शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (द्वितीय खण्ड) के इकत्तीसवां से सैंतीसवां अध्याय तक (From the thirty-first to the thirty-seventh chapter of Shiva Purana Sri Rudra Samhita (Second Volume))


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

इकत्तीसवां अध्याय 

"आकाशवाणी"


ब्रह्माजी कहते हैं ;- हे नारद! जब दक्ष के उस महान यज्ञ में घोर उत्पात मचा हुआ था और सभी डर के कारण भयभीत हो रहे थे तो उस समय वहां पर एक आकाशवाणी हुई।

हे मूर्ख दक्ष! तूने यह बहुत बड़ा अनर्थ कर दिया है। तूने शिव भक्त दधीचि के कथन को प्रामाणिक नहीं माना, जो तेरे लिए परम मंगलकारी और आनंददायक था । तूने उनका भी अपमान किया और वे तुझे शाप देकर तेरी यज्ञशाला से चले गए। तब भी तू कुछ भी नहीं समझा। तूने अपने घर में स्वयं आई, साक्षात मंगल स्वरूपा अपनी पुत्री सती का अपमान किया। तूने सती और शंकर का पूजन भी नहीं किया। अपने को ब्रह्माजी का पुत्र समझकर तुझे बहुत घमंड हो गया था। तूने उस सती देवी का अपमान किया जो सत्पुरुषों की भी आराध्या हैं। वे समस्त पुण्यों का फल देती हैं। वे तीनों लोकों की माता, कल्याणस्वरूपा और भगवान शंकर की अर्द्धांगिनी हैं। सती देवी प्रसन्न होने पर सुख और सौभाग्य प्रदान करती हैं। वे परम मंगलकारी हैं। देवी सती की पूजा करने से समस्त भयों से छुटकारा मिल जाता है और मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। देवी सभी उपद्रवों को नष्ट कर देती हैं। वे ही पराशक्ति हैं तथा कीर्ति, संपत्ति, भोग और मोक्ष प्रदान करती हैं। वे ही जन्मदात्री हैं अर्थात जन्म देने वाली माता हैं। वे ही इस जगत की रक्षा करने वाली आदि शक्ति हैं और वे ही प्रलयकाल में जगत का संहार करने वाली हैं। सती ही भगवान विष्णु सहित ब्रह्मा, इंद्र, चंद्र, अग्नि, सूर्यदेव आदि सभी देवताओं की जननी हैं। वे साक्षात जगदंबा हैं। वे ही दुष्टों का नाश करने वाली और भक्तों की रक्षा करने वाली हैं। ऐसी उत्तम महिमा और गुणों वाली भगवान शिव की प्राणप्रिया धर्मपत्नी का तूने इस यज्ञ में अपमान किया है।

भगवान शिव तो परमब्रह्म परमेश्वर हैं। वे सबके स्वामी हैं। वे सबका कल्याण करते हैं। सभी मनुष्य प्रभु का दर्शन पाने की अभिलाषा सदैव अपने मन में रखते हैं। दर्शनों की इच्छा लिए घोर तपस्या करते हैं। वे भगवान शिव ही जगत को धारण कर उसका पालन-पोषण करते हैं। वे ही समस्त विद्याओं के ज्ञाता और मंगलों का भी मंगल करने वाले हैं। वे ही समस्त मनोकामनाओं को पूरा करते हैं। हे दुष्ट दक्ष! तूने उन परम शक्तिशाली भगवान शिव की शक्ति की अवहेलना करके बहुत बुरा किया है। इसलिए तेरे इस महायज्ञ के विनाश को कोई नहीं रोक सकता। जिनके चरणों की धूल शेषनाग रोज अपने मस्तक पर धारण करता हैं, जिनके चरणकमल का ध्यान करने से ब्रह्मा को ब्रह्मत्व प्राप्त हुआ है, तूने उनका और उनकी पत्नी सती का पूजन न करके बहुत अनिष्ट किया है। भगवान शिव ही इस संपूर्ण जगत के पिता और उनकी पत्नी देवी सती इस जगत की माता हैं। तूने उन माता-पिता का सत्कार न कर उनका घोर अपमान किया है। अब तेरा कल्याण कैसे हो सकता है? तूने स्वयं दुर्भाग्य से अपना नाता जोड़ लिया है। तूने देवी सती और भगवान शिव की भक्तिभाव से आराधना नहीं की। 

तेरी यह सोच ही कि कल्याणकारी शिव का पूजन किए बिना भी मैं कल्याण का भागी हो सकता हूं, तुझे ले डूबी है। तेरा सारा घमंड नष्ट हो जाएगा। यहां बैठा कोई भी देवता शिवजी के विरुद्ध होकर तेरी सहायता नहीं कर पाएगा। यदि करना भी चाहेगा तो स्वयं भी नष्ट हो जाएगा। अब तेरा अमंगल निश्चित है। सभी देवता और मुनिगण यज्ञ मण्डप को छोड़कर तुरंत यहां से अपने-अपने धाम को चले जाएं अन्यथा सबका नाश हो जाएगा।

इस प्रकार यज्ञशाला में उपस्थित सभी लोगों को चेतावनी देकर वह आकाशवाणी मौन हो गई।

【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

बत्तीसवां अध्याय 

"शिवजी का क्रोध"


ब्रह्माजी कहते हैं ;— नारद! उस आकाशवाणी को सुनकर सभी देवता और मुनि आश्चर्य से इधर-उधर देखने लगे। उनके मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला। वे अत्यंत भयभीत हो गए। उधर, भृगु के मंत्रों से उत्पन्न गणों द्वारा भगाए गए शिवगण, जो कि नष्ट होने से बच गए थे, शिवजी की शरण में चले गए। वहां पहुंचकर उन्होंने प्रभु को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और वहां यज्ञ में जो कुछ भी हुआ था, उसका और सती के शरीर त्यागने का सारा वृत्तांत उन्हें सुनाया।

शिवगण बोले ;– हे महेश्वर ! दक्ष बड़ा ही दुरात्मा और घमंडी है। उसने माता सती का बहुत अपमान किया। वहां उपस्थित देवताओं ने भी उनका आदर-सत्कार नहीं किया। उस घमंडी दक्ष ने यज्ञ में आपका भाग भी नहीं दिया। 

हे प्रभु! दक्ष ने आपके प्रति बुरे शब्द कहे। आपके विषय में ऐसी बातें सुनकर माता क्रोधित हो गईं और उन्होंने पिता की बहुत निंदा की। जब दक्ष ने उनका भी अपमान किया तो वे शांत होकर सोचने लगीं। फिर उन्होंने वहां उपस्थित सभी देवताओं और मुनियों को फटकारा, जिन्होंने आपका अनादर किया था। उन्होंने कहा कि शिव निंदा सुनकर मैं जीवित नहीं रह सकती। यह कहकर उन्होंने योगाग्नि में जलकर अपना शरीर भस्म कर दिया। यह देखकर बहुत से पार्षदों ने माता के साथ ही अपने शरीर की आहुति दे दी। तब हम सब शिवगण उस यज्ञ को विध्वंस करने के लिए तेजी से आगे बढ़े परंतु भृगु ऋषि ने मंत्रों द्वारा गणों को उत्पन्न कर हम पर आक्रमण कर दिया। हममें से बहुत से गणों को उन भृगु के गणों ने मार डाला । तब वहां आकाशवाणी हुई, जिसने कहा कि द तुम्हारा अंत अब निश्चित है तथा जो भी देवता एवं मुनि तुम्हारा साथ देंगे वे भी पाप के भागी बनकर मृत्यु को प्राप्त होंगे। यह सुनकर सभी उपस्थित लोग वहां से चले गए और हम यहां आपको इस विषय में बताने के लिए आपके पास चले आए। हे कल्याणकारी भगवान शिव! हे आप उस महादुष्ट अधर्मी दक्ष को उसके अपराध का कठोर दंड अवश्य दें। यह कहकर सभी गण चुप हो गए।

ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! अपने पार्षदों की बातें सुनकर भगवान शिव ने उस यज्ञ की सारी बातें और जानकारी जानने के लिए तुम्हारा स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही तुम वहां जा पहुंचे और भक्तिभाव से नमस्कार करके चुपचाप खड़े हो गए। तब महादेव जी ने तुमसे दक्ष के यज्ञ के विषय में पूछा। तब तुमने उत्तम भाव से उस यज्ञशाला में जो-जो हुआ था, वह सब वृत्तांत उन्हें सुना दिया। सारी बातों से अवगत होते ही भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए। पराक्रमी शंकर के क्रोध का कोई अंत न रहा। तब लोकसंहारी शंकर ने अपनी जटा का एक बाल उखाड़कर उसे कैलाश पर्वत पर दे मारा। जैसे ही वह बाल जमीन पर गिरा उसके दो टुकड़े हो गए। उस समय वहां बहुत भयंकर गर्जना हुई। बाल के प्रथम भाग से महापराक्रमी,

महाबली वीरभद्र प्रकट हुए, जो समस्त शिवगणों में शिरोमणि हैं। उनका शरीर बहुत बड़ा और विशाल था। उनकी एक हजार भुजाएं थीं। उस जटा के दूसरे भाग से अत्यंत भयंकर और करोड़ों भूतों से घिरी हुई महाकाली उत्पन्न हुई। उस समय रुद्र देव के क्रोधपूर्वक सांस लेने से सौ प्रकार के ज्वर और अनेक प्रकार के रोग पैदा हो गए। वे सभी शरीरधारी, क्रूर और भयंकर थे। वे अग्नि के समान तेज से प्रज्वलित थे। तब वीरभद्र और महाकाली ने दोनों हाथ जोड़कर भगवान शिव को प्रणाम किया।

वीरभद्र बोले ;- हे महारुद्र! आपने सोम, सूर्य और अग्नि को अपने तीनों नेत्रों में धारण किया है। हे प्रभु! कृपा कर मुझे आज्ञा दीजिए कि मुझे क्या कार्य करना है? क्या मुझे पृथ्वी के सभी समुद्रों को एक क्षण में सुखाना है या संपूर्ण पर्वतों को पीसकर पल भर में ही मसलकर चूर्ण बनाना है? 

       हे प्रभु! मैं इस ब्रह्माण्ड को भस्म कर दूं या मुनियों को जला दूं। भगवन्, आपका आदेश पाकर मैं समस्त लोकों में उलट-पुलट कर सकता हूं। आपके इशारा करने से ही मैं जगत के समस्त प्राणियों का विनाश कर सकता हूं। आपकी आज्ञा पाकर मैं इस संसार में सभी कार्यों को कर सकता हूं। हे प्रभु! मेरे समान पराक्रमी न तो कोई हुआ है और न ही होगा। भगवन्, आपकी आज्ञा से हर कार्य सिद्ध हो सकता है। मुझे ये सभी शक्तियां आपकी ही कृपा से प्राप्त हुई हैं। बिना आपकी आज्ञा के एक तिनका भी नहीं हिल सकता है। हे करुणानिधान! मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूं। आप अपने कार्य की सिद्धि की जिम्मेदारी मुझे सौंपिए। मैं उसे पूर्ण करने का पूरा प्रयास करूंगा। हे प्रभु! आपके चरणों का मैं हर समय चिंतन करता रहता हूं। आपकी भक्ति परम उत्तम है। आप बिना कहे ही अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं को पूरा करके उन्हें मनोवांछित और अभीष्ट फल प्रदान करते हैं। आप भक्तवत्सल हैं। भगवन्, मुझे कार्य करने का आदेश दें तथा साथ ही उस कार्य की सफलता का भी आशीर्वाद दें।

ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ! वीरभद्र के ये वचन सुनकर शिवजी को बहुत संतोष हुआ तथा उन्होंने वीरभद्र को अपना आशीर्वाद प्रदान किया। भगवान शिव बोले पार्षदों में श्रेष्ठ वीरभद्र! तुम्हारी जय हो । ब्रह्माजी का पुत्र दक्ष बड़ा ही दुष्ट है। उसे अपने पर बहुत घमंड है । इस समय वह एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहा है। उसने उस यज्ञ में मेरा बहुत अपमान किया है। मेरी पत्नी ने मेरा अपमान होता हुआ देखकर उसी यज्ञ की अग्नि में अपने शरीर को भस्म कर दिया है। अब तुम सपरिवार उस यज्ञ में जाओ। वहां यज्ञशाला में जाकर तुम उस यज्ञ को विनष्ट कर दो। यदि देवता, गंधर्व अथवा कोई अन्य तुम्हारा सामना करे और तुम्हें ललकारे तो तुम उसे वहीं भस्म कर देना।

दधीचि की दी हुई चेतावनी के बाद भी जो देवतागण वहां यज्ञ में मौजूद हैं, तुम उन्हें भी भस्म कर देना क्योंकि वे सभी मुझसे बैर रखते हैं। तुम उन सभी को बंधु-बांधवों सहित जलाकर भस्म कर देना। वहां कलशों में भरे हुए जल को पी लेना। इस प्रकार वैदिक मर्यादा के पालक, भक्तवत्सल करुणानिधान शिव ने क्रोधित होकर वीरभद्र को यज्ञ का विनाश करने का आदेश दिया।

【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

तेंतीसवां अध्याय 

"वीरभद्र और महाकाली का यज्ञशाला की ओर प्रस्थान"

ब्रह्माजी कहते हैं ;– नारद! महेश्वर के आदेश को आदरपूर्वक सुनकर वीरभद्र ने शिवजी को प्रणाम किया। तत्पश्चात उनसे आज्ञा लेकर वीरभद्र यज्ञशाला की ओर चल दिए। शिवजी ने प्रलय की अग्नि के समान और करोड़ों गणों को उनके साथ भेज दिया। वे अत्यंत तेजस्वी थे। वे सभी वीरगण कौतूहल से वीरभद्र के साथ-साथ चल दिए। उसमें हजारों पार्षद वीरभद्र की तरह ही महापराक्रमी और बलशाली थे। बहुत से काल के भी काल भगवान रुद्र के समान थे। वे शिवजी के समान ही शोभा पा रहे थे। तत्पश्चात वीरभद्र शिवजी जैसा वेश धारण कर ऐसे रथ पर चढ़कर चले, जो चार सौ हाथ लंबा था और इस रथ को दस हजार शेर खींच रहे थे और बहुत से हाथी, शार्दूल, मगर, मत्स्य उस रथ की रक्षा के लिए आगे-आगे चल रहे थे। काली, कात्यायनी, ईशानी, चामुण्डा, मुण्डमर्दिनी, भद्रकाली, भद्रा, त्वरिता और वैष्णवी नामक नव दुर्गाओं ने भी भूतों-पिशाचों के साथ दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिए उस ओर प्रस्थान किया। डाकिनी, शाकिनी, भूत-पिशाच, प्रमथ, गुह्यक, कूष्माण्ड, पर्पट, चटक, ब्रह्मराक्षस, भैरव तथा क्षेत्रपाल आदि सभी वीरगण भगवान शिव की आज्ञा पाकर दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिए यज्ञशाला की ओर चल दिए। वे भगवान शंकर के चौंसठ हजार करोड़ गणों की सेना लेकर चल दिए। उस समय भेरियों की गंभीर ध्वनि होने लगी। अनेकों प्रकार के शंख चारों दिशाओं में बजने लगे। उस समय जटाहर, मुखों तथा शृंगों के अनेक प्रकार के शब्द हुए। भिन्न-भिन्न प्रकार की सींगे बजने लगीं। महामुनि नारद! उस समय वीरभद्र की उस यात्रा में करोड़ों सैनिक (शिवगण एवं भूत पिशाच) शामिल थे। इसी प्रकार महाकाली की सेना भी शोभा पा रही थी।

इस प्रकार वीरभद्र और महाकाली दोनों की विशाल सेनाएं उस दक्ष के यज्ञ का विनाश करने के लिए गाजे-बाजे के साथ आगे बढ़ने लगीं। उस समय अनेक शुभ शगुन होने लगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

चौंतीसवां अध्याय 

"यज्ञ-मण्डप में भय और विष्णु से जीवन रक्षा की प्रार्थना"


ब्रह्माजी बोले ;— हे नारद! जब वीरभद्र और महाकाली की विशाल चतुरंगिणी सेना अत्यंत तीव्र गति से दक्ष के यज्ञ की ओर बढ़ी तो यज्ञोत्सव में अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे। वीरभद्र के चलते ही यज्ञ में विध्वंस की सूचना देने वाला उत्पात होने लगा। दक्ष की बायीं आंख, बायीं भुजा और बायीं जांघ फड़कने लगी। वाम अंगों का फड़कना बहुत अशुभ होता है। उस समय यज्ञशाला में भूकंप आ गया। दक्ष को कम दिखाई देने लगा। भरी दोपहर में उसे आसमान में तारे दिखने लगे। दिशाएं धुंधली हो गईं। सूर्य में काले-काले धब्बे दिखाई देने लगे। ये धब्बे बहुत डरावने लग रहे थे। बिजली और अग्नि के समान सारे नक्षत्र उन्हें टूट टूटकर गिरते हुए दिखने लगे। वहां यज्ञशाला में हजारों गिद्ध दक्ष के सिर पर मंडराने लगे। उस यज्ञमण्डप को गिद्धों ने पूरा ढक दिया था। वहां एकत्र गीदड़ बड़ी भयानक और डरावनी आवाजें निकाल रहे थे। सभी दिशाएं अंधकारमय हो गई थीं। वहां अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे। फिर उसी समय वहां आकाशवाणी हुई— ओ महामूर्ख, दुष्ट दक्ष ! तेरे जन्म को धिक्कार है। तू बहुत बड़ा पापी है। तूने भगवान शिव की बहुत अवहेलना की है। तूने देवी सती, जो कि साक्षात जगदंबा रूप हैं, का भी अनादर किया है। सती ने तेरी ही वजह से अपने शरीर को योगाग्नि में जलाकर भस्म कर दिया है। तुझे तेरे कर्मों का फल जरूर मिलेगा। आज तुझे तेरी करनी का फल अवश्य ही मिलेगा। साथ ही यहां उपस्थित सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों को भी अवश्य ही उनकी करनी का फल मिलेगा। भगवान शिव तुम्हें तुम्हारे पापों का फल जरूर देंगे।

इस प्रकार कहकर वह आकाशवाणी मौन हो गई। उस आकाशवाणी को सुनकर और वहां यज्ञशाला में प्रकट हो रहे अनेक अशुभ लक्षणों को देखकर दक्ष तथा वहां उपस्थित सभी देवतागण भय से कांपने लगे। दक्ष को अपने द्वारा किए गए व्यवहार का स्मरण होने लगा। उसे अपने किए पर बहुत पछतावा होने लगा। तब दक्ष सहित सभी देवता श्रीहरि विष्णु की शरण में गए। वे डरे हुए थे। भय से कांपते हुए वे सभी लक्ष्मीपति विष्णुजी से अपने जीवन की रक्षा की प्रार्थना करने लगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

पैंतीसवां अध्याय 

"वीरभद्र का आगमन"


दक्ष बोले ;- हे विष्णु ! कृपानिधान! मैं बहुत भयभीत हूं। आपको ही मेरी और मेरे यज्ञ की रक्षा करनी है। प्रभु! आप ही इस यज्ञ के रक्षक हैं। आप साक्षात यज्ञस्वरूप हैं। आप हम सब पर अपनी कृपादृष्टि बनाइए। हम सब आपकी शरण में आए हैं। प्रभु! हमारी रक्षा करें, ताकि यज्ञ का विनाश न हो।

ब्रह्मा जी कहते हैं ;- हे मुनि नारद! इस प्रकार जब दक्ष ने भगवान विष्णु के चरणों में गिरकर उनसे प्रार्थना की, उस समय दक्ष का मन भय से बहुत अधिक व्याकुल था। तब श्रीहरि ने दक्ष को उठाकर अपने मन में करुणानिधान भगवान शिव का स्मरण किया और शिवतत्व के ज्ञाता श्रीहरि दक्ष को समझाते हुए बोले- दक्ष! तुम्हें तत्व का ज्ञान नहीं है, इसलिए तुमने सबके अधिपति भगवान शंकर की अवहेलना की है। भगवान की स्तुति के बिना कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता। उस कार्य में अनेक परेशानियां आती हैं। जहां पूजनीय व्यक्तियों की पूजा नहीं होती, वहां गरीबी, मृत्यु तथा भय का निवास होता है। इसलिए तुम्हें भगवान शिव का सम्मान करना चाहिए। परंतु तुमने महादेव का सम्मान और आंदर-सत्कार नहीं किया, अपितु तुमने उनका घोर अपमान किया है। इसी के कारण तुम्हारे ऊपर घोर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। मैं तुम पर छाए इस संकट से तुम्हें उबारने में पूर्णतः असमर्थ हूं।

ब्रह्माजी कहते हैं ;- नारद! भगवान विष्णु का वचन सुनकर दक्ष सोच में डूब गया। उसके चेहरे का रंग उड़ गया और वे घोर चिंता में पड़ गए। तभी भगवान शिव द्वारा भेजे गए गणों सहित वीरभद्र और महाकाली का उनकी सेनाओं सहित उस यज्ञशाला में प्रवेश हुआ। वे सभी महान पराक्रमी थे। उनकी गणना करना असंभव था। उनके सिंहनाद से सारी दिशाएं गूंज रही थीं। पूरे आसमान में धूल और अंधकार के बादल छाए हुए थे। पूरी पृथ्वी पर्वतों, वनों और काननों सहित कांप रही थी। समुद्रों में ज्वार-भाटा उठ रहा था। उस विशालकाय सेना को देखकर समस्त देवता आश्चर्यचकित थे। उन्हें देखकर दक्ष अपनी पत्नी के साथ भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और बोले- हे प्रजापालक विष्णु ! आपके बल से ही मैंने इस विशाल यज्ञ का आयोजन किया था। प्रभु! आप कर्मों के साक्षी तथा यज्ञों के प्रतिपालक हैं। आप ही धर्म के रक्षक हैं। अतः प्रभु श्रीहरि! आप ही यज्ञ को विनाश से बचा सकते हैं।

इस प्रकार दक्ष की विनतीपूर्ण बातों को सुनकर श्रीहरि उन्हें समझाते हुए बोले- दक्ष ! निश्चय ही मुझे इस यज्ञ की रक्षा करनी चाहिए परंतु देवताओं के क्षेत्र नैमिषारण्य की उस घटना का स्मरण करो। इस यज्ञ के आयोजन में क्या तुम उस घटना को भूल गए हो? यहां • इस यज्ञशाला की और तुम्हारी रक्षा करने में कोई भी देवता समर्थ नहीं है। इस समय जब महादेव जी के गण और उनके सेनापति वीरभद्र तुम्हें भगवान शिव का अपमान करने का दंड देने आए हैं, उस समय कोई मूर्ख ही तुम्हारी सहायता को आगे आ सकता है। 

    दक्ष ! केवल कर्म ही समर्थ नहीं होता, अपितु कर्म को करने में जिसके सहयोग की आवश्यकता होती है, उसका भी उतना ही महत्व है। भगवान शिव ही कर्मों के कल्याण की शक्ति देते हैं। जो शांत मन से भक्तिपूर्वक उनकी पूजा-अर्चना करता है, महादेव जी उसे तत्काल ही उस कर्म का फल देते हैं। जो मनुष्य ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते, वे नरक के भागी होते हैं।

दक्ष! यह वीरभद्र शंकर के गणों का ऐसा सेनापति है, जो शिवजी के शत्रु का तुरंत नाश कर देता है। निःसंदेह यह तुम्हारा तथा यहां पर उपस्थित सभी लोगों का नाश कर देगा। शिवजी की आज्ञा का उल्लंघन करके, मैं तुम्हारे यज्ञ में आया हूं, जिसका दुष्परिणाम मुझे भी भोगना पड़ेगा। अब इस विनाश को रोकने की शक्ति मेरे पास नहीं है। यदि हम यहां से भागकर स्वर्ग, पाताल और पृथ्वी कहीं भी छिप जाएं, तो भी वीरभद्र के शस्त्र हमें ढूंढ़ लेंगे। शिवजी के सभी गण बहुत शक्तिशाली हैं। विष्णुजी यह कह ही रहे थे कि वीरभद्र अपनी अजय सेना के साथ यज्ञ मण्डप में आ पहुंचा।

【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

छत्तीसवां अध्याय 

"श्रीहरि और वीरभद्र का युद्ध"


ब्रह्माजी कहते हैं ;– नारद! जब शिवजी की आज्ञा पाकर वीरभद्र की विशाल सेना ने यज्ञशाला में प्रवेश किया तो वहां उपस्थित सभी देवता अपने प्राणों की रक्षा के लिए शिवगणों से युद्ध करने लगे परंतु शिवगणों की वीरता और पराक्रम के आगे उनकी एक न चली। सारे देवता पराजित होकर वहां से भागने लगे। तब इंद्र आदि लोकपाल युद्ध के लिए आगे आए। उन्होंने गुरुदेव बृहस्पति जी को नमस्कार कर उनसे विजय के विषय में पूछा। 

उन्होंने कहा ;- हे गुरुदेव बृहस्पति! हम यह जानना चाहते हैं कि हमारी विजय कैसे होगी?

उनकी यह बात सुनकर बृहस्पति जी बोले ;- हे इंद्र! समस्त कर्मों का फल देने वाले तो ईश्वर हैं। सभी को अपनी करनी का फल अवश्य भुगतना पड़ता है। जो ईश्वर के अस्तित्व को जानकर और समझकर उनकी शरण में आकर अच्छे कर्म करता है उसी को उसके सत्कर्मों का फल मिलता है परंतु जो ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध कार्य करता है, वह ईश्वरद्रोही कहलाता है और उसे किसी भी अच्छे फल की प्राप्ति नहीं होती। उन परमपुण्य भगवान शिव के स्वरूप को जानना अत्यंत कठिन है। वे सिर्फ अपने भक्तों के ही अधीन हैं। इसलिए उन्हें भक्तवत्सल भी कहा जाता है। भक्ति और ईश्वर सत्ता में विश्वास न रखने वाले मनुष्य द वेदों का दस हजार बार भी अध्ययन कर लें तो भी भगवान शिव के स्वरूप को भली-भांति नहीं जान पाएंगे। भगवान शिव के शांत, निर्विकार एवं उत्तम दृष्टि से ध्यान करने एवं उनकी उपासना करने से ही शिवतत्व की प्राप्ति होती है। तुम उन करुणानिधान भगवान महेश्वर की अवहेलना करने वाले उस मूर्ख दक्ष के निमंत्रण पर यहां इस यज्ञ में भाग लेने आ गए हो। भगवान शिव की पत्नी देवी सती का भी इस यज्ञ में घोर अपमान हुआ है। उन्होंने इसी यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी है। इसी कारण भगवान शंकर ने रुष्ट होकर इस यज्ञ विध्वंस करने के लिए वीरभद्र के नेतृत्व में अपने शिवगणों को भेजा है। अब इस यज्ञ के विनाश को रोक पाना किसी के भी वश में नहीं है। अब चाहकर भी तुम लोग कुछ नहीं कर सकते।

बृहस्पति जी के ये वचन सुनकर इंद्र सहित अन्य देवता चिंता में पड़ गए। सभी वीरभद्र और अन्य शिवगण उनके निकट पहुंच गए। वहां वीरभद्र ने उन सभी को बहुत डांटा और फटकारा। गुस्से से वीरभद्र ने इंद्र सहित सभी देवताओं पर अपने तीखे बाणों से प्रहार करना शुरू कर दिया। बाणों से घायल हुए सभी देवताओं में हाहाकार मच गया और वे अपने प्राणों की रक्षा के लिए यज्ञमण्डप से भाग खड़े हुए। यह देखकर वहां उपस्थित सभी ऋषि-मु भयभीत होकर श्रीहरि के सम्मुख प्राण रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब मैं और विष्णुजी वीरभद्र से युद्ध करने के लिए उनके पास गए। हमें देखकर वीरभद्र जो पहले से ही क्रोधित थे, हम सबको डांटने लगे। 

उनके कठोर वचनों को सुनकर विष्णुजी मुस्कुराते हुए बोले ;- हे शिवभक्त वीरभद्र! मैं भी भगवान शिव का ही भक्त हूं। उनमें मेरी अपार श्रद्धा है। मैं उन्हीं का सेवक हूं परंतु दक्ष अज्ञानी और मूर्ख है। यह सिर्फ कर्मकाण्डों में ही विश्वास रखता है। जिस प्रकार महेश्वर भगवान अपने भक्तों के ही अधीन हैं उसी प्रकार मैं भी अपने भक्तों के ही अधीन हूं। दक्ष मेरा अनन्य भक्त है। उसकी बारंबार प्रार्थना पर मुझे इस यज्ञ में उपस्थित होना पड़ा। हे वीरभद्र! तुम रुद्रदेव के रौद्र रूप अर्थात क्रोध से उत्पन्न हुए हो। तुम्हें भगवान शंकर ने इस यज्ञ का विनाश करने के लिए यहां भेजा है। उनकी आज्ञा तुम्हारे लिए शिरोधार्य है। मैं इस यज्ञ का रक्षक हूं। अतः इसे बचाना मेरा पहला कर्तव्य है। इसलिए तुम भी अपना कर्तव्य निभाओ और मैं भी अपना कर्तव्य निभाता हूं। हम दोनों को ही अपने उत्तरदायित्व की रक्षा के लिए आपस में युद्ध करना पड़ेगा।

भगवान विष्णु के ये वचन सुनकर, वीरभद्र हंसकर बोला कि आप मेरे परमेश्वर भगवान शिव के भक्त हैं, यह जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। भगवन्, मैं आपको नमस्कार करता हूं। आप मेरे लिए भगवान शिव के समान ही पूजनीय हैं। मैं आपका आदर करता हूं परंतु शिव आज्ञा के अनुसार मुझे इस यज्ञ का विनाश करना है। यह मेरा कर्तव्य है। यज्ञ का रक्षक होने के नाते इसे बचाना आपका उत्तरदायित्व है। अतः हम दोनों को ही अपना-अपना कार्य करना है। तब श्रीहरि और वीरभद्र दोनों ही युद्ध के लिए तैयार हो गए। तत्पश्चात दोनों में घोर युद्ध हुआ। अंत में वीरभद्र ने भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र को जड़ कर दिया। उनके धनुष के तीन टुकड़े कर दिए। वीरभद्र विष्णुजी पर भारी पड़ रहे थे। तब उन्होंने वहां से अंतर्धान होने का विचार किया। सभी देवता व ऋषिगण यह समझ चुके थे कि यह जो कुछ हो रहा है, वह देवी सती के प्रति अन्याय और शिवजी के अपमान का ही परिणाम है। इस संकट की घड़ी में कोई भी उनकी रक्षा नहीं कर सकता। तब वे देवता और ऋषिगण शिवजी का स्मरण करते हुए अपने-अपने लोक को चले गए। मैं भी दुखी मन से अपने सत्यलोक को चला आया। उस यज्ञस्थल पर बहुत उपद्रव हुआ। वीरभद्र और महाकाली ने अनेकों मुनियों एवं देवताओं को प्रताड़ित करके उनका वध कर दिया। भृगु, पूषा और भग नामक देवताओं को उनकी करनी का फल देते हुए उन्हें पृथ्वी पर फेंक दिया।

【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

सैंतीसवां अध्याय 

"दक्ष का सिर काटकर यज्ञ कुंड में डालना"

हे नारद! यज्ञशाला में उपस्थित सभी देवताओं को डराकर और मारकर वीरभद्र ने वहां से भगा दिया और जो बाकी बचे उनको भी मार डाला। तब उन्होंने यज्ञ के आयोजक दक्ष को, जो कि भय के मारे अंतर्वेदी में छिपा था, बलपूर्वक पकड़ लिया। वीरभद्र ने दक्ष के शरीर पर अनेकों वार किए। वे दक्ष का सिर तलवार से काटने लगे। परंतु दक्ष के योग के प्रभाव से वह सिर काटने में असफल रहे। वीरभद्र ने दक्ष की छाती पर पैर रखकर दोनों हाथों से उसकी गरदन मरोड़कर तोड़ दी। तत्पश्चात दक्ष के सिर को वीरभद्र ने अग्निकुंड में डाल दिया। उस महान यज्ञ का संपूर्ण विनाश करने के उपरांत वीरभद्र और सभी गण जीत की खुशी के साथ कैलाश पर्वत पर चले गए और शिवजी को अपनी विजय की सूचना दी। इस समाचार को पाकर महादेव जी बहुत प्रसन्न हुए।


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