शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (तृतीय खण्ड) के छठा अध्याय से दसवां अध्याय तक (From the sixth to the tenth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (3rd volume))


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

छठा अध्याय 

"पार्वती जन्म"


ब्रह्माजी कहते हैं ;- हे नारद! तत्पश्चात हिमालय और मैना देवी भगवती और शिवजी के चिंतन में लीन रहने लगे। उसके बाद जगत की माता जगदंबिका अपना कथन सत्य करने के लिए अपने पूर्ण अंशों द्वारा पर्वतराज हिमालय के हृदय में आकर विराजमान हुई। उस समय उनके शरीर में अद्भुत एवं सुंदर प्रभा उतर आई। वे तेज से प्रकाशित हो गए और आनंद हो देवी का ध्यान करने लगे। तब उत्तम समय में गिरिराज हिमालय ने अपनी प्रिया मैना के गर्भ में उस अंश को स्थापित कर दिया। मैना ने हिमालय के हृदय में विराजमान देवी के अंश से गर्भ धारण किया। देवी जगदंबा के गर्भ में आने से मैना की शोभा व कांति निखर आई और वे तेज से संपन्न हो गईं। तब उन्हें देखकर हिमालय बहुत प्रसन्न रहने लगे। जब देवताओं सहित श्रीहरि और मुझे इस बात का ज्ञान हुआ तो हमने देवी जगदंबिका की बहुत स्तुति की और सभी अपने-अपने धाम को चले गए। धीरे-धीरे समय बीतता गया। दस माह पूरे हो जाने के पश्चात देवी शिवा ने मैना के गर्भ से जन्म ले लिया। जन्म लेने के पश्चात देवी शिवा ने मैना को अपने साक्षात रूप के दर्शन कराए। देवी के जन्म दिवस वाले दिन बसंत ऋतु के चैत्र माह की नवमी तिथि थी। उस समय आधी रात को मृगशिरा नक्षत्र था। देवी के जन्म से सारे संसार में प्रसन्नता छा गई। मंद-मंद हवा चलने लगी। सारा वातावरण सुगंधित हो गया। आकाश में बादल उमड़ आए और हल्की-हल्की फुहारों के साथ पुष्प वर्षा होने लगी। तब मां जगदंबा के दर्शन हेतु विष्णुजी और मेरे सहित सभी देवी-देवता गिरिराज हिमालय के घर पहुंचे। देवी के दर्शन कर सबने दिव्यरूपा महामाया मंगलमयी जगदंबिका माता की स्तुति की। तत्पश्चात सभी देवता अपने-अपने धाम को चले गए।

स्वयं माता जगदंबा को पुत्री रूप में पाकर हिमालय और मैना धन्य हो गए। वे अत्यंत आनंद का अनुभव करने लगे। देवी के दिव्य रूप के दर्शन से मैना को उत्तम ज्ञान की प्राप्ति हो गई। तब मैना देवी से बोली- हे जगदंबा! हे शिवा! हे महेश्वरी! आपने मुझ पर बड़ी कृपा की, जो अपने दिव्य स्वरूप के दर्शन मुझे दिए। हे माता! आप तो परम शक्ति हैं। आप तीनों लोकों की जननी हैं और देवताओं द्वारा आराध्य हैं। हे देवी! आप मेरी पुत्री रूप में आकर शिशु रूप धारण कर लीजिए।

मैना की बात सुनकर देवी मुस्कुराते हुए बोलीं-मैना! तुमने मेरी बड़ी सेवा की है। तुम्हारी भक्ति भावना से प्रसन्न होकर ही मैंने तुम्हें वर मांगने के लिए कहा था और तुमने मुझे अपनी पुत्री बनाने का वर मांग लिया था। तब मैंने 'तथास्तु' कहकर तुम्हें अभीष्ट फल प्रदान किया था। तत्पश्चात मैं अपने धाम चली गई थी। उस वरदान के अनुसार आज मैंने तुम्हारे गर्भ से जन्म ले लिया है। तुम्हारी इच्छा का सम्मान करते हुए मैंने तुम्हें अपने दिव्य रूप के दर्शन दिए। अब आप दोनों दंपति मुझे अपनी पुत्री मानकर मेरा लालन-पालन करो और मुझसे स्नेह रखो। मैं पृथ्वी पर अदभुत लीलाएं करूंगी तथा देवताओं के कार्यों को पूरा करूंगी। बड़ी होकर मैं भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त कर उनकी पत्नी बनकर इस जगत का उद्धार करूंगी।

ऐसा कहकर जगतमाता देवी जगदंबा चुप हो गईं। तब देखते ही देखते देवी भगवती नन्हे शिशु के रूप में परिवर्तित हो गईं।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

सातवां अध्याय 

"पार्वती का नामकरण"


ब्रह्माजी बोले ;- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! मैना के सामने जब देवी जगदंबिका ने शिशु रूप धारण किया तो वे सामान्य बच्चे की भांति रोने लगीं। उनका रोना सुनकर सभी स्त्रियां और पुरुष, जो उस समय वहां उपस्थित थे, प्रसन्न हो गए। उस श्यामकांति वाली नीलकमल के समान शोभित उस परम तेजस्वी सुंदर कन्या को देखकर गिरिराज हिमालय बहुत प्रसन्न हुए। तब शुभ मुहूर्त में हिमालय ने अपनी पुत्री का नाम रखने के बारे में सोचा। उस समय मैना और हिमालय बहुत प्रसन्न । तब देवी के गुणों और सुशीलता को देखकर उनका नाम 'पार्वती' रखा गया। चंद्रमा की कला की तरह हिमालय पुत्री धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। उसके अंग प्रत्यंग चंद्रमा की कला एवं बिंब के समान अत्यंत शोभायमान होने लगे। गिरिजा अपनी सहेलियों के साथ खेलती थीं। पार्वती अपनी सखियों के साथ कभी गंगा की रेत से घर बनातीं तो कभी कंदुक क्रीड़ा करतीं। खेलती-खेलती वे बड़ी होने लगीं। जब वे शिक्षा के योग्य हो गईं, तो आचार्यों ने उन्हें विभिन्न धर्मशास्त्रों का उपदेश देना प्रारंभ किया। उससे उन्हें अपने पूर्व जन्म की सभी बातें स्मरण हो आईं। मुने! इस प्रकार मैंने शिवा की लीला का वर्णन तुमसे किया है।

एक समय की बात है तुम शिवलीला से प्रेरित होकर हिमालय के घर गए । 

  हे नारद! तुम शिवतत्व के ज्ञाता हो और उनकी विभिन्न लीलाओं को समझते हो। तुम्हें आया हुआ देखकर हिमालय-मैना ने तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक नमस्कार किया तथा खूब आदर-सत्कार किया। तत्पश्चात हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती को बुलाया और उससे तुम्हारे चरणों में प्रणाम कराया। फिर स्वयं भी बार-बार नमस्कार करने लगे और बोले- हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद । हे ब्रह्मा पुत्र नारद! आप परम ज्ञानी हैं। आप सदैव सबका उपकार करते हैं। आप भूत, भविष्य और वर्तमान जानते हैं। आप परोपकारी और दयालु हैं। कृपया मेरी कन्या का भाग्य बताएं और मुझे यह भी बताएं कि मेरी बेटी किसकी सौभाग्यवती पत्नी होगी?

नारद! हिमालय के ऐसे प्रश्न सुनकर तुमने पार्वती का हाथ देखा और उसके मुख मंडल को देखकर कहना शुरू किया। हे गिरिराज और मैना! आपकी यह पुत्री चंद्रमा की कला की तरह शोभित हो रही है। यह समस्त शुभ लक्षणों से युक्त है। इसका भाग्य बड़ा प्रबल है। यह अपने पति के लिए सुखदायिनी होगी। साथ ही अपने माता-पिता के यश और कीर्ति को बढ़ाएगी। यह परम साध्वी और संसार की स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ होगी। इसका पति योगी, नग्न, निर्गुण, कामवासना से रहित, माता-पिता हीन, अभिमान से रहित, पवित्र एवं साधु वेषधारी होगा। इस बात को सुनकर मैना और हिमालय दोनों दुखी हो गए। पार्वती देवी सोचने लगीं कि मुनि नारद की बात हमेशा सत्य होती है। जो लक्षण नारद जी ने बताए हैं वे सभी तो शिवजी में विद्यमान हैं। भगवान शिव को अपना भावी पति मानकर पार्वती मन ही मन हर्ष से खिल उठी और शिवजी के चरणों का चिंतन करने लगीं। तब हिमालय बड़े दुखी स्वर से बोले कि हे नारद। अपनी पुत्री के भावी पति के विषय में जानकर मैं बहुत दुखी हूं। आप कृपया मेरी पुत्री को बचाने का कोई मार्ग सुझाए ।

गिरिराज हिमालय के ये वचन सुनकर हे नारद तुमने कहा- गिरिराज, मेरी कही बात सर्वथा सच होगी क्योंकि हाथ की रेखाएं ब्रह्माजी द्वारा लिखी जाती हैं और कभी भी झूठ नहीं हो सकतीं। इस रेखा का फल तो अवश्य मिलेगा किंतु ऐसा होने पर भी पार्वती सुखपूर्वक रहे इस हेतु पार्वती का विवाह भगवान शिव से कर दें। भगवान शिव में ये सभी गुण हैं। महादेव जी में ये अशुभ लक्षण भी शुभ हो जाते हैं। इसलिए गिरिराज, तुम बिना विचार किए अपनी कन्या का विवाह भगवान शिव से कर दो। वे सबके ईश्वर हैं तथा निर्विकार, सामर्थ्यवान और अविनाशी हैं किंतु ऐसा होना इतना सरल नहीं है। पार्वती शिव विवाह तभी संभव हो सकता है, जब किसी तरह भगवान शिव प्रसन्न हो जाएं। भगवान शंकर को प्रसन्न करने और वश में करने का सबसे सरल और उत्तम साधन है यदि आपकी पुत्री भगवान शिव की अनन्य भक्ति भाव से तपस्या करे तो सब ठीक हो जाएगा। पार्वती भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करेंगी। वे सदैव भगवान शिव के अनुसार ही कार्य करेंगी क्योंकि वे उत्तम व्रत का पालन करने वाली महासाध्वी हैं। वे अपने माता-पिता के सुख को बढ़ाने वाली हैं।

गिरिराज हिमालय! भगवान शिव और शिवा का प्रेम तो अलौकिक है। ऐसा प्रेम न तो किसी का हुआ है और ना ही होगा। भगवान शिव इनके अलावा और किसी स्त्री को अपनी पत्नी नहीं बनाएंगे। हिमालय ! शिव-शिवा को एकाकार होकर देवताओं की सिद्धि के लिए अनेक कार्य करने हैं। आपकी पुत्री को पत्नी रूप में प्राप्त करके ही भगवान अर्द्धनारीश्वर होंगे। आपकी पुत्री पार्वती भगवान शिव की तपस्या से उन्हें संतुष्ट कर उनकी अर्द्धांगिनी बन जाएंगी।

मुनि नारद ! तुम्हारे इन वचनों को सुनकर हिमालय बोले- हे मुनिश्रेष्ठ नारद! भगवान शिव सभी प्रकार की इच्छाओं का त्याग करके अपने मन को संयम में रखकर नित्य तपस्या करते हैं। उनका ध्यान सदैव परमब्रह्म में लगा रहता है। भला वे अपने मन को कैसे योग से हटाकर मोह-माया के बंधनों में फंसने हेतु विवाह करेंगे। जो भगवान शिव अविनाशी, प्रकृति से परे, निर्गुण, निराकार और दीपक की लौ की तरह प्रकाशित हैं और सदैव परमब्रह्म के प्रकाशपुंज को तलाशते हैं, वे कैसे मेरी पुत्री से विवाह करने पर राजी होंगे। मेरी जानकारी के अनुसार भगवान शिव ने बहुत पहले अपनी पत्नी सती के सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि वे उनके अलावा किसी और को पत्नी रूप में कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। अब जब सती ने अपने शरीर को त्याग दिया है, तो वे किसी और स्त्री को कैसे ग्रहण करेंगे? यह सुनकर आपने कहा, गिरिराज! आपको इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। तुम्हारी कन्या ही पूर्व जन्म में दक्ष की पुत्री सती थी और शिवजी की प्राणप्रिया थी। अपने पिता दक्ष द्वारा अपने पति का अनादर देखकर लज्जित होकर सती ने योगाग्नि में अपने को भस्म कर दिया था। अब वही देवी जगदंबा, जो पहले सती के रूप में अवतरित हुई थीं, अब पार्वती के रूप में तुम्हारी पुत्री बनी हैं। इसलिए तुम्हें पार्वती के विषय में चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। देवी पार्वती ही भगवान शिव की पत्नी होंगी।

तुम्हारी बातें सुनकर गिरिराज हिमालय और उनकी पत्नी मैना व उनके पुत्रों को बहुत संतोष हुआ और उनके सभी संदेह और शंकाएं पूर्णतः दूर हो गए। पास ही बैठी पार्वती ने भी अपने पूर्व जन्म की कथा के विषय में सुना। भगवान शिव को अपना पति जानकर देवी पार्वती लज्जा से सिर झुकाकर बैठ गईं। मैना और हिमालय ने उनके सिर पर हाथ फेरकर उन्हें अनेक आशीर्वाद दिए। तत्पश्चात पार्वती को तपस्या के विषय में बताकर नारद आप वहां से अंतर्धान हो गए। आपके जाने के बाद मैना और हिमालय बहुत प्रसन्न हुए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

आठवां अध्याय 

"मैना और हिमालय की बातचीत"

ब्रह्माजी बोले ;– हे नारद! तुम्हारे स्वर्गलोक जाने के पश्चात कुछ समय तक सबकुछ ऐसे ही चलता रहा। एक दिन मैना अपने पति हिमालय के पास गई और उन्हें प्रणाम कर उनसे कहने लगी

हे प्राणनाथ! उस दिन जब देवर्षि नारद हमारे यहां पधारे थे और पार्वती का हाथ देखकर उसके विषय में अनेक बातें बता गए थे, तब मैंने उनकी बातों पर ध्यान दिया था। अब पार्वती बड़ी हो रही है। मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है कि आप उसके विवाह के लिए सुयोग्य व सुंदर वर की खोज शुरू कर दें। जिसके साथ हमारी पुत्री पार्वती सुख से अपना जीवन व्यतीत कर सके। वह शुभ लक्षणों वाला तथा कुलीन होना चाहिए क्योंकि मुझे अपनी पुत्री अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी है। मैं सिर्फ पुत्री का सुख चाहती हूं।

यह कहकर मैना की आंखों में आंसू आ गए और वे अपने पति के चरणों में गिर पड़ीं। तत्पश्चात हिमालय ने पत्नी मैना को प्रेमपूर्वक उठाया और उन्हें समझाने लगे। 

वे बोले ;– हे देवी! तुम व्यर्थ की चिंता त्याग दो। मुनि नारद की बात कभी झूठ नहीं हो सकती। यदि तुम पार्वती को सुखी देखना चाहती हो तो उसे भगवान शिव की तपस्या के लिए प्रेरित करो। यदि शिवजी प्रसन्न हो गए तो वे स्वयं ही पार्वती का पाणिग्रहण कर लेंगे। तब सबकुछ शुभ ही होगा। सभी अनिष्ट और अशुभ लक्षणों का नाश होगा। भगवान शंकर सदा मंगलकारी हैं। इसलिए तुम पार्वती को शिवजी की कृपादृष्टि प्राप्त करने के लिए तपस्या करने की शिक्षा दो।

हिमालय की बात सुनकर मैना प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्री पार्वती को तपस्या के लिए कहने उनके पास चली गई।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

नवां अध्याय 

"पार्वती का स्वप्न"


ब्रह्माजी बोले ;– हे मुनिश्रेष्ठ नारद! जब मैना पार्वती के पास पहुंची तो उन्हें देखकर सोचने लगीं कि मेरी पुत्री तो कोमल और नाजुक है। यह सदैव राजसी ठाठ-बाट में रही है। दुख और कष्टों को सहना तो दूर की बात है इनके बारे में भी यह सर्वथा अनजान है। पार्वती को उन्होंने बड़े ही लाड़ और प्यार से पाला है। तब कैसे मैं अपनी प्रिय पुत्री को कठोर तपस्या करने के लिए प्रेरित कर सकती हूं? यही सब सोचकर मैना अपनी पुत्री से तपस्या के लिए कुछ नहीं बोल सकीं। तब अपनी माता के चिंतित चेहरे को देखकर साक्षात जगदंबा का अवतार धारण करने वाली देवी पार्वती यह जान गईं कि उनकी माताजी क्या कहना चाहती हैं? तब सबकुछ जानने वाली देवी भगवती का साक्षात स्वरूप पार्वती बोलीं- हे माता! आप यहां कब आईं? आप बैठिए। माता, पिछली रात्रि के ब्रह्ममुहूर्त में मैंने एक स्वप्न देखा है। उसके विषय में मैं आपको बताती हूं। मेरे सपने में एक दयालु और तपस्वी ब्राह्मण आए। जब मैंने उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार किया तो वे मुस्कुराते हुए बोले कि तुम अवश्य ही भगवान शिव शंकर की प्राणवल्लभा बनोगी। इसलिए उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रेमपूर्वक तपस्या करो ।

यह सुनकर मैना ने अपनी पुत्री के सिर पर प्रेम से हाथ फेरा और अपने पति हिमालय को वहां बुलाया। हिमालय के आने पर मैना ने पार्वती के सपने के बारे में उनको बताया। तब उनके मुख से पुत्री के सपने के विषय में जानकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए। 

तब वे अपनी पत्नी से बोले ;– प्रिय मैना! मैंने भी पिछली रात को एक सपना देखा था। मैंने अपने सपने में एक बड़े उत्तम तपस्वी को देखा। वे नारद मुनि द्वारा बताए गए सभी लक्षणों से युक्त थे। वे उत्तम तपस्वी मेरे नगर में तपस्या करने के लिए आए थे। उन्हें देखकर मुझे बहुत खुशी हुई । मैं अपनी पुत्री पार्वती को साथ लेकर उनके दर्शनों के लिए उनके पास पहुंचा। तब मुझे ज्ञात हुआ कि वे नारद जी के बताए हुए वर भगवान शिव ही हैं। तब मैंने पार्वती को उनकी सेवा करने का उपदेश दिया परंतु उन्होंने मेरी बात नहीं मानी। तभी वहां सांख्य और वेदांत पर विवाद छिड़ गया। तत्पश्चात उनकी आज्ञा पाकर पार्वती वहीं रहकर भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करने लगीं। हे प्रिये! यही मेरा सपना था जिसे देखकर मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई। मैं सोचता हूं कि हमें कुछ समय तक इस सपने के सच होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। ऐसा कहकर हिमालय और मैना उस उत्तम सपने के सच होने की प्रतीक्षा करने लगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【तृतीय खण्ड

दसवां अध्याय 

 "भौम-जन्म"

ब्रह्माजी बोले ;-- नारद! भगवान शिव का यश परम पावन, मंगलकारी, भक्तिवर्द्धक और उत्तम है। दक्ष-यज्ञ से वे अपने निवास कैलाश पर्वत पर वापस आ गए थे। वहां आकर भगवान शिव अपनी पत्नी सती के वियोग से बहुत दुखी थे। उनका मन देवी सती का स्मरण कर रहा था और वे उन्हें याद करके व्याकुल हो रहे थे। तब उन्होंने अपने सभी गणों को वह पर बुलाया और उनसे देवी सती के गुणों और उनकी सुशीलता का वर्णन करने लगे। फिर गृहस्थ धर्म को त्यागकर वे कुछ समय तक सभी लोकों में सती को खोजते हुए घूमते रहे। इसके बाद वापस कैलाश पर्वत पर आ गए क्योंकि उन्हें कहीं भी सती का दर्शन नहीं हो सका था। तब अपने मन को एकाग्र करके वे समाधि में बैठ गए। भगवान शिव इसी प्रकार बहुत लंबे समय तक समाधि लगाकर बैठे रहे। असंख्य वर्ष बीत गए। समाधि के परिश्रम के कारण उनके मस्तक से पसीने की बूंद पृथ्वी पर गिरी और वह बूंद एक शिशु में परिवर्तित हो गई। उस बालक का रंग लाल था। उसकी चार भुजाएं थीं। उसका रूप मनोहर था।

  वह बालक दिव्य तेज से संपन्न अनोखी शोभा पा रहा था। वह प्रकट होते ही रोने लगा। उसे देखकर संसारी मनुष्यों की भांति शिवजी उसके पालन-पोषण का विचार करके व्याकुल हो गए। उसी समय डरी हुई एक सुंदर स्त्री वहां आई। उसने उस बालक को अपनी गोद में उठा लिया और उसका मुख चूमने लगीं। तब उन्होंने उसे दूध पिलाकर उस बालक के रोने को शांत किया। फिर वह उसे खिलाने लगी। वह स्त्री और कोई नहीं स्वयं पृथ्वी माता थीं। संसार की सृष्टि करने वाले, सबकुछ जानने वाले महादेव जी यह देखकर हंसने लगे। वह पृथ्वी को पहचान चुके थे। 

वे पृथ्वी से बोले ;- हे धरिणी! तुम इस पुत्र का प्रेमपूर्वक पालन करो। यह शिशु मेरे पसीने की बूंद से प्रकट हुआ है। हे वसुधा! यद्यपि यह बालक मेरे पसीने से उत्पन्न हुआ है परंतु इस जगत में यह तुम्हारे ही पुत्र के रूप में जाना जाएगा। यह परम गुणवान और भूमि देने वाला होगा। यह मुझे भी सुख देने वाला होगा। हे देवी! तुम इसका धारण करो।

नारद! यह कहकर भगवान शिव चुप हो गए। उनका दुखी हृदय थोड़ा शांत हो गया था। उधर शिवजी की आज्ञा का पालन करते हुए पृथ्वी अपने पुत्र को साथ लेकर अपने निवास स्थान पर चली गईं। बड़ा होकर यह बालक 'भौम' नाम से प्रसिद्ध हुआ। युवा होने पर भौम काशी गया। वहां उसने बहुत लंबे समय तक भगवान शिव की सेवा-आराधना की। तब भगवान शंकर की कृपादृष्टि पाकर भूमि पुत्र भौम दिव्यलोक को चले गए।

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