शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (द्वितीय खण्ड) का पहला,दूसरा,तिसरा, चौथा,पाचवाँ,छठा व सातवाँ अध्याय (The first, second, third, fourth, fifth, sixth and seventh chapters of Shiva Purana Sri Rudra Samhita ( second Volume))

            


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

पहला अध्याय 


"सती चरित्र"


नारद जी ने पूछा :- हे ब्रह्माजी! आपके श्रीमुख से मंगलकारी व अमृतमयी शिव कथा सुनकर मुझमें उनके विषय में और अधिक जानने की लालसा उत्पन्न गई है। अतः भगवान शिव के बारे में मुझे बताइए । विश्व की सृष्टि करने वाले हे ब्रह्माजी! मैं सती के विषय में भी जानना चाहता हूं। सदाशिव योगी होते हुए एक स्त्री के साथ विवाह करके गृहस्थ कैसे हो गए? उन्हें विवाह करने का विचार कैसे आया? जो पहले दक्ष की कन्या थी, फिर हिमालय की कन्या हुई, वे सती (पार्वती) किस प्रकार शंकरजी को प्राप्त हुई? पार्वती ने किस प्रकार घोर तपस्या की और कैसे उनका विवाह हुआ? कामदेव को भस्म कर देने वाले भगवान शिव के आधे शरीर में वे किस प्रकार स्थान पा सकीं? उनका अर्द्धनारीश्वर रूप क्या है? हे प्रभो! आप ही मेरे इन प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं। आप ही मेरे संशयों का निवारण कर सकते हैं।

ब्रह्माजी ने कहा ;- हे नारद! देवी सती और भगवान शिव का शुभ यश परमपावन दिव्य और गोपनीय है। उसके रहस्य को वे ही समझते हैं। सर्वप्रथम तुम्हारी प्रार्थना पर मैं सती के चरित्र को बताता हूं।

पहले मेरे एक कन्या पैदा हुई। जिसे देखकर मैं काम पीड़ित हो गया। तब रुद्र ने धर्म का स्मरण कराते हुए मुझे बहुत धिक्कारा। फिर वे अपने निवास कैलाश पर्वत को चले गए। उन्हें मैंने समझाने की कोशिश की, परंतु मेरे सभी प्रयत्न निष्फल हो गए। तब मैंने शिवजी की आराधना की। शिवजी ने मुझे बहुत समझाया परंतु मैंने हठ नहीं छोड़ा और फिर रुद्रदेव को मोहित करने के लिए शक्ति का उपयोग करने लगा। मेरे पुत्र दक्ष के यहां सती का जन्म हुआ। वह दक्ष सुता 'उमा' नाम से उत्पन्न होकर कठिन तप करके रुद्र की स्त्री हुई। रुद्र ने गृहस्थाश्रम में सुखपूर्वक समय व्यतीत किया। उधर शिवजी की माया से दक्ष को घमंड हो गया और वह महादेव जी की निंदा करने लगा।

दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में दक्ष ने मुझे, विष्णुजी को, सभी देवी-देवताओं को और ऋषि-मुनियों को निमंत्रण दिया परन्तु महादेव शिवजी एवं अपनी पुत्री सती को उस विशाल यज्ञ का निमंत्रण नहीं दिया। सती को जब इस बात की जानकारी मिली, तो उन्होंने शिव-चरणों में वंदना कर उनसे दक्ष यज्ञ में जाने की इच्छा प्रकट की। भगवान शिव ने देवी सती को बहुत समझाया कि बिना बुलाए ऐसे आयोजनों में जाना अपमान और अनिष्टकारक होता है। लेकिन सती ने जाने का हठ किया। शिव ने भावी को देखते हुए आज्ञा दे दी। शिव सर्वज्ञ हैं। सती पिता के घर चली गई। वहां यज्ञ में महादेव जी के लिए भाग न देख और अपने पिता के मुख से अपने पति की घोर निंदा सुनकर उन्हें बहुत क्रोध आया। वे महादेव की निंदा सहन न कर सकीं और उन्होंने उसी यज्ञ कुंड में कूदकर अपने शरीर का त्याग कर दिया।

जब इसका समाचार शिव तक पहुंचा, तो वे बहुत कुपित हुए। उन्होंने अपनी जटा का एक बाल उखाड़कर वीरभद्र नामक अपने गण को उत्पन्न किया। भगवान शिव ने वीरभद्र को आज्ञा दी कि वह दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दे। वीरभद्र ने शिव आज्ञा का पालन करते हुए यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काट दिया। इस उपद्रव को देखकर सभी लोग भगवान शिव की प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शिव ने दक्ष को पुनः जीवित कर दिया और उनके यज्ञ को पूर्ण कराया। भगवान शिव सती के मृत शरीर को लेकर वहां से चले गए। उस समय सती के शरीर से उत्पन्न ज्वाला पर्वत पर गिरी थी। वही पर्वत आज भी ज्वालामुखी के नाम से पूजित है। आज भी उसके दर्शन से मनोकामनाएं पूरी होती हैं।

वही सती दूसरे जन्म में हिमाचल के घर में पुत्री रूप में प्रकट हुईं, जिनका नाम पार्वती था। उन्होंने कठोर तप द्वारा पुनः महादेव शिव को अपने पति के रूप में प्राप्त कर लिया।

【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

दूसरा अध्याय 

 

"शिव-पार्वती चरित्र"


सूत जी बोले ;- हे ऋषियो! ब्रह्माजी के ये वचन सुनकर नारद जी पुनः पूछने लगे। हे ब्रह्माजी! मैं सती और शंकरजी के परम पवित्र व दिव्य चरित्र को पुनः सुनना चाहता हूं कि सती की उत्पत्ति कैसे हुई और महादेव जी का मन विवाह करने के लिए कैसे तैयार हुआ? दक्ष से नाराज होकर देवी सती ने अपनी देह को कैसे त्याग दिया और फिर कैसे हिमाचल की पुत्री पार्वती के रूप में जन्म लिया? उनके तप, विवाह, काम-नाश आदि की सभी कथाएं मुझे सविस्तार सुनाने की कृपा करें।

ब्रह्माजी बोले ;- हे नारद! पहले भगवान शिव निर्गुण, निर्विकल्प, निर्विकारी और दिव्य थे परंतु देवी उमा से विवाह करने के बाद वे सगुण और शक्तिमान हो गए। उनके बाएं अंग से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए और दाएं अंग से विष्णु उत्पन्न हुए। तभी से भगवान सदाशिव के तीन रूप ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र-सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता के रूप में विख्यात हुए। उनकी आराधना करते हुए मैं सुरासुर सहित मनुष्य आदि जीवों की रचना करने लगा। मैंने सभी जातियों का निर्माण किया। मैंने ही मरीच, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, वशिष्ठ, नारद, दक्ष और भृगु की उत्पत्ति की और ये मेरे मानस पुत्र कहलाए । तत्पश्चात, मेरे मन में माया का मोह उत्पन्न होने लगा। तब मेरे हृदय से अत्यंत मनोहारी और सुंदर रूप वाली नारी प्रकट हुई। उसका नाम संध्या था। वह दिन में क्षीण होती, परंतु रात में उसका रूप-सौंद और निखर जाता था। वह सायं संध्या ही थी। संध्या निरंतर मंत्र का जाप करती थी। उसके सौंदर्य से ऋषि-मुनियों का मन भी भ्रमित हो जाता था। इसी प्रकार मेरे मन से एक मनोहर रूप वाला पुरुष भी प्रकट हुआ। वह अत्यंत सुंदर और अद्भुत रूप वाला था। उसके शरीर का मध्य भाग पतला था। वह काले बालों से युक्त था। उसके दांत सफेद मोतियों से चमक रहे थे। उसके श्वास से सुगंधि निकल रही थी। उसकी चाल मदमस्त हाथी के समान थी। उसकी आंखें कमल के समान थीं। उसके अंगों में लगे केसर की सुगंध नासिका को तृप्त कर रही थी। तभी उस रूपवान पुरुष ने विनयपूर्वक अपने सिर को मुझ ब्रह्मा के सामने झुकाकर, मुझे प्रणाम किया और मेरी बहुत स्तुति की।

वह पुरुष बोला ;- ब्रह्मान्! आप अत्यंत शक्तिशाली हैं। आपने ही मेरी उत्पत्ति की है। प्रभु मुझ पर कृपा करें और मेरे योग्य काम मुझे बताएं ताकि मैं आपकी आज्ञा से उस कार्य को पूरा कर सकूं।

ब्रह्माजी ने कहा ;- हे भद्रपुरुष! तुम सनातनी सृष्टि उत्पन्न करो। तुम अपने इसी स्वरूप में फूल के पांच बाणों से स्त्रियों और पुरुषों को मोहित करो। इस चराचर जगत में कोई भी जीव तुम्हारा तिरस्कार नहीं कर पाएगा। तुम छिपकर प्राणियों के हृदय में प्रवेश करके सुख का हेतु बनकर सृष्टि का सनातन कार्य आगे बढ़ाओगे। तुम्हारे पुष्पमय बाण समस्त प्राणियों को भेदकर उन्हें मदमस्त करेंगे। आज से तुम 'पुष्प बाण' नाम से जाने जाओगे। इसी प्रकार तुम सृष्टि के प्रवर्तक के रूप में जाने जाओगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

तीसरा अध्याय 


"कामदेव को ब्रह्माजी द्वारा शाप देना"


ब्रह्माजी ने कहा ;– हे नारद! सभी ऋषि-मुनि उस पुरुष के लिए उचित नाम खोजने लगे। तब सोच-विचारकर वे बोले कि तुमने उत्पन्न होते ही ब्रह्मा का मन मंथन कर दिया है। अतः तुम्हारा पहला नाम मन्मथ होगा। तुम्हारे जैसा इस संसार में कोई नहीं है इसलिए तुम्हारा दूसरा नाम काम होगा। तीसरा नाम मदन और चौथा नाम कंदर्प होगा। अपने नामों के विषय में जानते ही काम ने अपने पांच बाणों का नामकरण कर उनका परीक्षण किया। काम ने अपने पांच बाणों को हर्षण, रोचन, मोहन, शोषण और मारण नाम से सुशोभित किया। ये बाण ऋषि-मुनियों को भी मोहित कर सकते थे। उस स्थान पर बहुत से देवता व ऋषि उपस्थित थे। उस समय संध्या भी वहीं थी। कामदेव द्वारा चलाए गए बाणों के फलस्वरूप सभी मोहित हो गए। सबके मनों में विकार आ गया। सभी काम के वशीभूत हो चुके थे। प्रजापति, मरीचि, अत्रि, दक्ष आदि सब मुनियों के साथ-साथ ब्रह्माजी भी काम के वश में होकर संध्या को पाने की इच्छा करने लगे। ब्रह्मा व उनके मानस पुत्रों, सभी को एक कन्या पर मोहित होते देखकर धर्म को बहुत दुख हुआ। धर्म ने धर्मरक्षक त्रिलोकीनाथ का स्मरण किया। तब मुझे देखकर शिवजी हंसे और कहने लगे- हे ब्रह्मा ! अपनी पुत्री के ही प्रति तुम मोहित कैसे हो गए? सूर्य का दर्शन करने वाले दक्ष, मरीचि आदि योगियों का निर्मल मन कैसे स्त्री को देखते ही मलिन हो गया? जिन देवताओं का मन स्त्री के प्रति आसक्त हो, उनके साथ शास्त्र संगति किस प्रकार की जा सकती है?

इस प्रकार के शिव वचन सुनकर मुझे बहुत लज्जा का अनुभव हुआ और मेरा पूरा शरीर पसीने-पसीने हो गया। मेरा विकार समाप्त हो गया परंतु मेरे शरीर से जो पसीना नीचे गिरा उससे पितृगणों की उत्पत्ति हुई। उससे चौंसठ हजार आग्नेष्वातो पितृगण उत्पन्न हुए और छियासी हजार बहिर्षद पितर हुए। एक सर्व गुण संपन्न, अति सुंदर कन्या भी उत्पन्न हुई, जिसका नाम रति था। उसका रूप-सौंदर्य देखकर ऋतु आदि स्खलित हो गए एवं उससे अनेक पितरों की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार संध्या से बहुत से पितरों की उत्पत्ति हुई।

शिवजी के वहां से अंतर्धान होने पर मैं काम पर क्रोधित हुआ। मेरे क्रुद्ध होने पर काम ने वह बाण वापस खींच लिया। बाण के निकलते ही मैं क्रोध की अग्नि से जलने लगा। मैंने काम को शिव बाण से भस्म होने का शाप दे डाला। यह सुनकर काम और रति दोनों मेरे चरणों में गिर पड़े और मेरी स्तुति करने लगे तथा क्षमा याचना करने लगे।

तब काम ने कहा ;- हे प्रभु! आपने ही तो मुझे वर देते हुए कहा था कि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र समेत सभी देवता, ऋषि-मुनि और मनुष्य तुम्हारे वश में होंगे। मैं तो सिर्फ अपनी उस शक्ति का परीक्षण कर रहा था। इसलिए मैं निरपराध हूं। प्रभु मुझ पर कृपा करें। इस शाप के प्रभाव को समाप्त करने का उपाय बताएं।

इस प्रकार काम के वचनों को सुनकर ब्रह्माजी का क्रोध शांत हुआ। तब उन्होंने कहा कि मेरा शाप झूठा नहीं हो सकता। इसलिए तुम महादेव के तीसरे नेत्र रूपी अग्नि बाण से भस्म हो जाओगे। परंतु कुछ समय पश्चात जब शिवजी विवाह करेंगे अर्थात उनके जीवन में देवी पार्वती आएंगी, तब तुम्हारा शरीर तुम्हें पुनः प्राप्त हो जाएगा।

【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

चौथा अध्याय 


"काम-रति विवाह"


नारद जी ने पूछा ;-- हे ब्रह्माजी! इसके पश्चात क्या हुआ? आप मुझे इससे आगे की कथा भी बताइए। भगवन् काम और रति का विवाह हुआ या नहीं? आपके शाप का क्या हुआ? कृपया इसके बारे में भी मुझे सविस्तार बताइए।

ब्रह्माजी बोले ;- शिवजी के वहां से अंतर्धान हो जाने पर दक्ष ने काम से कहा कामदेव! आपके ही समान गुणों वाली परम सुंदरी एवं सुशीला मेरी कन्या को तुम पत्नी के रूप में स्वीकार करो । मेरी पुत्री सर्वगुण संपन्न है तथा हर तरीके से आपके लिए सुयोग्य है । हे महातेजस्वी मनोभव! यह हमेशा तुम्हारे साथ रहेगी और तुम्हारी इच्छानुसार कार्य करेगी। यह कहकर दक्ष ने अपनी कन्या, जो उनके पसीने से उत्पन्न हुई थी, का नाम 'रति' रख दिया। तत्पश्चात कामदेव और रति का विवाह सोल्लास संपन्न हुआ। हे नारद! दक्ष की पुत्री रति बड़ी रमणीय और परम सुंदरी थी। उसका रूप लावण्य मुनियों को भी मोह लेने वाला था। रति से विवाह होने पर कामदेव अत्यंत प्रसन्न हुए। वे रति पर पूर्ण मोहित थे। उनके विवाह पर बहुत बड़ा उत्सव हुआ। प्रजापति दक्ष पुत्री के लिए सुयोग्य वर पाकर बहुत खुश थे। दक्षकन्या देवी रति भी कामदेव को पाकर धन्य हो गई थी। जिस प्रकार बादलों में बिजली शोभा पाती है, उसी प्रकार कामदेव के साथ रति शोभा पा रही थी। कामदेव ने रति को अपने हृदय सिंहासन में बैठाया तो रति भी कामदेव को पाकर उसी प्रकार प्रसन्न हुई, जिस प्रकार श्रीहरि को पाकर देवी लक्ष्मी। उस समय आनंद और खुशी से सराबोर कामदेव व रति भगवान शिव का शाप भूल गए।

सूत जी कहते हैं ;- ब्रह्माजी का यह कथन सुनकर महर्षि नारद बड़े प्रसन्न हुए और हर्षपूर्वक बोले- हे महामते! आपने भगवान शिव की अद्भुत लीला मुझे सुनाई है। प्रभो! अब मुझे आप यह बताइए कि कामदेव और रति के विवाह के उपरांत सब देवताओं के अपने धाम चले जाने के बाद, पितरों को उत्पन्न करने वाली ब्रह्मकुमारी संध्या कहां गई? उनका विवाह कब और किससे हुआ? संध्या के विषय में मेरी जिज्ञासा शांत करिए।


【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

पांचवां अध्याय 


"संध्या का चरित्र"


सूत जी बोले ;- हे ऋषियो! नारद जी के इस प्रकार प्रश्न करने पर ब्रह्माजी ने कहा ;- मुने! संध्या का चरित्र सुनकर समस्त कामनियां सती-साध्वी हो सकती हैं। वह संध्या मेरी मानस पुत्री थी, जिसने घोर तपस्या करके अपना शरीर त्याग दिया था। फिर वह मुनिश्रेष्ठ मेधातिथि की पुत्री अरुंधती के रूप में जन्मी। संध्या ने तपस्या करते हुए अपना शरीर इसलिए त्याग दिया था क्योंकि वह स्वयं को पापिनी समझती थी। उसे देखकर स्वयं उसके पिता और भाइयों में काम की इच्छा जाग्रत हुई थी। तब उसने इसका प्रायश्चित करने के बारे में सोचा तथा निश्चय किया कि वह अपना शरीर वैदिक अग्नि में जला देगी, जिससे मर्यादा स्थापित हो । भूतल पर जन्म लेने वाला कोई भी जीव तरुणावस्था से पहले काम के प्रभाव में नहीं आ पाएगा। यह मर्यादा स्थापित कर मैं अपने जीवन का त्याग कर दूंगी।

मन में ऐसा विचार करके संध्या चंद्रभाग नामक पर्वत पर चली गई। यहीं से चंद्रभागा नदी का आरंभ हुआ। इस बात का ज्ञान होने पर मैंने वेद-शास्त्रों के पारंगत, विद्वान, सर्वज्ञ और ज्ञानयोगी पुत्र वशिष्ठ को वहां जाने की आज्ञा दी। मैंने वशिष्ठ जी को संध्या को विधिपूर्वक दीक्षा देने के लिए वहां भेजा था।

नारद! चंद्रभाग पर्वत पर एक देव सरोवर है, जो जलाशयोचित गुणों से पूर्ण है। उस सरोवर के तट पर बैठी संध्या इस प्रकार सुशोभित हो रही थी, जैसे प्रदोष काल में उदित चंद्रमा और नक्षत्रों से युक्त आकाश शोभा पाता है। तभी उन्होंने चंद्रभागा नदी का भी दर्शन किया। तब उस सरोवर के तट पर बैठी संध्या से वशिष्ठ जी ने आदरपूर्वक पूछा, हे देवी! तुम इस निर्जन पर्वत पर क्या कर रही हो? तुम्हारे माता-पिता कौन हैं? यदि यह छिपाने योग्य न हो तो कृपया मुझे बताओ। यह वचन सुनकर संध्या ने महर्षि वशिष्ठ की ओर देखा। उनका शरीर दिव्य तेज से प्रकाशित था। मस्तक पर जटा धारण किए वे साक्षात कोई पुण्यात्मा जान पड़ते थे। संध्या ने आदरपूर्वक प्रणाम करते हुए वशिष्ठ जी को अपना परिचय देते हुए कहा- ब्रह्मन्। मैं ब्रह्माजी की पुत्री संध्या हूं। मैं इस निर्जन पर्वत पर तपस्या करने आई हूं। यदि आप उचित समझें तो मुझे तपस्या की विधि बताइए। मैं तपस्या के नियमों को नहीं जानती हूं। अतः मुझ पर कृपा करके आप मेरा उचित मार्गदर्शन करें। संध्या की बात सुनकर वशिष्ठ जी ने जान लिया कि देवी संध्या मन में तपस्या का दृढ़ संकल्प कर चुकी हैं। इसलिए वशिष्ठ जी ने भक्तवत्सल भगवान शिव का स्मरण करते हुए कहा

हे देवी! जो सबसे महान और उत्कृष्ट हैं, सभी के परम आराध्य हैं, जिन्हें परमात्मा कहा जाता है, तुम उन महादेव शिव को अपने हृदय में धारण करो। भगवान शिव ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के स्रोत हैं। तुम उन्हीं का भजन करो। 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र का जाप करते हुए मौन तपस्या करो। उसके अनुसार मौन रहकर ही स्नान तथा शिव-पूजन करो। प्रथम दो बार छठे समय में जल को आहार के रूप में लो। तीसरी बार छठा समय आने पर उपवास करो। देवी! इस प्रकार की गई तपस्या ब्रह्मचर्य का फल देने वाली तथा अभीष्ट मनोरथों को पूरा करने वाली होती है। अपने मन में शुभ उद्देश्य लेकर शिवजी का मनन व चिंतन करो। वे प्रसन्न होकर तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी करेंगे। इस प्रकार संध्या को तपस्या की विधि बताकर और उपदेश देकर मुनि वशिष्ठ वहां से अंतर्धान हो गए।


【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

छठा अध्याय 


"संध्या की तपस्या"


ब्रह्माजी बोले ;- हे महाप्रज्ञ नारद! तपस्या की विधि बताकर जब वशिष्ठ जी चले गए, तब संध्या आसन लगाकर कठोर तप शुरू करने लगी। वशिष्ठ जी द्वारा बताए गए विधान एवं मंत्र द्वारा संध्या ने भगवान शिव की आराधना करनी आरंभ कर दी। उसने अपना मन शिवभक्ति में लगा दिया और एकाग्र होकर तपस्या में मग्न हो गई। तपस्या करते-करते चार युग बीत गए। तब भगवान शिव प्रसन्न हुए और संध्या को अपने स्वरूप के दर्शन दिए, जिसका चिंतन संध्या द्वारा किया गया था। भगवान का मुख प्रसन्न था। उनके स्वरूप से शांति बरस रही थी। संध्या के मन में विचार आया कि मैं महादेव की स्तुति कैसे करूं ? इसी सोच में संध्या ने नेत्र बंद कर लिए। भगवान शिव ने संध्या के हृदय में प्रवेश कर उसे दिव्य ज्ञान दिया। साथ ही दिव्य-वाणी और दिव्य-दृष्टि भी प्रदान की। संध्या ने प्रसन्न मन से भगवान शिव की स्तुति की।

संध्या बोली ;- हे निराकार! परमज्ञानी, लोकस्रष्टा, भगवान शिव, मैं आपको नमस्कार करती हूं। जो शांत, निर्मल, निर्विकार और ज्ञान के स्रोत हैं। जो प्रकाश को प्रकाशित करते हैं, उन भगवान शिव को मैं प्रणाम करती हूं। जिनका रूप अद्वितीय, शुद्ध, माया रहित, प्रकाशमान, सच्चिदानंदमय, नित्यानंदमय, सत्य, ऐश्वर्य से युक्त तथा लक्ष्मी और सुख वाला है, उन परमपिता परमेश्वर को मेरा नमस्कार है। जो सत्वप्रधान, ध्यान योग्य, आत्मस्वरूप, सारभूत सबको पार लगाने वाला तथा परम पवित्र है, उन प्रभु को मेरा प्रणाम है। भगवान शिव आपका स्वरूप शुद्ध, मनोहर, रत्नमय, आभूषणों से अलंकृत एवं कपूर के समान है। आपके हाथों में डमरू, रुद्राक्ष और त्रिशूल शोभा पाते हैं। आपके इस दिव्य, चिन्मय, सगुण, साकार रूप को मैं नमस्कार करती हूं। आकाश, पृथ्वी, दिशाएं, जल, तेज और काल सभी आपके रूप हैं। 

हे प्रभु! आप ही ब्रह्मा के रूप में जगत की सृष्टि, विष्णु रूप में संसार का पालन करते हैं। आप ही रुद्र रूप धरकर संहार करते हैं। जिनके चरणों से पृथ्वी तथा अन्य शरीर से सारी दिशाएं, सूर्य, चंद्रमा एवं अन्य देवता प्रकट हुए हैं, जिनकी नाभि से अंतरिक्ष का निर्माण हुआ है, वे ही सद्ब्रह्म तथा परब्रह्म हैं। आपसे ही सारे जगत की उत्पत्ति हुई है। जिनके स्वरूप और गुणों का वर्णन स्वयं ब्रह्मा, विष्णु भी नहीं कर सकते, भला उन त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की स्तुति मैं कैसे कर सकती हूं? मैं एक अज्ञानी और मूर्ख स्त्री हूं। मैं किस तरह आपको पूजूं कि आप मुझ पर प्रसन्न हों। हे प्रभु! मैं बारंबार आपको नमस्कार करती हूं।

ब्रह्माजी बोले ;- नारद! संध्या द्वारा कहे गए वचनों से भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। उसकी स्तुति ने उन्हें द्रवित कर दिया। भगवान शिव बोले- हे देवी! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। अतः तुम्हारी जो इच्छा हो वह वर मांगो। 

तुम्हारी इच्छा मैं अवश्य पूर्ण करूंगा। भगवान शिव के ये वचन सुनकर संध्या खुशी से उन्हें बार-बार प्रणाम करती हुए बोली- हे महेश्वर! यदि आप मुझ पर प्रसन्न होकर कोई वर देना चाहते हैं और यदि मैं अपने पूर्व पापों से शुद्ध हो गई हूं तो हे महेश्वर! हे देवेश! आप मुझे वरदान दीजिए कि आकाश, पृथ्वी और किसी भी स्थान में रहने वाले जो भी प्राणी इस संसार में जन्म लें, वे जन्म लेते ही काम भाव से युक्त न हो जाएं। हे प्रभु! मेरे पति सुहृदय और मित्र के समान हों और अधिक कामी न हों। उनके अलावा जो भी मनुष्य मुझे सकाम भाव से देखे, वह पुरुषत्वहीन अर्थात नपुंसक हो जाए। हे प्रभु! मुझे यह वरदान भी दीजिए कि मेरे समान विख्यात और परम तपस्विनी तीनों लोकों में और कोई न हो।

निष्पाप संध्या के वरदान मांगने को सुनकर भगवान शिव बोले- हे देवी संध्या! तथास्तु! तुम जो चाहती हो, मैं तुम्हें प्रदान करता हूं। प्राणियों के जीवन में अब चार अवस्थाएं होंगी। पहली शैशव अवस्था, दूसरी कौमार्यावस्था, तीसरी यौवनावस्था और चौथी वृद्धावस्था । तीसरी अवस्था अर्थात यौवनावस्था में ही मनुष्य सकाम होगा। कहीं-कहीं दूसरी अवस्था के अंत में भी प्राणी सकाम हो सकते हैं। तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर ही मैंने यह मर्यादा निर्धारित की है। तुम परम सती होगी और तुम्हारे पति के अतिरिक्त जो भी मनुष्य तुम्हें सकाम भाव से देखेगा वह तुरंत पुरुषत्वहीन हो जाएगा। तुम्हारा पति महान तपस्वी होगा, जो कि सात कल्पों तक जीवित रहेगा। इस प्रकार मैंने तुम्हारे द्वारा मांगे गए दोनों वरदान तुम्हें प्रदान कर दिए हैं। अब मैं तुम्हें तुम्हारी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने का साधन बताता हूं। तुमने अग्नि में अपना शरीर त्यागने की प्रतिज्ञा की थी। मुनिवर मेधातिथि का एक यज्ञ चल रहा है, जो कि बारह वर्षों तक चलेगा। उसमें अग्नि बड़े जोरों से जल रही है। तुम उसी अग्नि में अपना शरीर त्याग दो। चंद्रभागा नदी के तट पर ही तपस्वियों का आश्रम है, जहां महायज्ञ हो रहा है। तुम उसी अग्नि से प्रकट होकर मेधातिथि की पुत्री होगी। अपने मन में जिस पुरुष की इच्छा करके तुम शरीर त्यागोगी वही पुरुष तुम्हें पति रूप में प्राप्त होगा। संध्या, जब तुम इस पर्वत पर तपस्या कर रही थीं तब त्रेता युग में प्रजापति दक्ष की बहुत सी कन्याएं हुईं। उनमें से सत्ताईस कन्याओं का विवाह उन्होंने चंद्रमां से कर दिया। चंद्रमा उन सबको छोड़कर केवल रोहिणी से प्रेम करते थे। तब दक्ष ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया। चंद्रमा को शाप से मुक्त कराने के लिए उन्होंने चंद्रभागा नदी की रचना की। उसी समय मेधातिथि यहां उपस्थित हुए थे। उनके समान कोई तपस्वी न है, न होगा। उन्हीं का 'ज्योतिष्टोम' नामक यज्ञ चल रहा है, जिसमें अग्निदेव प्रज्वलित हैं। तुम उसी आग में अपना शरीर डालकर पवित्र हो जाओ और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो इस प्रकार उपदेश देकर भगवान शिव वहां से अंतर्धान हो गए।


【श्रीरुद्र संहिता】

【द्वितीय खण्ड

सातवां अध्याय 


"संध्या की आत्माहुति"


ब्रह्माजी कहते हैं ;- नारद! जब भगवान शिव देवी संध्या को वरदान देकर वहां से अंतर्धान हो गए, तब संध्या उस स्थान पर गई, जहां पर मुनि मेधातिथि यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने अपने हृदय में तेजस्वी ब्रह्मचारी वशिष्ठ जी का स्मरण किया तथा उन्हीं को पतिरूप में पाने की इच्छा लेकर संध्या महायज्ञ की प्रज्वलित अग्नि में कूद गई। अग्नि में उसका शरीर जलकर सूर्य मण्डल में प्रवेश कर गया। तब सूर्य ने पितरों और देवताओं की तृप्ति के लिए उसे दो भागों में बांटकर रथ में स्थापित कर दिया। उसके शरीर का ऊपरी भाग प्रातः संध्या हुआ और शेष भाग सायं संध्या हुआ। सायं संध्या से पितरों को संतुष्टि मिलती है। सूर्योदय से पूर्व जब आकाश में लाली छाई होती है अर्थात अरुणोदय होता है उस समय देवताओं का पूजन करें। जिस समय लाल कमल के समान सूर्य अस्त होता है अर्थात डूबता है उस समय पितरों का पूजन करना चाहिए। भगवान शिव ने संध्या के प्राणों को दिव्य शरीर प्रदान कर दिया। जब मेधातिथि मुनि का यज्ञ समाप्त हुआ, तब उन्होंने एक कन्या को, जिसकी कांति सोने के समान थी, अग्नि में पड़े देखा। उसे मुनि ने भली प्रकार स्नान कराया और अपनी गोद में बैठा लिया। उन्होंने उसका नाम 'अरुंधती' रखा। यज्ञ के निर्विघ्न समाप्त होने और पुत्री प्राप्त होने के कारण मेधातिथि मुनि बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने अरुंधती का पालन आश्रम में ही किया। वह धीरे-धीरे उसी चंद्रभागा नदी के तट पर रहते हुए बड़ी होने लगी। जब वह विवाह योग्य हुई तो हम त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने मेधा मुनि से बात कर, उसका विवाह मुनि वशिष्ठ से करा दिया।

मुने, ! मेधातिथि की पुत्री महासाध्वी अरुंधती अति पतिव्रता थी। वह मुनि वशिष्ठ को पति रूप में पाकर बहुत प्रसन्न थी। वह उनके साथ रमण करने लगी। उससे शक्ति आदि शुभ एवं श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए। हे नारद! इस प्रकार मैंने तुम्हें परम पवित्र देवी संध्या का चरित्र सुनाया है। यह समस्त अभीष्ट फलों को देने वाला है। यह परम पावन और दिव्य है। जो स्त्री-पुरुष इस शुभ व्रत का पालन करते हैं, उनकी सभी कामनाएं पूरी होती हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें