सम्पूर्ण विष्णु पुराण (तृतीय अंश) का पाँचवाँ व छठा अध्याय

{{सम्पूर्ण विष्णु पुराण (तृतीय अंश) का पाँचवाँ व छठा अध्याय}} {The fifth and sixth chapters of the entire Vishnu Purana (third part)}

                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (तृतीय अंश)


                             "पाँचवाँ अध्याय"

"शुक्लयजुर्वेद तथा तैत्तिरीय यजु:शाखाओं का वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे महामुने ! व्यासजी के शिष्य वैशम्पायन ने यजुर्वेदरूपी वृक्ष की सत्ताईस शाखाओं की रचना की; और उन्हें अपने शिष्यों को पढ़या तथा शिष्यों ने भी क्रमशः ग्रहण किया || १ – २ || हे द्विज ! उनका एक परम धार्मिक और सदैव गुरुसेवा में तत्पर रहनेवाला शिष्य ब्रह्मरात का पुत्र याज्ञवल्क्य था || ३ || जो कोई महामेरुपर स्थित हमारे उस समाज में सम्मिलित न होगा उसको सात रात्रियों के भीतर भी ब्रह्महत्या लगेगी || ४ || हे द्विज ! इसप्रकार मुनियों ने पहले जिस समय को नियत किया था उसका केवल एक वैशम्पायन ने ही अतिक्रमण कर दिया || ५ || इसके पश्चात उन्होंने प्रसादवश पैर से छुए हुए अपने भानजे की हत्या कर डाली; तब उन्होंने अपने शिष्यों से कहा – ‘हे शिष्यगण ! तुम सब लोग किसी प्रकार का विचार न करके मेरे लिये ब्रह्महत्या को दूर करनेवाला व्रत करो’ || ६ – ७ ||

तब याज्ञवल्क्य बोले ;– ‘भगवन ! ये सब ब्राह्मण अत्यंत निस्तेज हैं, इन्हें कष्ट देने की क्या आवश्यकता हैं ? मैं अकेला ही इस व्रत का अनुष्ठान करूँगा ‘ || ८ || इससे गुरु वैशम्पायनजी ने क्रोधित होकर महामुनि याज्ञवल्क्य से कहा – ‘अरे ब्राह्मणों का अपमान करनेवाले | तूने मुझसे जो कुछ पढ़ा है, वह सब त्याग दे || ९ || तू इन समस्त द्विजश्रेष्ठों को निस्तेज बताता हैं, मुझे तुझ-जैसे आज्ञा – भंगकारी शिष्य से कोई प्रयोजन नहीं हैं’ || १०|| याज्ञवल्क्यने कहा – ‘हे द्विज ! मैंने तो भक्तिवश आपसे ऐसा कहा था, मुझे भी आपसे कोई प्रयोजन नहीं है, लीजिये, मैंने आपसे जो कुछ पढ़ा है वह यह मौजूद है ‘ || ११ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– ऐसा कह महामुनि याज्ञवल्क्यजी ने रुधिर से भरा हुआ मूर्तिमान यजुर्वेद वाम करके उन्हें दे दिया; और स्वेच्छानुसार चले गये || १२ || हे द्विज ! याज्ञवल्क्यद्वारा वमन की हुई उन यजु:श्रुतियों को अन्य शिष्यों ने तित्तिर (तीतर) होकर ग्रहण कर लिया, इसलिये वे सब तैत्तिरीय कहलाये || १३ || हे मुनिसत्तम ! जिन विप्रगण ने गुरु की प्रेरणासे ब्रह्महत्या-विनाशक व्रत का अनुष्ठान किया था, वे सब व्रताचरण के कारण यजु:शाखाध्यायी चरकाध्वर्यु हुए || १४ || तदनन्तर, याज्ञवल्क्य ने भी यजुर्वेद की प्राप्ति की इच्छा से प्राणों का संयम कर संयतचित्त से सूर्यभगवान की स्तुति की || १५ ||

याज्ञवल्क्यजी बोले ;– अतुलित तेजस्वी, मुक्ति के द्वारस्वरूप तथा वेदत्रयरूप तेजसे सम्पन्न एवं ऋक, यजु: तथा सामस्वरूप सवितादेव को नमस्कार है || १६ || जो अग्नि और चन्दमारूप, जगत के कारण और सुषुम्र नामक परमतेज को धारण करनेवाले हैं, उन भगवान भास्कर को नमस्कार है || १७ || कला, काष्ठा, निमेष आदि कालज्ञान के कारण तथा ध्यान करनेयोग्य परब्रह्मस्वरूप विष्णुमय श्रीसूर्यदेव को नमस्कार है || १८ || जो अपनी किरणों से चन्द्रमा को पोषित करते हुए देवताओं को तथा स्वधारूप अमृत से पितृगण को तृप्त करते है, उन तृप्तिरूप सूर्यदेव को नमस्कार है || १९ || जो हिम, जल और उष्णता के कर्ता [ अर्थात शीत, वर्षा और ग्रीष्म आदि ऋतुओं के कारण ] है और जगतका पोषण करनेवाले हैं, उन त्रिकालमूर्ति विधाता भगवान सूर्य को नमस्कार है || २० || जो जगत्पति इस सम्पूर्ण जगत के अन्धकार को दूर करते हैं, उन सत्त्वमुर्तिधारी-विवस्वान को नमस्कार है || २१ || जिनके उदित हुए विना मनुष्य सत्कर्म में प्रवृत्त नहीं हो सकते और जल शुद्धि का कारण नहीं हो सकता, उन भास्वान्देव को नमस्कार हैं || २२ ||

जिनके किरण-समूह का स्पर्श होनेपर लोक कर्मानुष्ठान के योग्य होता है, उन पवित्रता के कारण, शुद्धस्वरूप सूर्यदेव को नमस्कार है || २३ || भगवान सविता, सूर्य, भास्कर और विवस्थान को नमस्कार है, देवता आदि समस्त भूतों के आदिभूत आदित्यदेव को बारंबार नमस्कार है || २४ || जिनका तेजोमय रथ है, [ प्रज्ञारूप ] ध्वजाएँ हैं, जिन्हें [ छ्न्दोमय] अमर अश्वगण वहन करते है तथा जो त्रिभुवन को प्रकाशित करनेवाले नेत्ररूप है, उन सूर्यदेव को मैं नमस्कार करता हूँ || २५ ||

श्रीपराशरजी बोले ;– उनके इसप्रकार स्तुति करनेपर भगवान सूर्य अश्वरूप से प्रकट होकर बोले – ‘तुम अपना अभीष्ट वर माँगो’ || २६ || तब याज्ञवल्क्यजी ने उन्हें प्रणाम करके कहा – आप मुझे उन यजु:श्रुतियों का उपदेश कीजिये जिन्हें मेरे गुरूजी भी न जानते हों || २७ || उनके ऐसा कहनेपर भगवान सूर्य ने उन्हें अयातयाम नामक यजु:श्रुतियों का उपदेश दिया जिन्हें उनके गुरु वैशम्पायनजी भी नही जानते थे || २८ || हे द्विजोत्तम ! उन श्रुतियों को जिन ब्राह्मणों ने पढ़ा था वे वाजी-नामसे विख्यात हुए क्योंकि उनका उपदेश करते समय सूर्य भी अश्वरूप हो गये थे || २९ || हे महाभाग ! उन वाजिश्रुतियों की कान्व आदि पन्द्रह शाखाएँ हैं; वे सब शाखाएँ महर्षि याज्ञवल्क्यकी प्रवुत्त की हुई कही जाती हैं || ३० ||

          "इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे पंचमोऽध्यायः"

                           "सम्पूर्ण विष्णु पुराण " 

                          ॐ श्री मन्नारायणाय नम:
               ''नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम ।
               देवी सरस्वती व्याप्तं ततो जयमुदिरयेत"।।

                               श्री विष्णुपुराण
                                (तृतीय अंश)


                             "छठा अध्याय"

"सामवेद की शाखा, अठारह पुराण और चौदह विद्याओं के विभाग का वर्णन"
श्रीपराशरजी बोले ;– हे मैत्रेय ! जिस क्रमसे व्यासजी के शिष्य जैमिनि ने सामवेद की शाखाओं का विभाग किया था, वह मूझसे सुनो || १ || जैमिनिका पुत्र सुमन्तु था और उसका पुत्र सुकर्मा हुआ | उन दोनों महामति पुत्र-पौत्रों ने सामवेद की एक-एक शाखाका अध्ययन किया || २ || तदनन्तर सुमन्तु के पुत्र सुकर्मा ने अपनी सामवेदसंहिता के एक सहस्त्र शाखाभेद किये और हे द्विजोत्तम ! उन्हें उसके कौसल्य हिरण्यनाभ तथा पौष्पिंची नामक दो महाव्रती शिष्यों ने ग्रहण किया | हिरण्यनाभ के पाँच सौ शिष्य थे जो उदीच्य सामग कहलाये || ३ – ४ ||

इसी प्रकार जिन अन्य द्विजोत्तमों ने इतनी ही संहिताएँ हिरण्यनाभ से और ग्रहण की उन्हें पंडितजन प्राच्य सामग कहते है || ५ || पौष्पिंचि के शिष्य लोकाक्षि, नौधमि, कक्षीवान और लांगलि थे | उनके शिष्य-प्रशिष्यों ने अपनी-अपनी संहिताओं के विभाग करके उन्हें बहुत बढ़ा दिया || ६ || महामुनि कृति नामक हिरण्यनाभ के एक और शिष्य ने अपने शिष्यों को सामवेद की चौबीस संहिताएँ पढायी || ७ || फिर उन्होंने भी इस सामवेदका शाखाओंद्वारा खूब विस्तार किया | अब मैं अर्थववेद की संहिताओं के समुच्चय का वर्णन करता हूँ || ८ ||

अथर्ववेद को सर्वप्रथम अमिततेजोमय सुमन्तु मुनि ने अपने शिष्य कबंध को पढाया था फिर कबंध ने उसके दो भाग कर उन्हें देवदर्श और पथ्य नामक अपने शिष्यों को दिया || ९ || हे द्विजसत्तम ! देवदर्श के शिष्य मेध, ब्रह्मबलि, शौल्कायनि और पिप्पल थे || १० || हे द्विज ! पथ्य के भी जाबालि, कुमुदादि और शौनक नामक तीन शिष्य थे, जिन्होंने संहिताओं का विभाग किया || ११ || शौनक ने भी अपनी संहिता के दो विभाग करके उनमें से एक वभ्रुको तथा दूसरी सैन्धव नामक अपने शिष्य को दी || १२ || सैन्धव से पढकर मुच्चिकेश ने अपनी संहिता के पहले दो और फिर तीन विभाग किये | नक्षत्रकल्प, वेद्कल्प, संहिताकल्प, आंगिरसकल्प और शान्तिकल्प – उनके रचे हुए ये पाँच विकल्प अथर्ववेद संहिताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं || १३- १४ ||

तदनन्तर, पुराणार्थविशारद व्यासजी ने आख्यान, उपाख्यान, गाथा और कल्पशुद्धि के सहित पुराण संहिता की रचना की || १५ || रोमहर्षण सूत व्यासजी के प्रसिद्ध शिष्य थे | महामति व्यासजी ने उन्हें पुराण-संहिता का अध्ययन कराया || १६ || उन सूतजी के सुमति, अग्निवर्चा, मित्रायु, शांसपायन, अकृतव्रण और सावर्णि – ये छ: शिष्य थे || १७ || काश्यप-गोत्रीय अकृतव्रण, सावर्णि और शांसपायन – ये तीनों संहिताकर्ता हैं | उन तीनों संहिताओं की आधार एक रोमहर्षणजी की संहिता है | हे मुने ! इन चारों संहिताओं की सारभूत मैंने यह विष्णुपुराणसंहिता बनायी है || १८- १९ || पुराणज्ञ पुरुष कुल अठारह पुराण बतलाते हैं; उन सबमें प्राचीनतम ब्रह्मपुराण है || २० ||

प्रथम पुराण ब्राह्म है, दूसरा पाद्य, तीसरा वैष्णव, चौथा शैव, पाँचवाँ भागवत, छटा नारदीय और सातवाँ मार्कण्डेय हैं || २१ || इसी प्रकार आठवाँ आग्नेय, नवाँ भविष्यत, दसवाँ ब्रह्मवैवर्त्त और ग्यारहवाँ पुराण लैंग कहा जाता है || २२ || तथा बारहवाँ वाराह, तेरहवाँ स्कांद, चौदहवाँ वामन, पन्द्रहवाँ कौर्म तथा इनके पश्चात मात्स्य, गारुड और ब्रह्माण्डपुराण हैं | हे महामुने ! ये ही अठारह महापुराण हैं || २३ – २४ || इनके अतिरिक्त मुनिजनों ने और भी अनेक उपपुराण बतलाये हैं | इन सभी में सृष्टि, प्रलय, देवता आदिकों के वंश, मन्वन्तर और भिन्न-भिन्न राजवंशों के चरित्रोंका वर्णन किया गया है || २५ ||

हे मैत्रेय ! जिस पुराण को मैं तुम्हें सुना रहा हूँ वह पाद्मपुराण के अनन्तर कहा हुआ वैष्णव नामक महापुराण है || २६ || हे साधुश्रेष्ठ ! इसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश और मन्वन्तरादिका वर्णन करते हुए सर्वत्र केवल विष्णुभगवान् का ही वर्णन किया गया है || २७ ||

छ: वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र – ये ही चौदह विद्याएँ हैं || २८ || इन्हीमें आयुर्वेद, धनुर्वेद और गान्धर्व इन तीनों को तथा चौथे अर्थशास्त्र को मिला लेने से कुल अठारह विद्या हो जाती है | ऋषियों के तीन भेद हैं – प्रथम ब्रह्मर्षि, द्वितीय देवर्षि और फिर राजर्षि || २९ – ३० || इसप्रकार मैंने तुमसे वेदों की शाखा, शाखाओं के भेद, उनके रचयिता तथा शाखा-भेद के कारणों का भी वर्णन कर दिया || ३१ || इसी प्रकार समस्त मन्वन्तरों में एक-से शाखाभेद रहते हैं; हे द्विज ! प्रजापति ब्रह्माजी से प्रकट होनेवाली श्रुति तो नित्य है, ये तो उसके विकल्पमात्र हैं || ३२ ||

           "इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे षष्ठोऽध्यायः"

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