शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड) के सोलहवें अध्याय से बीसवें अध्याय तक (From the sixteenth to the twentieth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (3rd volume))

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

सोलहवाँ अध्याय 

"तारक का स्वर्ग त्याग"


ब्रह्माजी बोले ;- नारद जी ! सभी देवता तारकासुर के डर के कारण मारे-मारे इधर-उधर भटक रहे थे। इंद्र ने सभी देवताओं को मेरे पास आने की सलाह दी। सभी मेरे पास आए। सभी देवताओं ने मुझे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और मेरी अनेकों प्रकार से स्तुति करने लगे । अपना दुख दर्द बताते हुए देवता कहने लगे ;- हे विधाता! हे ब्रह्माजी ! आपने ही तारकासुर को अभय का वरदान दिया है। तभी से तारक त्रिलोकों को जीतकर अभिमानी होता जा रहा है। उसने लोगों को डरा-धमकाकर उन्हें अपने अधीन कर लिया है। तारक ने स्वर्ग पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया है और हम सभी को स्वर्ग से निकाल दिया है। उसने इंद्र के सिंहासन पर भी अपना अधिकार कर लिया है। अब उसके आदेश से उसके असुर हमारे प्राणों के प्यासे बनकर हमें ही ढूंढ़ रहे हैं। तभी हम अपने प्राणों की रक्षा के लिए आपकी शरण में आए हैं। हे प्रभु! हमारे दुखों को दूर कीजिए।

देवताओं के कष्टों को सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ। 

मैंने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा ;- मैं इस संबंध में कुछ भी नहीं कर सकता, क्योंकि तारकासुर के घोर तप से प्रसन्न होकर ही मैंने उसे अतुल्य बलशाली होने का वर प्रदान किया था, परंतु उसने मदांध होकर सभी देवताओं और मनुष्यों को प्रताड़ित किया है और उनकी संपत्तियों पर जबरदस्ती अपना अधिकार कर लिया है, इसलिए अब आप सभी इस बात से निश्चिंत रहिए कि एक दिन तारकासुर का विनाश अवश्य ही होगा। उसकी मृत्यु जरूर होगी पर इस समय हम विवश हैं। इस समय तारक को मैं, विष्णुजी और शिवजी इन तीनों में से कोई भी नहीं मार सकता क्योंकि उसने मुझसे वर पाया है कि उसका वध शिवजी के वीर्य से उत्पन्न उनके पुत्र के द्वारा ही हो सकता है। इसलिए तुम सबको शिवजी के विवाह के पश्चात उनके पिता बनने तक प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी। प्रतीक्षा के अलावा अन्य कोई भी उपाय संभव नहीं है।

यह सुनकर इंद्र सहित सभी देवता असमंजस में पड़ गए तथा पूछने लगे कि प्रभु महादेव जी की प्रिय पत्नी सती ने तो अपना शरीर योगाग्नि में नष्ट कर दिया है। अब वे कैसे और किससे विवाह करेंगे और यह कैसे संभव हो सकेगा? तब मैंने उन्हें बताया कि प्रजापति दक्ष की पुत्री और त्रिलोकीनाथ शिवजी की प्राणवल्लभा सती हिमालय पत्नी मैना के गर्भ से जन्म लेकर बड़ी हो गई हैं। उनका नाम पार्वती है। पार्वती ही भगवान शिव की पत्नी बनने का गौरव प्राप्त करेंगी। अतः अब तुम भगवान शिव के पास जाकर उन्हें विवाह के लिए राजी करने की कोशिश करो। शिव-पार्वती का पुत्र ही तुम्हें तारकासुर के भय से मुक्त करा सकता है। अतएव तुम भगवान शिव से प्रार्थना करो कि वे पार्वती के साथ विवाह करने के लिए राजी हो जाएं। इस बात को अच्छे से जान लो कि शिवपुत्र ही तुम्हारा उद्धार कर सकता है। अब मैं तारकासुर को समझाता हूं कि वह व्यर्थ में देवताओं को तंग करना बंद कर दे और उन्हें उनका भाग वापिस दे दे और स्वयं भी शांति से जीवन यापन करे। यह कहकर मैंने इंद्र व अन्य देवताओं को वहां से विदा किया। तत्पश्चात मैं स्वयं तारकासुर को समझाने के लिए उसके पास गया। तारकासुर ने मुझे प्रणाम किया और मेरी स्तुति एवं वंदना करने लगा।

मैंने तारकासुर से कहा ;- हे पुत्र तारक! मैंने तुम्हारी भक्तिभाव से की गई तपस्या से प्रसन्न होकर तुम्हें मनोवांछित वर प्रदान किए थे। वे वरदान मैंने खुशी से तुम्हारी बेहतरी के लिए दिए थे परंतु तुम उन वरदानों का गलत उपयोग कर रहे हो। वर प्राप्त करने के उपरांत तुम अपनी सीमाओं को भूल गए हो। अनावश्यक अभिमान के नशे में चूर होकर तुम्हें यह भी याद नहीं रहा कि देवता सर्वथा पूजनीय और वंदनीय होते हैं। तुमने उन्हें भी कष्ट पहुंचाया है। साथ ही उन्हें स्वर्ग से निकालकर बेघर कर दिया है। तुम्हारे सशस्त्र सैनिक अभी भी देवताओं को मारने के लिए ढूंढ़ रहे हैं। तारकासुर, स्वर्ग पर सिर्फ देवताओं का ही अधिकार है। वहां से उन्हें निकालने की तुम्हारी कैसे हिम्मत हुई? स्वर्ग का राज्य छोड़कर वापिस पृथ्वी पर लौट जाओ और वहीं पर शासन करो। यह मेरी आज्ञा है।

तारकासुर को यह आदेश देकर मैं वहां से लौट आया। तत्पश्चात तारकासुर ने मेरी का सम्मान करते हुए स्वर्ग का राज्य छोड़ दिया। वह पृथ्वी पर आकर शोणित नामक नगर पर शासन करने लगा। मेरी आज्ञा पाकर देवताओं सहित देवेंद्र स्वर्गलोक को चले गए और पूर्व की भांति पुनः स्वर्ग का शासन करने लगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

सत्रहवाँ अध्याय 

"कामदेव का शिव को मोहने के लिए प्रस्थान"


ब्रह्माजी बोले ;- नारद! स्वर्ग में सब देवता मिलकर सलाह करने लगे कि किस प्रकार से भगवान रुद्र काम से सम्मोहित हो सकते हैं? शिवजी किस प्रकार पार्वती जी का पाणिग्रहण करेंगे? यह सब सोचकर देवराज इंद्र ने कामदेव को याद किया। कामदेव तुरंत ही वहां पहुंच गए। तब इंद्र ने कामदेव से कहा- हे मित्र ! मुझ पर बहुत बड़ा दुख आ गया है। उस दुख का निवारण सिर्फ तुम्हीं कर सकते हो। हे काम। जिस प्रकार वीर की परीक्षा रणभूमि में, स्त्रियों के कुल की परीक्षा पति के असमर्थ हो जाने पर होती है, उसी प्रकार सच्चे मित्र की परीक्षा विपत्ति काल में ही होती है। इस समय मैं भी बहुत बड़ी मुसीबत में फंसा हुआ हूं और इस विपत्ति से आप ही मुझे बचा सकते हैं। यह कार्य देव हित के लिए है। इसमें कोई संशय नहीं है।

 देवराज इंद्र की बातें सुनकर कामदेव मुस्कुराए और बोले ;- हे देवराज! इस संसार में कौन मित्र है और कौन शत्रु, यह तो वाकई देखने की वस्तु है । इसे कहकर कोई लाभ नहीं है। देवराज, मैं आपका मित्र हूं और आपकी सहायता करने की पूरी कोशिश अवश्य ही करूंगा। इंद्रदेव, जिसने आपके पद और राज्य को छीनकर आपको परेशान किया है मैं उसे दण्ड देने के लिए आपकी हर संभव मदद अवश्य करूंगा। अतः जो कार्य मेरे योग्य है, मुझे अवश्य बताइए।

कामदेव के इस कथन को सुनकर इंद्रदेव बड़े प्रसन्न हुए और उनसे बोले ;- हे तात! मैं जो कार्य करना चाहता हूं उसे सिर्फ आप ही पूरा कर सकते हैं। आपके अतिरिक्त कोई भी उस कार्य को करने के विषय में सोच भी नहीं सकता। तारक नाम का एक प्रसिद्ध दैत्य है। तारक ने ब्रह्माजी की घोर तपस्या करके वरदान प्राप्त किया है। तारक अजेय हो गया है। अब वह पूर्णतः निश्चिंत होकर पूरे संसार को कष्ट दे रहा है। वह धर्म का नाश करने को आतुर है। उसने सभी देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों को दुखी कर रखा है। हम देवताओं ने उससे युद्ध किया परंतु उस पर अस्त्र-शस्त्रों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यही नहीं, स्वयं श्रीहरि का सुदर्शन चक्र भी तारक का कुछ नहीं बिगाड़ सका। मित्र, भगवान शिव के वीर्य से उत्पन्न हुआ बालक ही तारकासुर का वध कर सकता है। अतः तुम्हें भगवान शिव के हृदय में आसक्ति पैदा करनी है।

भगवान शंकर इस समय हिमालय पर्वत पर तपस्या कर रहे हैं और देवी पार्वती अपनी सखियों के साथ मिलकर महादेव जी की सेवा कर रही हैं। ऐसा करने के पीछे देवी पार्वती का उद्देश्य प्रभु शिव को पति रूप में प्राप्त करना है परंतु भगवान शिव तो परम योगी हैं। उनका मन सदैव ही उनके वश में है। हे कामदेव! आप कुछ ऐसा उपाय करें कि भगवान शंकर के हृदय में पार्वती का निवास हो जाए और वे उन्हें अपनी प्राणवल्लभा बना उनका पाणिग्रहण कर लें। आप कुछ ऐसा कार्य करें जिससे देवताओं के सभी कष्ट दूर हो जाएं और हम सभी को तारकासुर नामक दैत्य से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाए। यदि कामदेव आप ऐसा करने में सफल हो जाएंगे तो हम सभी आपके सदैव आभारी रहेंगे। 

ब्रह्माजी बोले ;- नारद! देवराज इंद्र के कथन को सुनकर कामदेव का मुख प्रसन्नता से खिल गया। तब कामदेव देवराज से कहने लगे कि मैं इस कार्य को अवश्य करूंगा। इंद्रदेव को कार्य करने का आश्वासन देकर कामदेव अपनी पत्नी रति और वसंत को अपने साथ लेकर हिमालय पर्वत पर चल दिए, जहां शिवजी तपस्या कर रहे थे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

अठारहवाँ अध्याय 

"कामदेव का भस्म होना"

ब्रह्माजी बोले ;– हे मुनि नारद! कामदेव अपनी पत्नी रति और वसंत ऋतु को अपने साथ लेकर हिमालय पर्वत पर पहुंचे जहां त्रिलोकीनाथ भगवान शिव शंकर तपस्या में मग्न बैठे थे। कामदेव ने शिवजी पर अपने बाण चलाए। इन बाणों के प्रभाव से शिवजी के हृदय में देवी पार्वती के प्रति आकर्षण होने लगा तथा उनका ध्यान तपस्या से हटने लगा। ऐसी स्थिति देख महायोगी शिव अत्यंत आश्चर्यचकित हुए और मन में सोचने लगे कि मैं क्यों अपना ध्यान एकाग्रचित्त नहीं कर पा रहा हूं? मेरी तपस्या में यह कैसा विघ्न आ रहा है?

अपने मन में यह सोचकर भगवान शिव इधर-उधर चारों ओर देखने लगे। जब महादेव जी की दृष्टि दिशाओं पर पड़ी तो वे भी डर के मारे कांपने लगीं। तभी भगवान शिव की दृष्टि सामने छिपे हुए कामदेव पर पड़ी। उस समय काम पुनः बाण छोड़ने वाले थे। उन्हें देखते ही शिवजी को बहुत क्रोध आ गया। इतने में काम ने अपना बाण छोड़ दिया परंतु क्रोधित हुए शिवजी पर उसका कोई प्रभाव नहीं हो सका। वह बाण शिवजी के पास आते ही शांत हो गया। तब अपने बाण को बेकार हुआ देख कामदेव डर से कांपने लगे और इंद्र आदि देवताओं को याद करने लगे। सभी देवतागण वहां आ पहुंचे और महादेव जी को प्रणाम करके उनकी भक्तिभाव से स्तुति करने लगे।

जब देवतागण उनकी स्तुति कर ही रहे थे तभी भगवान शिव के मस्तक के बीचोंबीच स्थित तीसरा नेत्र खुला और उसमें से आग निकलने लगी। वह आग आकाश में ऊपर उड़ी और अगले ही पल पृथ्वी पर गिर पड़ी। फिर चारों ओर गोले में घूमने लगी। इससे पूर्व कि इंद्रदेव या अन्य देवता भगवान शिव से क्षमायाचना कर पाते, उस आग ने वहां खड़े कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया। कामदेव के मर जाने से देवताओं को बड़ी निराशा व दुख हुआ। वे यह देखकर बड़े व्याकुल हो गए कि काम उनकी वजह से ही शिवजी के क्रोध का भागी बना।

कामदेव के अग्नि में जलने का दृश्य देखकर वहां उपस्थित देवी पार्वती और उनकी सखियां भी अत्यंत भयभीत हो गईं। उनका शरीर जड़ हो गया, जैसे शरीर का खून सफेद हो गया हो। पार्वती अपनी सखियों के साथ तुरंत अपने घर की ओर चली गईं। कामदेव की पत्नी रति तो मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। मूर्च्छा टूटने पर वह जोर-जोर से विलाप करने लगी अब मैं क्या करूं? कहां जाऊं? देवताओं ने मेरे साथ बहुत बुरा किया, जो मेरे पति को यहां भेजकर शिवजी के क्रोध की अग्नि में भस्म करा दिया। हे स्वामी! हे प्राणप्रिय ! ये आपको क्या हो गया? इस प्रकार देवी रति रोती-बिलखती हुई अपने सिर के बालों को जोरों से नोचने लगी। उनके करुण क्रंदन को सुनकर समस्त चराचर जीव भी अत्यंत दुखी हो गए। तत्पश्चात इंद्र आदि देवता वहां देवी रति को धैर्य देते हुए उन्हें समझाने लगे।

देवता बोले ;– हे देवी! आप अपने पति कामदेव के शरीर की भस्म का थोड़ा सा अंश अपने पास रख लो और अनावश्यक भय से मुक्त हो जाओ। त्रिलोकीनाथ करुणानिधान शिवजी अवश्य ही कामदेव को पुनः जीवित कर देंगे। तब तुम्हें पुनः कामदेव की प्राप्ति हो जाएगी। वैसे भी संसार में सबकुछ पूर्व निश्चित कर्मों के अनुसार ही होता है। अतः आप दुख को त्याग दें। भगवान शिव अवश्य ही कृपा करेंगे।

इस प्रकार देवी रति को अनेक आश्वासन देकर सभी देवता शिवजी के पास गए और उन्हें प्रणाम करते हुए कहने लगे - हे भक्तवत्सल ! हे त्रिलोकीनाथ। भगवान आप कामदेव के ऊपर किए अपने क्रोध पर पुनः विचार अवश्य करिए। कामदेव यह कार्य अपने लिए नहीं कर रहे थे। इसमें उनका निजी स्वार्थ कतई नहीं था। हे भगवन्! हम सभी तारकासुर के सताए हुए थे। उसने हमारा राज्य छीनकर हमें स्वर्ग से निष्कासित कर दिया था। इसलिए तारकासुर का विनाश करने के लिए ही कामदेव ने यह कार्य किया था। आप कृपा करके अपने क्रोध को शांत करें और रोती-बिलखती कामदेव की पत्नी रति को समझाने की कृपा करें। उसे सांत्वना दें। अन्यथा हम यही समझेंगे कि आप हम सभी देवताओं और मनुष्यों का संहार करना चाहते हैं । हे प्रभु! कृपा कर रति का शोक दूर करें।

तब सदाशिव बोले ;- हे देवगणो! हे ऋषियो! मेरे क्रोध के कारण मैंने कामदेव को अपने तीसरे नेत्र से भस्म कर दिया है। जो कुछ हो गया है उसको अब बदला नहीं जा सकता, परंतु कामदेव का पुनर्जन्म अवश्य होगा। जब विष्णु भगवान श्रीकृष्ण का अवतार लेंगे और रुक्मणी को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकारेंगे, तब देवी रुक्मणी के गर्भ से श्रीकृष्ण के पुत्र के रूप में कामदेव जन्म लेंगे। उस समय कामदेव प्रद्युम्न नाम से जाने जाएंगे। प्रद्युम्न के जन्म के तुरंत बाद ही शंबर नाम का असुर उसका अपहरण कर लेगा और उसे समुद्र में फेंक देगा। रति तब तक तुम्हें शंबर के नगर में ही निवास करना होगा। वहीं पर तुम्हें अपने पति कामदेव की प्रद्युम्न के रूप में प्राप्ति होगी। वहीं पर प्रद्युम्न के द्वारा शंबरासुर का वध होगा।

भगवान शिव की बात सुनकर देवताओं ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें प्रणाम किया और बोले ;- हे देवाधिदेव महादेव! करुणानिधान! आप कामदेव को जीवन दान दें और कामदेव के पुनर्जन्म तक देवी रति के प्राणों की रक्षा करें।

देवताओं की यह बात सुनकर करुणानिधान भगवान शिव ने कहा कि मैं कामदेव को अवश्य ही जीवित कर दूंगा। वह मेरा गण होकर आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करेगा। अब तुम सब निश्चिंत होकर अपने-अपने धाम को जाओ। ऐसा कहकर महादेवजी भी वहां से अंतर्धान हो गए। उनके कहे वचनों से देवताओं की सभी शंकाएं दूर हो गईं। तत्पश्चात देवताओं ने कामदेव की पत्नी रति को अनेकों आश्वासन दिए और फिर अपने धाम को चले गए। देवी रति भी शिव आज्ञा के अनुसार शंबर नगर को चली गई और वहां पहुंचकर अपने प्रियतम के  प्रकट होने की प्रतीक्षा करने लगीं।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

उन्नीसवाँ अध्याय 

"शिव क्रोधाग्नि की शांति"


ब्रह्माजी बोले ;– हे नारद जी ! जब भगवान शंकर ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसकी अग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया तो इस त्रिलोक के सभी चराचर जीव डर के मारे कांपने लगे और भयमुक्ति और महादेवजी के क्रोध को शांत कराने के लिए मेरे पास बड़ी आशा के साथ आए। उन्होंने मुझे अपने कष्टों और दुखों से अवगत कराया। तब सबकुछ जानकर मैं भगवान शंकर के पास पहुंचा। वहां पहुंचकर मैंने देखा कि भगवान शंकर का क्रोध सातवें आसमान पर था। वे भयंकर क्रोध की अग्नि में जल रहे थे। मैंने उस धधकती अग्नि को शिवजी की कृपा से अपने हाथ में पकड़ लिया और समुद्र के पास जा पहुंचा। 

मुझे अपने पास आया देखकर समुद्र ने पुरुष रूप धारण किया और मेरे पास आ गए और बोले ;- हे विधाता! हे ब्रह्माजी! मैं आपकी क्या सेवा करूं?

यह सुनकर ब्रह्माजी कहने लगे ;- हे सागर! भगवान शिव शंकर ने अपने तीसरे नेत्र की अग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया है। इस क्रोधाग्नि से पूरा संसार जलकर राख हो सकता है। इसी कारण मैं इस क्रोधाग्नि को रोककर आपके पास ले आया हूं । हे सिंधुराज ! मेरी आपसे यह विनम्र प्रार्थना है कि सृष्टि के प्रलयकाल तक आप इसे अपने अंदर धारण कर लें । जब मैं आपसे इसे मुक्त करने के लिए कहूं तभी आप इस शिव-क्रोधाग्नि का त्याग करना। आपको ही इसे भोजन और जल प्रतिदिन देना होगा तथा इसे अपने पास धरोहर के रूप में सुरक्षित रखना होगा।

इस प्रकार मेरे कहे अनुसार समुद्र ने क्रोधाग्नि को अपने अंदर धारण कर लिया। उसके समुद्र में प्रविष्ट होते समय पवन के साथ बड़े-बड़े आग के गोलों के रूप में क्रोधाग्नि समुद्र के पास धरोहर के रूप में सुरक्षित हो गई। तत्पश्चात मैं अपने लोक वापिस लौट आया।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

बीसवाँ अध्याय 

"शिवजी के बिछोह से पार्वती का शोक"


ब्रह्माजी कहते हैं ;— नारद! जब भगवान शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोलकर उसकी अग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया तब मैंने उस क्रोधाग्नि से भयभीत देवताओं सहित सभी प्राणियों को भय से मुक्त कराने के लिए उस अग्नि को शिव की आज्ञा से पकड़ लिया और उसे लेकर मैं समुद्र तट की ओर चल पड़ा। समुद्र को उस क्रोधाग्नि को सौंपकर मैं वापस अपने धाम लौट गया। तब पूरा जगत भयमुक्त होकर पहले की भांति प्रसन्न हो गया। नारद जी ने ब्रह्माजी से पूछा- हे दयानिधे! आप मुझे यह बताइए कि कामदेव के भस्म हो जाने पर पार्वती देवी ने क्या किया? वे अपनी सखियों के साथ कहां गईं? हे प्रभु! कृपया मुझे इस बारे में भी बताइए।

नारद जी के यह वचन सुनकर ब्रह्माजी बोले ;- भगवान शंकर के तीसरे नेत्र से उत्पन्न अग्नि ने जब कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया तब पूरा आकाश गूंजने लगा। यह दृश्य देखकर देवी पार्वती और उनकी सखियां डरकर अपने घर को चली गईं। वहां पहुंचकर पार्वती जी ने सारा हाल अपने माता-पिता को बताया, जिसे सुनकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। अपनी पुत्री को विह्वल देखकर हिमालय को बहुत दुख हुआ। हिमालय ने पार्वती के आंसुओं को पोछकर कहा- पार्वती! डरो मत और रोओ मत। तब हिमालय ने अपनी पुत्री को अनेकों प्रकार से सांत्वना दी।

कामदेव को भस्म करने के उपरांत शिवजी वहां से अंतर्धान हो गए। तब शिवजी को वहां न पाकर पार्वती अत्यंत व्याकुल हो गईं। उनकी नींद और चैन जाते रहे। वे दुखी और बेचैन रहने लगीं। उन्हें कहीं भी सुख-शांति का अनुभव नहीं होता था। तब उन्हें अपने रूप के प्रति भी शंका होती थी। पार्वती सोचतीं कि क्यों मैंने अपनी सखियों द्वारा समझाने पर भी कभी ध्यान नहीं दिया। देवी पार्वती सोते-जागते, खाते-पीते, नहाते-धोते, चलते-फिरते और अपनी सखियों के साथ होते हुए भी सिर्फ महादेव जी का ही ध्यान और चिंतन करती थीं। इस प्रकार उनका मन शिवजी के बिछोह की वेदना सहन नहीं कर पा रहा था। वे शारीरिक रूप से अपने पिता के घर और हृदय से भगवान शंकर के पास रहती थीं। शोक में डूबी पार्वती बार-बार मूर्च्छित हो जातीं थीं। इससे गिरिराज हिमालय और उनकी पत्नी मैना बहुत दुखी रहती थीं। वे पार्वती को समझाने की बहुत कोशिश करते थे परंतु पार्वती का ध्यान शिवजी की ओर से जरा भी नहीं हटता था

हे देवर्षि नारद! एक दिन देवराज इंद्र की इच्छा से आप घूमते हुए हिमालय पर्वत पर आए। तब शैलराज हिमालय ने आपका बहुत आदर-सत्कार किया और आपका कुशल मंगल पूछा। आपको उत्तम आसन पर बिठाकर हिमालय ने सारा वृत्तांत सुनाया। हिमालय ने बताया कि किस प्रकार पार्वती जी ने महादेवजी की सेवा आरंभ की। इसके बाद अपनी पुत्री के शिव पूजन से लेकर कामदेव के भस्म होने तक की सारी कथा आपको सुनाई। यह सब सुनकर आपने गिरिराज हिमालय से कहा कि आप भगवान शिव का भजन करें। तत्पश्चात हिमालय से विदा लेकर आप एकांत में गुम सुम बैठी देवी पार्वती के पास आ गए। तब उनका हित करने की इच्छा से आपने उन्हें इस प्रकार सत्य वचन कहे।

आपने कहा ;- हे पार्वती! तुम मेरी बातें ध्यानपूर्वक सुनो। तुम्हारी यह दशा देखकर ही में तुमसे यह बात कह रहा हूं। तुमने हिमालय पर्वत पर पधारे महादेवजी की सेवा की, परंतु तुम्हारे मन में कहीं न कहीं अहंकार का वास हो गया था। शिव भक्तवत्सल हैं। वे अपने भक्तों पर सदैव अपनी कृपादृष्टि बनाए रखते हैं। वे विरक्त और महायोगी हैं। तुम्हारे अंदर उत्पन्न हुए अभिमान को तोड़ने के लिए ही सदाशिव ने ऐसा किया है। अतः तुम उन्हें तपस्या द्वारा प्रसन्न करने का प्रयत्न करो। तुम चिरकाल तक उत्तम भक्ति भाव से उनकी तपस्या करो। तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर महादेवजी निश्चय ही तुम्हें अपनी सहधर्मिणी बनाना स्वीकार करेंगे यही शिवजी को पति रूप में प्राप्त करने का एकमात्र साधन है।

हे नारद! आपकी यह बात सुनकर देवी शिवा हर्षित होते हुए इस प्रकार बोली- हे मुनिश्रेष्ठ! आप सबकुछ जानने वाले तथा इस जगत का उपकार करने वाले हैं। अतः आप शिवजी की आराधना के लिए मुझे कोई मंत्र प्रदान करें। तब आपने पार्वती को पंचाक्षर शिव मंत्र 'ॐ नमः शिवाय' का विधिपूर्वक उपदेश दिया। इसके प्रभाव का वर्णन करते हुए आपने कहा – यह मंत्र सब मंत्रों का राजा है और सभी कामनाओं को पूरा करने वाला है। यह मंत्र भगवान शिव को बहुत प्रिय है। यह साधक को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। इस पंचाक्षर मंत्र का विधिपूर्वक व नियमपूर्वक जाप करने से शिवजी के साक्षात दर्शन होते हैं। देवी! इस मंत्र का विधिपूर्वक जाप करने से तुम्हारे आराध्य देव करुणानिधान भगवान शिव शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रकट हो जाएंगे। अतः तुम शुद्ध हृदय से शिवजी के चरणों का चिंतन करती हुई इस महामंत्र का जाप करो। इससे तुम्हारे आराध्य देव संतुष्ट होकर तुम्हें दर्शन देंगे। अब देवी पार्वती तुम इस मंत्र को जपते हुए शिवजी की तपस्या करो। इससे महादेव जी वश में हो जाते हैं। उत्तम भाव से की गई तपस्या से ही मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है।

ब्रह्माजी बोले ;- नारद! तुम भगवान शिव के प्रिय भक्त हो। तुम अपनी इच्छानुसार जगत में भ्रमण करते हो। तुमने देवी पार्वती को सभी कुछ समझाकर देवताओं के हित का कार्य किया। तत्पश्चात तुम स्वर्गलोक को चले गए। तुम्हारी बात सुनकर देवी पार्वती बहुत प्रसन्न हुई।

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