शिव पुराण विद्येश्वर संहिता का इक्कीसवें अध्याय से पच्चीसवें अध्याय तक (From the twenty-first chapter to the twenty-fifth chapter of Shiv Purana Vidyeshwara Samhita)

           


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【विद्येश्वर संहिता】

इक्कीसवाँ अध्याय 


"शिवलिंग की संख्या"


सूत जी बोले :- महर्षियो! पार्थिव लिंगों की पूजा करोड़ों यज्ञों का फल देने वाली है। कलियुग में शिवलिंग पूजन मनुष्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ है। यह भोग और मोक्ष देने वाला एवं शास्त्रों का निश्चित सिद्धांत है। शिवलिंग तीन प्रकार के हैं- उत्तम, मध्यम और अधम चार अंगुल ऊंचे वेदी से युक्त, सुंदर शिवलिंग को 'उत्तम शिवलिंग' कहा जाता है। उससे आधा 'मध्यम' तथा मध्यम से आधा 'अधम' कहलाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों को वैदिक उपचारों से आदरपूर्वक शिवलिंग की पूजा करनी चाहिए। 

ऋषि बोले :- हे सूत जी ! शिवजी के पार्थिव लिंग की कुल कितनी संख्या है ? 

सूत जी बोले :– हे ऋषियो! पार्थिव लिंग की संख्या मनोकामना पर निर्भर करती है। बुद्धि की प्राप्ति के लिए सद्भावनापूर्वक एक हजार पार्थिव शिवलिंग का पूजन करें। धन की प्राप्ति के इच्छुक डेढ़ हजार शिवलिंगों का तथा वस्त्र प्राप्ति हेतु पांच सौ शिवलिंगों का पूजन करें। भूमि का इच्छुक एक हजार, दया भाव चाहने वाला तीन हजार, तीर्थ यात्रा करने की चाह रखने वाले को दो हजार तथा मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक मनुष्य एक करोड़ पार्थिव लिंगों की वेदोक्त विधि से पूजा-आराधना करें। अपनी कामनाओं के अनुसार शिवलिंगों की पूजा करें । पार्थिव लिंगों की पूजा करोड़ों यज्ञों का फल देने वाली है तथा उपासक को भोग और मोक्ष प्रदान करती है। इसके समान कोई और श्रेष्ठ नहीं है। अर्थात यह सर्वश्रेष्ठ है।

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शिवलिंग की नियमित पूजा-अर्चना से मनुष्य सभी विपत्तियों से मुक्त हो जाता है। शिवलिंग का नियमित पूजन भवसागर से तरने का सबसे सरल तथा उत्तम उपाय है। हर रोज लिंग का पूजन वेदोक्त विधि से करना चाहिए। भगवान शंकर का नैवेद्यांत पूजन करना चाहिए।

भगवान शंकर की आठ मूर्तियां पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चंद्रमा तथा यजमान हैं। इसके अतिरिक्त शिव, भव, रुद्र, उग्र, भीम, ईश्वर, महादेव तथा पशुपति नामों का भी पूजन करें। अक्षत, चंदन और बेलपत्र लेकर भक्तिपूर्वक शिवजी का पूजन करें तथा उनके परिवार, जिसमें ईशान, नंदी, चण्ड, महाकाल, भृंगी, वृष, स्कंद, कपर्दीश्वर, शुक्र तथा सोम हैं, का दसों दिशाओं में पूजन करें। शिवजी के वीर भद्र और कीर्तिमुख के पूजन के पश्चात ग्यारह रुद्रों की पूजा करें। पंचाक्षर मंत्र का जाप करें तथा शतरुद्रिय और शिवपंचाग का पाठ करें। इसके उपरांत शिवलिंग की परिक्रमा कर शिवलिंग का विसर्जन करें। रात्रि के समय समस्त देवकार्यों को उत्तर दिशा की ओर मुंह करके ही करना चाहिए। पूजन करते समय मन में भगवान शिव का स्मरण करना चाहिए। जिस स्थान पर शिवलिंग स्थापित हो वहां पर पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में न बैठें, क्योंकि पूर्व दिशा भगवान शिव के सामने पड़ती है और इष्टदेव का सामना नहीं रोकना चाहिए। उत्तर दिशा में शक्तिस्वरूपा देवी उमा विराजमान रहती हैं। पश्चिम दिशा में शिवजी का पीछे का भाग है और पूजा पीछे से नहीं की जा सकती, इसलिए दक्षिण दिशा में उत्तराभिमुख होकर बैठना चाहिए। शिव के उपासकों को भस्म से त्रिपुण्ड लगाकर, रुद्राक्ष की माला, बेलपत्र आदि लेकर भगवान का पूजन करना चाहिए। यदि भस्म न मिले तो मिट्टी से ही त्रिपुण्ड का निर्माण करके पूजन करना चाहिए।


【विद्येश्वर संहिता】

बाइसवाँ अध्याय 


"शिव नैवेद्य और बिल्व माहात्म्य"


ऋषि बोले :– हे सूत जी ! हमने पूर्व में सुना है कि शिव का नैवेद्य ग्रहण नहीं करना चाहिए। इस संबंध में शास्त्र क्या कहते हैं? इसके बारे में बताइए तथा बिल्व के माहात्म्य को भी स्पष्ट कीजिए ।

सूत जी ने कहा :- हे मुनियो! आप सभी शिव व्रत का पालन करने वाले हैं। इसलिए मैं आपको प्रसन्नतापूर्वक सारी बातें बता रहा हूं। आप ध्यानपूर्वक सुनें। भगवान शिव के भक्त को, जो उत्तम व्रत का पालन करता है तथा बाहर-भीतर से पवित्र व शुद्ध है अर्थात निष्काम भावना से भगवान शंकर की पूजा-अर्चना करता है, शिव नैवेद्य का अवश्य भक्षण करना चाहिए क्योंकि नैवेद्य को देख लेने से ही सारे पाप दूर हो जाते हैं। उसको ग्रहण करने से बहुत पुण्यों का फल मिलता है। नैवेद्य को खाने से हजारों और अरबों यज्ञों का पुण्य अंदर आ जाता है। जिसके घर में शिवजी के नैवेद्य का प्रचार होता है, उसका घर तो पवित्र है ही, बल्कि वह साथ के अन्य घरों को भी पवित्र कर देता है । इसलिए सिर झुकाकर प्रसन्नतापूर्वक एवं भक्ति भावना से इसे ग्रहण करें और इसे खा लें। जो मनुष्य इसे ग्रहण करने या लेने में विलंब करता है, वह पाप का भागी होता है। शिव की दीक्षा से युक्त शिवभक्त के लिए नैवेद्य महाप्रसाद है।

जो मनुष्य भगवान शिव के अलावा अन्य देवताओं की दीक्षा भी धारण किए हैं, उनके संबंध में ध्यानपूर्वक सुनिए- ब्राह्मणो! जहां से शालग्राम शिला की उत्पत्ति होती है, वहां उत्पन्न लिंग में रसलिंग में, पाषाण, रजत तथा सुवर्ण से निर्मित लिंग में, देवताओं तथा सिद्धों द्वारा प्रतिष्ठित लिंग में, केसर लिंग, स्फटिक लिंग, रत्न निर्मित लिंग तथा समस्त ज्योतिर्लिंगों में विराजमान भगवान शिव के नैवेद्य को ग्रहण करना 'चांद्रायण व्रत' के समान पुण्यदायक है। शिव नैवेद्य भक्षण करने एवं उसे सिर पर धारण करने से ब्रह्म हत्या के पाप से भी छुटकारा मिल जाता है और मनुष्य पवित्र हो जाता है परंतु जहां चाण्डालों का अधिकार हो, वहां का महाप्रसाद भक्तिपूर्वक भक्षण नहीं करना चाहिए। बाणलिंग, लौह निर्मित लिंग, सिद्धलिंग उपासना से प्राप्त अर्थात सिद्धों द्वारा स्थापित लिंग, स्वयंभूलिंग एवं मूर्तियों का जहां पर चण्ड का अधिकार नहीं है, जो मनुष्य भक्तिपूर्वक स्नान कराकर उस जल का तीन बार आचमन करता है, उसके सभी कायिक, वाचिक और मानसिक पाप नष्ट हो जाते हैं। जो वस्तु भगवान शिव को अर्पित की जाती है वह अत्यंत पवित्र मानी जाती है।

हे ऋषियो ! बिल्व अर्थात बेल का वृक्ष महादेव का रूप है। देवताओं द्वारा इसकी स्तुति की गई है। तीनों लोकों में स्थित सभी तीर्थ बिल्व में ही निवास करते हैं क्योंकि इसकी जड़ में लिंग रूपी महादेव जी का वास होता है। जो इसकी पूजा करता है, वह निश्चय ही शिवपद प्राप्त करता है ।

जो मनुष्य बिल्व की जड़ के पास अपने मस्तक को जल से सींचता है, उसे संपूर्ण तीर्थ स्थलों पर स्नान का फल प्राप्त होता है। बिल्व की जड़ों को पूरा पानी से भरा देखकर भगवान शिव संतुष्ट एवं प्रसन्न होते हैं, जो मनुष्य बिल्व की जड़ों अर्थात मूल भाग का गंध, पुष्प इत्यादि से पूजन करता है वह सीधा शिवलोक जाता है। उसे संतान और सुख की प्राप्ति होती है। भक्तिपूर्वक पवित्र मन से बिल्व की जड़ में दीपक जलाने वाला मनुष्य सब पापों से छूट जाता है। इस वृक्ष के नीचे जो मनुष्य एक शिवभक्त ब्राह्मण को भोजन कराता है, उसे एक करोड़ ब्राह्मणों को भोजन कराने का फल मिलता है। इस वृक्ष के नीचे दूध-घी में पके अन्न का दान देने से दरिद्रता दूर हो जाती है 

हे ऋषियो! 'प्रवृत्ति' और 'निवृत्ति' के दो मार्ग हैं। 'प्रवृत्ति' के मार्ग में पूजा-पाठ करने से मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। यह संपूर्ण अभीष्ट फल प्रदान करता है। किसी सुपात्र गुरु द्वारा विधि-विधान से पूजन कराएं। अभिषेक के बाद अगहनी चावल से बना नैवेद्य अर्पण करें। पूजा के अंत में शिवलिंग को संपुट में विराजमान कर घर में किसी शुद्ध स्थान पर रख दें। निवृत्ति मार्गी उपासकों को हाथ में ही पूजन करना चाहिए। भिक्षा में प्राप्त भोजन को ही नैवेद्य के रूप में अर्पित करें। निवृत्ति पुरुषों के लिए सूक्ष्म लिंग ही श्रेष्ठ है। विभूति से पूजन करें तथा विभूति को ही निवेदित करें। पूजा करने के उपरांत लिंग को मस्तक पर धारण करें।

【विद्येश्वर संहिता】

तेइसवाँ अध्याय 


"शिव नाम की महिमा"


ऋषि बोले :-- हे व्यास शिष्य सूत जी! आपको नमस्कार है। हम पर कृपा कर हमें परम उत्तम 'रुद्राक्ष' तथा शिव नाम की महिमा का माहात्म्य सुनाइए । 

सूत जी बोले :– हे ऋषियो! आपने बहुत ही उत्तम तथा समस्त लोकों के हित की बात

पूछी है। भगवान शिव की उपासना करने वाले मनुष्य धन्य हैं। उनका मनुष्य होना सफल हो गया है। साथ ही शिवभक्ति से उनके कुल का उद्धार हो गया है। जो मुख मनुष्य अपने से सदाशिव और शिव नामों का उच्चारण करते हैं, पाप उनका स्पर्श भी नहीं कर पाता है। भस्म, रुद्राक्ष और शिव नाम त्रिवेणी के समान महा पुण्यमय हैं। इन तीनों के निवास और दर्शन मात्र से ही त्रिवेणी के स्नान का फल प्राप्त हो जाता है। इनका निवास जिसके शरीर में होता है, उसके दर्शन से ही सभी पापों का विनाश हो जाता है। भगवान शिव का नाम 'गंगा' है, विभूति (भस्म) 'यमुना' मानी गई है तथा रुद्राक्ष को 'सरस्वती' कहा गया है। इनकी संयुक्त त्रिवेणी समस्त पापों का नाश करने वाली है। हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इनकी महिमा सिर्फ भगवान महेश्वर ही जानते हैं। यह शिव नाम का माहात्म्य समस्त पापों को हर लेने वाला है। 'शिव-नाम' अग्नि है और 'महापाप' पर्वत है। इस अग्नि से पाप रूपी पर्वत जल जाते हैं। शिव नाम को जपने मात्र से ही पाप-मूल नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इस पृथ्वी लोक में भगवान शिव के जाप में लगा हुआ रहता है, वह विद्वान पुण्यात्मा और वेदों का ज्ञाता है। उसके द्वारा किए गए धर्म-कर्म फल देने वाले हैं। जो भी मनुष्य शिव नाम रूपी नौका पाकर भवसागर को तर जाते हैं, उनके भवरूपी पाप निःसंदेह ही नष्ट हो जाते हैं। जो पाप रूपी दावानल से पीड़ित हैं, उन्हें शिव नामरूपी अमृत का पान करना चाहिए।

हे मुनीश्वरो! जिसने अनेक जन्मों तक तपस्या की है, उसे ही पापों का नाश करने वाली शिव भक्ति प्राप्त होती है। जिस मनुष्य के मन में कभी न खण्डित होने वाली शिव-भक्ति प्रकट हुई है, उसे ही मोक्ष मिलता है। जो अनेक पाप करके भी भगवान शिव के नाम-जप में आदरपूर्वक लग गया है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। इसमें जरा भी संशय नहीं है। जिस प्रकार जंगल में दावानल से दग्ध हुए वृक्ष भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार शिव नाम रूपी दावानल से दग्ध होकर उसके सारे पाप भस्म हो जाते हैं। जिसके भस्म लगाने से अंग पवित्र हो गए हैं और जो आदर सहित शिव नाम जपता है, वह इस अथाह भवसागर से पार हो जाता है। संपूर्ण वेदों का अवलोकन करके महर्षियों ने शिव नाम को संसार-सागर को पार करने का उपाय बताया है। भगवान शंकर के एक नाम में भी पाप को समाप्त करने की इतनी शक्ति है कि उतने पातक कभी कोई मनुष्य कर ही नहीं सकता। पूर्वकाल में इंद्रद्युम्न नाम का एक महापापी राजा हुआ था और एक ब्राह्मण युवती, जो बहुत पाप कर चुकी थी, शिव नाम के प्रभाव से दोनों उत्तम गति को प्राप्त हुए। हे द्विजो! इस प्रकार मैंने तुमसे शिव नाम की महिमा का वर्णन किया है ।


【विद्येश्वर संहिता】

चौबीसवाँ अध्याय 


"भस्मधारण की महिमा"


सूत जी ने कहा :– हे ऋषियो! अब मैं तुम्हारे लिए समस्त वस्तुओं को पावन करने वाले भस्म का माहात्म्य सुनाता हूं। 

भस्म दो प्रकार की होती है— एक 'महाभस्म' और दूसरी 'स्वल्प भस्म'। महाभस्म के भी अनेक भेद हैं। 

यह तीन प्रकार की होती है— 'श्रोता', 'स्मार्थ', और 'लौकिक'। श्रोता और स्मार्थ भस्म केवल ब्राह्मणों के ही उपयोग में आने योग्य है। लौकिक भस्म का उपयोग सभी मनुष्यजन कर सकते हैं। ब्राह्मणों को वैदिक मंत्रों का जाप करते हुए भस्म धारण करनी चाहिए तथा अन्य मनुष्य बिना मंत्रों के भस्म धारण कर सकते हैं। उपलों से सिद्ध की हुई भस्म 'आग्नेय भस्म' कहलाती है। यह त्रिपुण्ड का द्रव्य है। अन्य यज्ञ से प्रकट हुई भस्म भी त्रिपुण्ड धारण के काम आती है। जाबालि उपनिषद के अनुसार, 'अग्नि' इत्यादि मंत्रों द्वारा सात बार जल में भिगोकर शरीर में भस्म लगाएं। तीनों संध्याओं में जो शिव भस्म से त्रिपुण्ड लगाता है, वह सब पापों से मुक्त होकर शिव की कृपा से मोक्ष पाता है। त्रिपुण्ड और भस्म लगाकर विधिपूर्वक जाप करें। भगवान शिव और विष्णु ने भी त्रिपुण्ड धारण किया है। अन्य देवियों सहित भगवती उमा और देवी लक्ष्मी ने इनकी प्रशंसा की है। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों, वर्णसंकरों तथा जातिभ्रष्ट पुरुषों ने भी उद्धूलन एवं त्रिपुण्ड रूप में भस्म धारण की है।

महर्षियो! इस प्रकार संक्षेप में मैंने त्रिपुण्ड का माहात्म्य बताया है। यह समस्त प्राणियों के लिए गोपनीय है। ललाट अर्थात माथे पर भौंहों के मध्य भाग से भौंहों के अंत भाग जितना बड़ा त्रिपुण्ड ललाट में धारण करना चाहिए । मध्यमा और अनामिका अंगुली से दो रेखाएं करके अंगूठे द्वारा बीच में सीधी रेखा त्रिपुण्ड कहलाती है। त्रिपुण्ड अत्यंत उत्तम तथा भोग और मोक्ष देने वाला है। त्रिपुण्ड की एक-एक रेखा में नौ-नौ देवता हैं, जो सभी अंगों में स्थित हैं। प्रणव का प्रथम अक्षर अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति, प्रातः सवन तथा महादेव - ये त्रिपुण्ड की प्रथम रेखा के नौ देवता हैं। प्रणव का दूसरा अक्षर उकार – दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्वगुण, यजुर्वेद, मध्यदिन सवन, इच्छाशक्ति, अंतरात्मा तथा महेश्वर–ये दूसरी रेखा के नौ देवता हैं। प्रणव का तीसरा अक्षर मकार — आहवनीय अग्नि, परमात्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद तृतीय सवन तथा शिव - ये तीसरी रेखा के नौ देवता हैं ।

प्रतिदिन स्नान से शुद्ध होकर भक्तिभाव से त्रिपुण्ड में स्थित देवताओं को नमस्कार कर त्रिपुण्ड धारण करें तो भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है। भस्म को बत्तीस, सोलह, आठ अथवा पांच स्थानों में धारण करें। सिर, माथा, दोनों कान, दोनों आंखें, नाक के दोनों नथुनों, दोनों हाथ, मुंह, कंठ, दोनों कोहनी, दोनों भुजदंड, हृदय, दोनों बगल, नाभि, दोनों अण्डकोष, दोनों उरु, दोनों घुटनों, दोनों पिंडली, दोनों जांघों और पांव आदि बत्तीस अंगों में क्रमशः अग्नि, वायु, पृथ्वी, देश, दसों दिशाएं, दसों दिग्पाल, आठों वसुंधरा, ध्रुव, सोम, आम, अनिल, प्रातःकाल इत्यादि का नाम लेकर भक्तिभाव से त्रिपुण्ड धारण करें अथवा एकाग्रचित्त हो सोलह स्थान में ही त्रिपुण्ड धारण करें। 

सिर, माथा, कण्ठ, दोनों कंधों, दोनों हाथों, दोनों कोहनियों तथा दोनों कलाइयों, हृदय, नाभि, दोनों पसलियों एवं पीठ में त्रिपुण्ड लगाकर इन सोलह अंगों में धारण करें। तब अश्विनीकुमार, शिवशक्ति, रुद्र, ईश, नारद और वामा आदि नौ शक्तियों का पूजन करके उन्हें त्रिपुण्ड में धारण करें। सिर, बालों, दोनों कान, मुंह, दोनों हाथ, हृदय, नाभि, उरुयुगल, दोनों पिंडली एवं दोनों पावों - इन सोलह अंगों में क्रमशः शिव, चंद्रमा, रुद्र, ब्रह्मा, गणेश, लक्ष्मी, विष्णु, शिव, प्रजापति, नाग, दोनों नाग कन्या, ऋषि कन्या, समुद्र तीर्थ इत्यादि के नाम स्मरण करके त्रिपुण्ड भस्म धारण करें। माथा, दोनों कान, दोनों कंधे, छाती, नाभि एवं गुह्य अंग आदि आठ अंगों में सप्तऋषि ब्राह्मणों का नाम लेकर भस्म धारण करें अथवा मस्तक, दोनों भुजाएं, हृदय और नाभि इन पांच स्थानों को भस्म धारण करने के योग्य बताया गया है। देश तथा काल को ध्यान में रखकर भस्म को अभिमंत्रित करना चाहिए तथा भस्म को जल में मिलाना चाहिए । त्रिनेत्रधारी, सभी गुणों के आधार तथा सभी देवताओं के जनक और ब्रह्मा एवं रुद्र की उत्पत्ति करने वाले परब्रह्म परमात्मा ‘शिव’ का ध्यान करते हुए 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र को बोलते हुए माथे एवं अंगों पर त्रिपुण्ड धारण करें।


【विद्येश्वर संहिता】

पच्चीसवाँ अध्याय 


"रुद्राक्ष माहात्म्य"


सूत जी कहते हैं :– महाज्ञानी शिवस्वरूप शौनक ! भगवान शंकर के प्रिय रुद्राक्ष का माहात्म्य मैं तुम्हें सुना रहा हूं। यह रुद्राक्ष परम पावन है। इसके दर्शन, स्पर्श एवं जप करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। इसकी महिमा तो स्वयं सदाशिव ने संपूर्ण लोकों के कल्याण के लिए देवी पार्वती को सुनाई है।

भगवान शिव बोले :- हे देवी! तुम्हारे प्रेमवश भक्तों के हित की कामना से रुद्राक्ष की महिमा का वर्णन कर रहा हूं। पूर्वकाल में मैंने मन को संयम में रखकर हजारों दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या की। एक दिन अचानक मेरा मन क्षुब्ध हो उठा और मैं सोचने लगा कि मैं संपूर्ण लोकों का उपकार करने वाला स्वतंत्र परमेश्वर हूं। अतः मैंने लीलावश अपने दोनों नेत्र खोल दिए । नेत्र खुलते ही मेरे नेत्रों से जल की झड़ी लग गई, उसी से गौड़ देश से लेकर मथुरा, अयोध्या, काशी, लंका, मलयाचल पर्वत आदि स्थानों में रुद्राक्षों के पेड़ उत्पन्न हो गए। तभी से इनका माहात्म्य बढ़ गया और वेदों में भी इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इसलिए रुद्राक्ष की माला समस्त पापों का नाश कर भक्ति-मुक्ति देने वाली है। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय और शूद्र जातियों में जन्मे शिवभक्त सफेद, लाल, पीले या काले रुद्राक्ष धारण करें। मनुष्यों को जाति अनुसार ही रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। आंवले के फल के बराबर रुद्राक्ष को श्रेष्ठ माना जाता है। बेर के फल के बराबर को मध्यम श्रेणी का और चने के आकार के रुद्राक्ष को निम्न श्रेणी का माना जाता है।

हे देवी! बेर के समान रुद्राक्ष छोटा होने पर भी लोक में उत्तम फल देने वाला तथा सुख, सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है। जो रुद्राक्ष आंवले के बराबर है, वह सभी अनिष्टों का विनाश करने वाला तथा सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला होता है। रुद्राक्ष जैसे-जैसे छोटा होता है, वैसे ही वैसे अधिक फल देने वाला होता है। पापों का नाश करने के लिए रुद्राक्ष धारण अवश्य करना चाहिए। यह संपूर्ण अभीष्ट फलों की प्राप्ति सुनिश्चित करता है। लोक में मंगलमय रुद्राक्ष जैसा फल देने वाला कुछ भी नहीं है। समान आकार वाले चिकने, गोल, मजबूत, मोटे, कांटेदार रुद्राक्ष (उभरे हुए छोटे-छोटे दानों वाले रुद्राक्ष ) सब मनोरथ सिद्धि एवं भक्ति-मुक्ति दायक हैं किंतु कीड़ों द्वारा खाए गए, टूटे-फूटे, कांटों से युक्त तथा जो पूरा गोल न हो, इन पांच प्रकार के रुद्राक्षों का त्याग करें। जिस रुद्राक्ष में अपने आप डोरा पिरोने के लिए छेद हो, वही उत्तम माना गया है। जिसमें मनुष्य द्वारा छेद किया हो उसे मध्यम श्रेणी का माना जाता है। इस जगत ग्यारह सौ रुद्राक्ष धारण करके मनुष्य जो फल पाता है, उसका में वर्णन नहीं किया जा सकता। भक्तिमान पुरुष साढ़े पांच सौ रुद्राक्ष के दानों का मुकुट बना ले और उसे सिर पर धारण करे। तीन सौ साठ दानों का हार बना ले, ऐसे तीन हार बनाकर उनका यज्ञोपवीत धारण करे ।

महर्षियो! सिर पर ईशान मंत्र से कान में तत्पुरुष मंत्र से रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। गले में रुद्राक्ष, मस्तक पर त्रिपुण्डधारी रुद्राक्ष पहने 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र का जाप करने वाला मनुष्य यमपुर को नहीं जाता। रुद्राक्ष माला पर मंत्र जपने का करोड़ गुना फल मिलता है । तीन मुख वाला रुद्राक्ष साधन सिद्ध करता है एवं विद्याओं में निपुण बनाता है। चार मुख वाला रुद्राक्ष ब्रह्मस्वरूप है। इसके दर्शन एवं पूजन से नर-हत्या का पाप छूट जाता है । यह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि चारों पुरुषार्थों का फल देता है। पांच मुख वाले रुद्राक्ष को कालाग्नि अर्थात पंचमुखी कहा जाता है। यह सर्व कामनाएं पूर्ण कर मोक्ष प्रदान करता है। अभोग्य स्त्रियों को भोगने के पाप तथा भक्षण के पापों से मुक्त हो जाता है। छः मुखी रुद्राक्ष कार्तिकेय का स्वरूप है। इसको सीधी बांह में बांधने से ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति मिलती है। सप्तमुखी रुद्राक्ष धारण करने से धन की प्राप्ति होती है। आठ मुखों वाला रुद्राक्ष 'भैरव' का स्वरूप है। इसे धारण करने से लंबी आयु प्राप्त होती है और मरने पर शिव-पद प्राप्त हो जाता है। नौ मुखों वाला रुद्राक्ष भैरव तथा कपिल मुनि का स्वरूप माना जाता है और भगवती दुर्गा उसकी अधिष्ठात्री देवी मानी गई हैं। इसे बाएं हाथ में धारण करने से समस्त वैभवों की प्राप्ति होती है। दस मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात भगवान विष्णु का रूप है इसे धारण करने से सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। ग्यारह मुख वाला रुद्राक्ष रुद्ररूप है। इसको धारण करने से मनुष्य को सब स्थानों पर विजय मिलती है। बारह मुख वाले रुद्राक्ष को बालों में धारण करने से मस्तक पर 11 सूर्यों के समान तेज प्राप्त होता है। तेरह मुख वाला रुद्राक्ष विश्वेदेवों का स्वरूप है। इसे धारण करने से सौभाग्य और मंगल का लाभ मिलता है। चौदह मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात शिव स्वरूप है। इसे भक्तिपूर्वक मस्तक पर धारण करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है। इस प्रकार मुखों के भेद से रुद्राक्ष के चौदह भेद बताए गए हैं। हे पार्वती जी! 

अब मैं तुम्हें रुद्राक्ष धारण के मंत्र सुनाता हूं – (1) 'ॐ ह्रीं नमः', (2) 'ॐ नमः', (3) 'क्लीं नमः', (4) 'ॐ ह्रीं नमः', (5) 'ॐ ह्रीं नमः', (6) 'ॐ ह्रीं हुं नमः', (7) 'ॐ हुं नमः', (8) 'ॐ हुं नमः', (9) 'ॐ हुं नमः', (10) 'ॐ हृ हुं नमः', (11) ॐ ह्रीं हुं नमः', (12) 'ॐ हुं नमः', (13) 'ॐ क्रौं क्षौरो नमः' तथा (14) ॐ ह्रीं नमः । इन चौदह मंत्रों द्वारा क्रमशः एक से लेकर चौदह मुख वाले रुद्राक्ष को धारण करने का विधान है। साधक को नींद और आलस्य का त्याग कर श्रद्धाभक्ति से मंत्रों द्वारा रुद्राक्ष धारण करना चाहिए ।

रुद्राक्ष की माला धारण करने वाले मनुष्य को देखकर भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी दूर भाग जाते हैं। रुद्राक्षधारी पुरुष को देखकर स्वयं मैं, भगवान विष्णु, देवी दुर्गा, गणेश, सूर्य तथा अन्य देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए धर्म की वृद्धि के लिए भक्तिपूर्वक मंत्रों द्वारा विधिवत रुद्राक्ष धारण करना चाहिए।

मुनीश्वर! भगवान शिव ने देवी पार्वती से जो कुछ कहा था, वह मैंने आपको कह सुनाया है। मैंने आपके समक्ष विद्येश्वर संहिता का वर्णन किया है। यह संहिता संपूर्ण सिद्धियों को देने वाली तथा भगवान शिव की आज्ञा से मोक्ष प्रदान करने वाली है। जो मनुष्य इसे नित्य पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे पुत्र-पौत्रादि के सुख भोगकर, सुखमय जीवन व्यतीत करके अंत में शिवरूप होकर मुक्त हो जाते हैं।

         【विद्येश्वर संहिता सम्पूर्ण】


।। ॐ नमः शिवाय ।।

श्रीरुद्र संहिता प्रारंभ

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