति द्वारा जलमध्यसायी कहा जाता है। भगवान शिव अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, स्थित और सृष्टि से युक्त होकर नई-नई लीलाएं करते रहते हैं। वे ही सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं।

【कैलाश संहिता】

सोलहवाँ अध्याय

"शिव तत्व विवेचन"

सूत जी बोले ;- मुनि वामदेव को भगवान स्कंद के मुख से ओंकाररूपी अमृत कथा का श्रवण करके आनंद की अनुभूति हुई । 

वे बोले ;- प्रभु ! इस अमृतमयी कथा को सुनकर मेरा ज्ञान और बढ़ गया है परंतु फिर भी मैं आपसे एक प्रश्न पूछता हूं। भगवन्! सदाशिव से लेकर कीर्ति पर्यंत तक इस जगत में स्त्री-पुरुष ही दिखाई देते हैं। इस रूपवान अद्भुत संसार की उत्पत्ति का कारण वे परमेश्वर ही हैं या कोई अन्य रूप है? विद्वान और शास्त्रों के अनुसार इसके अनेक प्रकारों का वर्णन करते हैं। कृपा कर मुझे जगतस्रष्टा भगवान शिव के भाव का वर्णन कीजिए।

मुनि वामदेव के इस प्रकार उपनिषद गर्भित रहस्य को समझकर,,

 स्कंद देव बोले ;- हे महामुनि! जिन परम शिव तत्व, शिव ज्ञान को आप सुनना चाहते हैं, वह मैं आपको सुनाता हूं। यही ज्ञान मेरे पिता देवाधिदेव भगवान शिव ने मेरी माता देवी पार्वती को सुनाया था। उस समय मैं छोटा सा बालक था और मां की गोद में बैठकर दूध पी रहा था। वे बातें आज भी मुझे याद हैं। कर्मसत्ता से लेकर सभी शास्त्रों में लिखा सभी कुछ ज्ञानदायक है। आप जैसे ज्ञानी पुरुष ही इतना कुछ जानते हुए भी भगवान के विषय में और अधिक जानने की जिज्ञासा रखते हैं परंतु मूर्ख और अज्ञानी पुरुष तो सबकुछ जानते और समझते हुए भी ईश्वर के स्वरूप से इनकार कर देते हैं।

    परमेश्वर परमात्मा को जानना एवं उन्हें पहचानने में कोई संदेह एवं परेशानी नहीं है। वे स्त्री-पुरुष के रूप में विश्व के सामने प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। श्रुतियों ने ही कहा है कि सच्चिदानंद परब्रह्म सिर्फ सत्य है। जो भी असत्य एवं प्रपंचों से निवृत्त अथवा दूर होकर सदाचार के मार्ग का अनुसरण करते हैं वे सदात्मा कहलाते हैं। वही प्रकाश से चित्त होकर जगत के कारण बन जाते हैं, वे ही शिव भक्ति भाव को प्राप्त हुए हैं। उन्हीं को भगवान शिव और शक्ति संयोग से परम आनंद की प्राप्ति होती है।

【कैलाश संहिता】

सत्रहवाँ अध्याय

"शिव ही प्रकृति के कारण रूप हैं"

वामदेव जी बोले ;- भगवन् ! पूर्व में आपने ही प्रकृति के नीचे नियति और ऊपर पुरुष बताया था। फिर आज आप यह क्या कह रहे हैं? प्रभु मेरा संशय दूर कीजिए। तब मुनि वामदेव जी के वचन सुनकर,,

 स्कंद जी बोले ;- हे मुने! अद्वैत सेवावाद में द्वैत सेवावाद का कोई समावेश नहीं होता। यह नश्वर और अविनाशी है। भगवान शिव ही सच्चिदानंद स्वरूप वाले परमब्रह्म हैं। इन्हीं त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी शिव को ही सर्वज्ञ, सबका कर्ता एवं त्रिवेदों का उत्पादक कहा जाता है।

  वे सर्वेश्वर शिव ही अपनी माया और इच्छा के अनुरूप संकुचित रूप धारण कर पांचों कला में निपुण पुरुष हो गए हैं। वे ही भोक्ता हैं, जो कि प्रकृति के सभी गुणों को भोगने वाले हैं। वे ही समष्टि और चित्त प्रकृति तत्व के स्वामी हैं । प्रकृति के गुण सत्व से उत्पन्न हुए हैं। गुणों से बुद्धि और बुद्धि से ही अहंकार की उत्पत्ति होती है। तब उससे तेज और उससे मन, बुद्धि और इंद्रियों की उत्पत्ति हुई है। मन के रूप को संकल्प विकल्पात्मक कहा गया है। बुद्धि, इंद्रिय, कान, त्वक्, चक्षु, जिह्वा, शब्द, रूप, स्पर्श, रस, गंध, प्रवृत्ति को बुद्धि और इंद्रियों में श्रोत का क्रम कहा गया है। वैचारिक अहंकार से कर्मेंद्रियों की उत्पत्ति हुई है। जिन्हें मुनियों ने सूक्ष्म कहा है। फिर तन्मात्राएं और शब्द के रूप हुए जिनसे आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी की उत्पत्ति हुई । ये ही पंचमहाभूत कहलाते हैं। शब्दादि रूप, रस, गंध उनकी तन्मात्राएं कहलाए। आकाश, वहन, पाचन वेग आदि पांच महा कहलाए ।

   इस प्रकार स्कंद जी का वेदांतयुक्त वचन सुनकर मुनि वामदेव बहुत प्रसन्न हुए और हाथ जोड़कर पृथ्वी पर लेटकर उन्हें दण्डवत प्रणाम करने लगे। उनके चरणारविंदों में उन्हें परम तत्व ज्ञान प्राप्त हो गया था।

【कैलाश संहिता】

अठारहवाँ अध्याय

"शिष्य धर्म"

सूत जी बोले ;--- मुनि वामदेव ने भगवान स्कंद से पूछा - हे भगवन्! आप सर्वतत्व को - जानने वालों में श्रेष्ठ हैं। आप मुझ पर कृपा करके संप्रदाय के उस ज्ञान के बारे में बताइए, जिसके बिना जीवों को भोग और मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती प्रभो! कृपा कर मेरे इस संशय को दूर कीजिए। 

तब वामदेव जी के इन वचनों को सुनकर,,,

 स्कंद देव बोले ;- मुनिश्वर ! अब मैं आपको एक परम गुप्त तत्व के बारे में बताता हूं। वैशाख, श्रावण, आश्विन, कार्तिक, अगहन, माघ महीनों के शुक्ल पक्ष में पंचमी अथवा पूर्णिमा के दिन स्नान करके शुद्ध होकर अपने गुरु के चरणों को धोकर उनके पास रखे आसन पर शंख में फूलों को अभिमंत्रित करके रखें। तत्पश्चात गंध और पुष्प से पूजन करें।

  उसके समक्ष दीप प्रज्वलित करें। मुद्रा से रक्षा कर कवच को मंत्रों से आच्छादित करें। तत्पश्चात विधिपूर्वक अर्घ्य दें और सुगंधित पुष्पों से पूजन करें। आधार पर सुगंधित जल का घट रखकर उसे सूत से लपेटें। उस घट पर पीपल, पिलखन, जामुन, आम और बड़ नामक पांचों पेड़ों की छाल और पत्ते तथा हाथी, घोड़े, रथ, बांबी और नदी के संगम स्थान की मिट्टी में सुगंधि को मिलाकर उसे कलश पर लेपें । लेपने के बाद आम के पत्ते, कुश का अग्र, नारियल, फूल आदि वस्तुओं से कलश को सजाएं।

   सजाने के बाद कलश में पंचरत्न डालें। यदि पंचरत्न न हों तो सुवर्ण डालें। नील, माणिक्य, सुवर्ण, मूंगा और गोमेद नामक पांच रत्नों को 'नृमलस्क' का उच्चारण करते हुए अंत में 'ग्लूमू' कहते हुए विधि-विधान से पूजन करें। खीर और तांबूल अर्पित कर आठ नामों का जाप करते हुए पूजा करें। गुरु द्वारा बताई हुई विधि से अनुष्ठान सहित भगवान शिव की पूजा-अर्चना करें। फिर गुरु को अपने शिष्य को 'हं सोऽहं' मंत्र का उपदेश देना चाहिए। उपदेश के बाद भस्म का ज्ञान प्रदान करना चाहिए। उस समय गुरु को अपने मन में यही विचार करना चाहिए कि मैं ही शिव हूं। इस प्रकार शिष्य को ज्ञान दें।

【कैलाश संहिता】

उन्नीसवाँ अध्याय

"योगपट्ट वर्णन"

भगवान स्कंद बोले ;– मुनि वामदेव ! अपने शिष्य को पूजा विधि का वर्णन करने के पश्चात गुरु निम्न बातों का उच्चारण करें - मैं ब्रह्म हूं। वह तू है । आत्मा ही ब्रह्म है । सारा संसार ईश्वर से अधिष्ठित होता है। मैं ही प्राण हूं। आत्मा ही ज्ञान का सार है। प्रज्ञान आत्मा ही यहां विदित अवस्थित है। वही तुम्हारा, मेरा अर्थात सबका अंतर्यामी है। वही ज्ञान रूपी अमृत है। वह एक ही पुरुष में और आदित्य में है। वही परब्रह्म मैं हूं। सबसे परे और सबका ज्ञाता और वेद शास्त्रों का गुरु मैं ही हूं। इस संसार में सारे आनंद का क्षण मैं ही हूं।

   सर्वभूतों के हृदय में व्याप्त रहने वाला मैं ही ईश्वर हूं। सारे तत्वों का और पृथ्वी का प्राण मैं ही हूं। मैं ही जल और तेज का प्राण हूं। आकाश और वायु का प्राण मैं हूं। मैं ही त्रिगुण का प्राण हूं। मैं ही अद्वितीय और सर्वात्मक हूं। यह सब ब्रह्मरूप है। मैं ही मुक्त स्वरूप हूं। इसलिए मेरा ध्यान करना चाहिए। इस प्रकार भगवान स्कंद ने वामदेव जी से योगपट्ट का वर्णन किया।

【कैलाश संहिता】

बीसवाँ अध्याय

"क्षौर एवं स्नान विधि"

भगवान स्कंद बोले ;– हे मुनिश्वर ! अब मैं आपको यतियों को शुद्धि प्रदान करने वाले क्षौर और स्नान की विधि बताता हूं।

   जब शिष्य योग पद को प्राप्त हो जाए तब व्रत करने से पूर्व क्षौर करना चाहिए। गुरु को नमस्कार कर उनकी आज्ञा से क्षौर कराएं। फिर नाई के कपड़े को मिट्टी और जल से धुलाएं। फिर शिव नाम का उच्चारण करते हुए हाथ की अनामिका और अंगूठे को अभिमंत्रित करें। आंखें बंद कर मंत्र का उच्चारण करें और दाहिनी ओर से क्षौर कराएं। आगे से पीछे की ओर सिर मुड़वाएं और फिर मूंछें भी साफ कराएं और नाखून काट लें।

   तत्पश्चात नदी में बारह डुबकी लगाकर स्नान करें। बेल, पीपल या तुलसी के नीचे की मिट्टी लेकर उसका प्रोक्षण कर अभिमंत्रित करें। उस मिट्टी के तीन भाग करें। एक भाग से बारह बार हाथ मलकर साफ करें। दूसरे भाग की मिट्टी को सिर से मुंह तक लेप करके बारह बार जल में डुबकी लगाएं। फिर सोलह बार कुल्ला कर दो बार आचमन करें। बची हुई मिट्टी का पूरे शरीर पर लेप करें।

मन में ॐकार का भक्तिपूर्वक जाप करते हुए सोलह बार प्राणायाम करें। फिर ज्ञान देने वाले गुरु का ध्यान करते हुए तीन बार साष्टांग प्रणाम करें। तत्पश्चात तीर्थस्थान के जल में डुबकी लगाते हुए त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव का स्मरण करें।

वे देवाधिदेव महादेव ही संसार को तारने वाले हैं। वे ही सबका कल्याण करते हैं। इस प्रकार मैंने आपको स्नान की पूर्ण विधि बताई।

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